शमा एक अकेली ब्लॉगर है

किसी का व्यक्तिगत्‌ सच कितना बेबाब हो सकता है और अगर ब्लॉगिंग का मकसद अपने आपको अभिव्यक्त करना है तो हमें शमा का ब्लॉग देखना ही चाहिये। अभी तक के लगभग सवा पांच हजार हिन्दी ब्लॉगों में शमा एक अकेली ब्लॉगर है जिनको पढ़कर ब्लॉगिंग करने का मकसद समझा जा सकता है। ब्लॉगिंग पर एक समीक्षात्मक लेख लिखते हुए अनुप शुक्ला जी ने कहा था- कि ऐसे बहुत सारे ब्लॉगर है, जो नेटवकिर्ग के अभाव के चलते उतने सामने नही आ पाये हैं जितना अच्छा उनका लेखन है। इनमें से एक नाम शमा जी का है। उनके घर-परिवार के सदस्यों से जुड़े संस्मरण पढ़कर उनके लेखन की ईमानदारी और परिपक्वता का पता चलता है।
जब पहली बार मैने शमा के ब्लॉग ( The Light by a Lonely Path) को देखा था। तब मैंने उसके कटैंट को नहीं देखा बल्कि उनकी तस्वीर को देखकर प्रभावित हुआ था। अगर महिला ब्लॉगरों की कोई सौन्दर्य प्रतियोगिता रखी जाए तो शमा इसके लिये एक वजनदार नाम है। वह बेहद बिदांस नजर आती है लेकिन गम्भीरता का टच लिये हुए। शमा मुलतः एक अग्रेजी लेखिका है जो हिन्दी में अपना ब्लॉग चलती है और पुणे में रहती है। ''एक बार फिर दुविधा'' नाम से वह आजकल एक श्रृंखला लिख रही है जो उनकी अपनी आपबीती है। इस आपबीती में जो सच्चाई है वह बड़ी बात नही है बल्कि ऐसी सच्चाई कहने का साहस बड़ी बात है। शमा ने अपने व्यक्तिगत्‌ जीवन के ऐसे पहलूओं को अभिव्यक्त किया है जिन्हें कहने के लिये किसी महिला के पास विशेष हृदय होना चाहिये।
चर्चित ब्लॉगर नीरज गोस्वामी जी ने शमा के लेखों पर एक बार कहा था कि ''आप की पोस्ट पढ़ना एक दर्द से रूबरू होने जैसा है।'' यह बात बिल्कुल सच है। दर्द की क्या कैफीयत होती है और ये किन-किन किस्मों में बंया हो सकता है, शमा इस फन को बखूबी जानती है। उन्होने अपनी जिन्दगी से जुड़े सभी पहलूओं पर बात की है। एक मुस्लिम घर की लड़की का एक हिन्दू परिवेश में आना और जिन्दगी की दूसरी मुसीबतों का सामना करते हुए अन्य दायित्वों का निर्वाह करना। और यहीं नही अपनी ऊर्जा को समेट कर सार्थक प्रयोगों में लगाना। चाहे वह उनका बागवानी, इंटीरियर या पेटिंग का शौक रहा हो जिसे उन्होने अपनी आजीविका में तब्दील भी किया सबके सामने एक मिसाल पेश करता है। पूर्व में शमा अग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रैस और मिड डे के लिये सप्ताहिक कॉलम लिखती रही हैं। इसके अलावा आकाशवाणी व अन्य प्रसार माध्यमों को अपनी सेवाए देती रही हैं। साथ ही साथ कुछ किताबे भी प्रकाशित हुई।
जब ब्लॉगिंग जनसाधारण की पहुंच में आई तब आपने इसे अपनी आपबीती का मंच बनाया। शमा के ब्लॉग पर अक्सर दो भ्रम पाठकों को हो जाते है। पहला ये की वह कोई कहानी लिख रही है जबकि वह उनकी अपनी आत्मकथा होती है लोग टिप्पणी करते है कि किरदार ऐसे है, वैसे है उनमें ये बदलाव कर देना चाहिये लेकिन वे बाद में समझ पाते है कि हो क्या रहा है। दूसरा बेहद ही असरदार वहम शमा की फोटो को देखकर हो जाता है। क्योंकि उनकी पोस्ट को पढ़ने के बाद सभी उनसे उनके नये फोटो की मांग करने लगते है। वह उनकी कहानी में उस नायिका को देख लेना चाहते है जिसके साथ इतना कुछ घट रहा है। जिन भी लोगों को शमा से बात करने या मिलने की खुशनसीबी हासिल हुई है वह सब जानते है कि वह एक बेहद ही आर्कषक व्यक्तित्व की मालिक है। एक खनकती हुई आवाज अपने मरमरी अल्फाजो में जब आपके कानों में पड़े तब आप समझ लेना कि शमा बोल रही हैं। अक्सर इस प्रकार के प्राणी बालीवुड नामक संस्था में पाये जाते है। मनविन्दर बिंभर एक ऐसी महिला पत्रकार है जो बहुत कम ब्लॉगों को मुंह लगाती है लेकिन वह भी शमा की नई पोस्टों पर जाना नही भूलती है।
अक्सर उनकी एक पोस्ट को पढ़ लेने के बाद आप उनके सारे ब्लॉग को पढ़े बिना नही रह सकते है। द लाइट बाई ए लोनली पाथ पर टिप्पणी करते हुए अखिल तिवारी जी ने कहा कि अभी १ महीने से ही पढ़ना शुरू किया है, पर विश्वास मानिए, आपके ब्लॉग के सभी लेख, पुराने से पुराने लेख पूरी तन्लीनता के साथ पढ़े. ।यह सिर्फ अखिल जी की बात ही नही है बहुत सारे पाठकों का यही हाल होता है। आपका ब्लॉग आज पहली बार ही देखा, एक पोस्ट पढ़ने के बाद इतना बढ़िया लगा कि पिछली दस-बारह पोस्ट भी पढ़ ली, सागर नाहर जबकि मशहूर ब्लॉगर राज भाटिय़ा जी कहना है कि - ऎसा लगता है आप का लेख पढ कर जेसे कोई दोस्त बिलकुल हमारे पास बेठा है, शमा बेहद सवेंदनशील किस्म की ब्लॉगर है जो छल कपट और राजनीतिक धूर्तता वाली ब्लॉगिंग से परे है लेकिन अभी हाल ही में हुए मुम्बई पर आतकंवादी हमले ने उनके पारम्परिक लेखन को प्रभावित किया है। हर किसी ब्लॉगर के लिखने का एक विशेष अंदाज होता है यह फन शमा के ब्लॉग में आपको कुछ अलग ढंग से मिलेगा वह कविता और ठोस लेखन को साथ में जोड़कर लिखती है और लिखने की सच्चाई उनकी आत्मियता से पता चलती है। आपने अभी हाल ही में फिल्म मेकिंग का कोर्स पूरा किया है और कुछ शार्ट फिल्में बनाने की तैयारी में है, जो इस बात को भी दर्शाता है कि कल्पना के पंख अगर आपके पास है तो आसमान बहुत बड़ा है। अगर आप इस बात को नही मानते तो शमा को जानिये।




समीर लाल (उड़नतशतरी) ब्लॉग जगत के डेविड धवन है

पिछले कुछ महिनों से सिर्फ एक ही काम रह गया है कि हिन्दी ब्लॉग में कौन-कौन, कैसा-कैसा लिख रहे है। लगभग सभी हिन्दी ब्लॉगों को पढ़ा वहां टिपप्णीयां देखी बहुत सारी बातें सोची। नये-नये तरह के लोग नई-नई चीजें सामने लेकर आ रहे है। फुरसतीया से कौन वाकिफ न होगा, जीतू भाई, बैंगाणी बन्धू, नीलीमा जी, रविश, काकेश, शास्त्री जी, नीलेश, शमा और न जाने कितने नाम है जिन्हें गिनाउ लेकिन इन सब ब्लॉग लेखको में से जिस विचित्र ब्लॉग लेखक को मैने खोजा वह है अपने समीर लाल जी। यह ब्लॉग जगत की एक उपलब्धि है। आपके साहस को प्रणाम करना चाहिये। ऐवरेस्ट पर सौ बार चढ़ने-उतरने की कला से आप भली-भातीं परिचित है। भले ही वह काम यहां टिप्पणीयां देने का हो।
बात करते है डेविड धवन की। वह फिल्म उद्योग में वह एक जाना पहचाना नाम है, और वह निरर्थक फिल्में बनाने के माहिर है लेकिन उनकी उपस्थिति को नकारा नही जा सकता है। बहुत पहले किसी पत्रिका के लिये एक लेख लिखा था। ''फूहड़ हास्य का नया नाम डेविड धवन '' डेविड की फिल्में याद रखने के लायक नही होती है। वह बिना किसी कहानी के, बिना किसी तर्क के फिल्में को बेढगें तरिके से आगे बढ़ाते रहते है और लोग हसतें रहतें है। इसलिये फिल्म समीक्षक डेविड धवन की फिल्मों की समीक्षा लिखना भी व्यर्थ समझतें है। लेकिन एक बात बिल्कुल स्पष्ट है जब बड़े-बड़े धुरन्धरों की फिल्में नहीं चलती तब डेविड की कोई भी बेकार सी फिल्म भी अच्छा मुनाफा कमाकर ले जाती है। सब जानते है उनकी फिल्मों का कोई मतलब नही होता लेकिन फिर भी मनोंरजंन के लिये वह बेहतर विकल्प होती है।
अब समीर लाल जी की बात करते है। बहुत सारे ब्लॉग देखें हर किसी के लेख पर सिर्फ उसके हिसाब से टिप्पणीयां चिपकी हुई मिली लेकिन समीर भाई के यहा ये थोक के भाव में नजर आती है। वह किसी भी बेकार से लेख पर १०० से अधिक टिप्पणी पा जाते हैं। हालाकि हम सब जानते है कि लेखन की गुणवत्ता का टिप्पणी मिलने से कोई सरोकार नही होता लेकिन समीर भाई को कौन समझाये ये बात।
आने वाले वर्षो में जब ब्लॉगिंग का इतिहास लिखा जायेगा तब औरों के ब्लॉगों के बारे में बताया जायेगा लेकिन समीर जी के ब्लॉग से यहां कोई मतलब नही होगा बल्कि उनके जीवन चरित्र को इतिहास में दर्शाया जायेगा। मैं कहता हूं जब ब्लॉगगिंग का म्यूजियम बनेगा तब वहां समीर जी के कपड़े, जूते-चप्पलें, तेल-कंघा, साबून सब लोगो को दिखाया जायेगा। क्योकी इन सब के बिना ब्लॉगिंग का म्यूजियम अधूरा रह जायेगा यह अलग बात है कि वहा और लोगो के ब्लॉग के बारे में बातें हो। पर समीर जी का काम जूते-चप्पलें, तेल-कंघा, साबून से ही चलेगा कि वह क्या-क्या इस्तेमाल करते थे। मैने देखा बहुत सारे लोग उन्हे अपने ब्लॉग पर टिप्पणी करने से पहले चेतावनी देते है कि कृपया पहले पढ़ ले। लेकिन अपने समीर भाई तो बेगानी शादी में अब्दुल्ला दिवाने हुए जाते है। उन्हें इससे मतलब नही आप क्या लिखते है, वह टिप्पणी तो कर ही रहे हैं। तो भाई ब्लॉगिंग के विकास में अपने विलायती फुफा का योगदान अविस्मरणीय है।
सिर्फ समीर जी की फोटो दिखाकर ही लोगो को ब्लॉग लेखन के लिये प्रोत्साहित किया जा सकता है। उनकी टिप्पणीयां भी कमाल होती है वह आपको साधुवाद देते नजर आते है या बधाई। लेकिन लेख से टिप्पणी का सरोकार हो यह जरूरी नही। जब ब्लॉगिंग का मुझे क ख ग भी नही पता था मै तब से समीर भाई से परिचित हूं। हमारे शहर में फल बेचने वाला, खोमचा लगाने वाला, सफाई करने वाले सभी समीर जी से परिचित है। इंटरनेट के एक ठिकाने पर प्रथम बार मैने समीर जी को पाया था वह एक कवि को पटा रहे थे। अगर टिप्पणीयों का कोई महाकाव्य लिख सकता है तो आप सब जानते है वह कौन है। बहुत मनमौजी स्वभाव वाले व्यक्ति है (फोटो से तो यही लगता है) लेकिन बड़ा परिश्रम करते है हालांकि की उनपर इल्जाम लगता रहा है कि वह यह काम पैसे देकर अन्य लोगों से करा लेते है। पता नही क्या सच है यह बात ब्लॉग लेखन के विशेषज्ञ ही बेहतर बता सकते है। खैर समीर भाई की उपस्थिती को अनदेखा नही किया जा सकता है भले ही वह कितना और बेकार क्यों न लिख ले। वह अपने किसी लेख में अगर पूर्णविराम चिन्ह ही लगा दे तब भी उन्हें सौ पचास टिप्पणीयां मिल ही जायेगी। क्योकी उन्होने ब्लॉगिंग में जितना दोगे उतना पाओगे सिद्धांत को स्थापित जो किया है। अगर किसी नये ब्लॉगर को अपने लेखो पर टिप्पणीयां नही मिल रही है तो वह निराश न हो समीर भाई आते ही होगें।
मेरा अपना मानना है कि अभी तक हमने समीर भाई को सही से जाना ही नही है उनकी सामर्थ्य और शक्ति अभी देखी ही कहां है अगर सारे ब्लॉगर एकजूट होकर समीर भाई के खिलाफ टिप्पणी न करने का आन्दोलन छेड़ दे, तब आप सबको एक नये समीर लाल को देखने का मौका मिलेगा। वह किसी न किसी तरह आपसे टिप्पणी निकलवा ही लेगे। वह बखूबी जानते है कहां से क्या माल मिल सकता है।
समीर जी के बारें में बहुत सारे ब्लॉगर्स बात करते हैं। जिनमें से कुछ यहां दी जा रही हैं।
लेख से ही कट-पेस्ट करके समीरलालजी की तरह बहुत सही है लिखकर तारीफ़ करना जरा मुश्किल होता है। फ़ुरसतिया

यह सोचकर वे हलकान भी हो गये कल को ये भी वैसी ही हरकतें न करने लगे जैसे समीरलाल के साथ उनका चेला इस्माइली लगाते हुये करता है और वे बेचारे कुछ कह भी नहीं पाते।) फ़ुरसतिया

शिवकुमार मिश्र समीरलाल को टिप्पणी सम्राट कह रहे हैं,

समीर जी हर विवाद के समय झट कही जाकर छुप जाते हैं और उसके शांत होने के बाद शांति-शांति टाईप लहजे में दोनों ओर के भले बनते फिरते हैं- नीलीमा

एक और पोस्ट सिर्फ एक लाईन टेस्टिग.टेस्टिग नाम की पोस्ट लिखी। और इस एक लाईन की पोस्ट पर समीर जी की टिप्पणी थी। श्रीषीष
सभी प्रश्न पढ़ने जरुरी है। बिना पढे ;समीर भाई ध्यान दे जवाब देने पर अपने स्कोर के लिए आप स्वयं ही उत्तरदायी होगे। अनुप शुक्ला
तुम मेरे ब्लॉग पर टिप्पणी करते होए बदले में मैं तुम्हारे ब्लॉग पर टिप्पणी करता हुँ इस टाइप का भांडपना और चारणपंथी बंद होनी चाहिए। शास्त्री जे.
तो थी महान लोगों की महान राय , महान समीर जी के बारे में लेकिन समीर भाई को भी सोचना चाहिये एक ब्लॉगर दोस्त कहते है कि महीने में कुछ सौ टिप्पणियों से किसी ब्लॉग का कोई भला नहीं होना है, ये बात कुछ मूढ़मगज लोगों को समझ में नहीं आती। आप मतलब का लिखिए या मतलब का माल परोसिए। बाकी ईश्वर यानी पाठकों पर छोड़ दीजिए। ब्लॉग टिप्पणियों में साधुवाद युग का अंत हो। आगे एक सज्जन यूं कहते है कि रातों-रात जान-पहचान लिये जाने के हड़बड़ाहट में टिप्पणी प्रसाद बांटने से अधिक जरूरी है, रचनात्मक और क्रियात्मक सहयोग।
यह समीर जी के प्रेम में लिखा गया लेख है न की किसी आलोचना या ईष्यावष आशा है समीर जी बुरा न मानेगें।

अपनी वर्जीनिटी खो देना एक मामूली बात है

कल रात नेशनल ज्योग्राफिक चैनल पर एक कार्यक्रम देख रहा था द लार्ज प्लेन क्रेश इसमें दिखा रहे थे कि ऐवीऐशन कैरियर कितना जोखिमों भरा है किसी पायलट के उपर प्लेन उड़ाते हुए कितनी बड़ी जिम्मेदारी होती है। एक जरा सी चूक बड़े हादसे का कारण बन सकती है। यहां केवल उन्ही लोगो को रखा जाता है जो इसके लिये डिसर्व करते है, और इतनी बड़ी जिम्मेदारी उठाने का साहस, समझदारी, योग्यता जिनमें होती है। इस इण्डस्ट्री के लिये योग्य पात्रों का चयन बेहद ही फिल्टर प्रक्रियाओं के बाद ही हो पाता है। एक-एक अभ्यर्थी हिरे के सामान होता है। चुनाव बेहद ही योग्य लोगो का हो पाता हैं। कुल मिलाकर यह एक शानदार प्रक्रिया है जो जरूरी भी है।
अब बात करते है निजी स्वार्थ की खातिर किस तरह से इस बेहद जिम्मदारी वाले काम को ग्लैमर से जोड़कर वास्तविकताओं से मुहं मोड़ लिया गया है, और धोखाधड़ी करने के नये तरिको को अपनाया गया है। मेरठ कोई खास बड़ा शहर नही है और न ही अभी मैट्रो सिटी होने की रह पर चला है। लेकिन अय्याशीयों और जिस्मफरोशीयों के नये-नये तरिको को परोसने वाली दुकाने ऐवीऐशन इण्डस्ट्री की आड़ में कैरीयर बनाने के नाम पर अपनी दुकाने चला रही है।
यहां ऐवीऐशन फिल्ड में कैरीयर बनाने के नाम पर बहुत सारे छोटे बड़े इस्टटीयूट खुल गये है जो लड़के-लड़कियों का दाखिला मोटी फीस वसूल करके कर रहे हैं। यहां ये लोग छात्रों को नये नये सपने दिखाते है और पूरे साल के पाठय्‌क्रम में उन्हें केवल सजना सवंरना ही सिखाते है कि आप अपने व्यक्तित्व को आर्कषक बनाओ, बेहद चमकिला बनाओं अगर कोई आपको देखे तो बस देखता ही रह जाये। इन सस्थानों में छात्रों को फ्लाइंग स्टूअर्ट, होस्ट मैनजमेन्ट, पब्लिक रिलेशन जैसी पोस्ट के लिये तैयार करते है। जिसका पूरा पाठय्‌क्रम केवल भाषा, व्यक्तित्व, आवरण, तौर-तरीके पर ही सिमट कर रह जाता है। अब चूंकी बच्चे एक-एक लाख, अस्सी हजार, सत्तर हजार रूपया खर्च करके ये कोर्स करते है (ये फिस किसी नामी संस्थान की हो सकती है लेकिन कोई छोटा-मोटा लोकल संस्थान केवल तीस, चालीस हजार रूपये में भी ये कोर्स करा रहा है) इन संस्थानों का वातावरण बेहद गलैमर्स से भरा होता है यहां बच्चों को फैशन, बनाव सिंगार, तौर-तरीके तो संस्थान सिखाता है
लेकिन बच्चे इस खुले वातावरण में इनसे भी आगे की चार बातें सीखकर अपने जीवन में अपना रहे है। सब नई उमर के लड़के-लड़कियां है जो आपस में एक दूसरे को हर तरह से जान लेते है और सारी वर्जनाए और सीमाए तोड़ देते है। इस तरह के कल्चर को यह संस्थान प्रमोट भी करते है और स्पेस व सुविधाए भी मुहैय्या कराते है। यहां बच्चों का आपसे में एक दूसरे के प्रति शारिरिक सम्बध बना लेना एक आम सी बात है क्योकी इस तरह के बेहद उत्तेजक माहौल में यह एक सामान्य बात है कि बच्चे इस तरह से कर गुजरते हैं। अब इसके बाद आता है अगला पड़ाव। मां-बाप ने बच्चों को महंगी फीस भरकर प्रवेश तो दिला दिया है। लेकिन वहां बाद में क्या हो रहा है यह उन्हें नही पता होता है। लड़कियां जब इस तरह के बनाव सिंगार को सीखती और अपनाती है तो इस काम के लिये भी पैसा चाहिये होता है। जो अब घर से मिलना होता नही है और ना ही वह बता पाती है कि उन्हें किस काम के लिये पैसा चाहिये। लेकिन वह यहां रहकर पैसा कमाने के दूसरे सोत्रों को भलीं-भाती पहचानने लगती है। और इस तरह वह जाने अनजाने अपने आप को दूसरो के सामने पेश करने को भी मामूली बात मान लेती है और यह सब हौसला उनको मिलता है इन्ही संस्थानों से क्योकी यहां की हवा और गुटटी में इन्हें घोल-घोल पिलाया जाता है कि आगे बढ़ने के लिये कुछ भी कर गुजरों आपको एक बड़ा मॉडल, बड़ा व्यक्ति बनना है। इन सबके लिये अपने आपको बेचना मामूली कीमत है।
यह सभी संस्थान हमारी नई पीढ़ी को जिस्मफरोशी के नये नये तरीको से अपने आप को बेचने की कला सिखा रहे है। नई उमर की लड़किया आर्कषण मे फंसकर अपने आपको मामूली चीजो के लिये स्वाहा कर देती है। आज के लड़के-लड़कियों के लिये अपनी वर्जीनिटी को खो देना एक मामूली बात हैं। यह हमें सोचना होगा की तरक्की और विकास को हम क्या कीमत चुकाकर ला रहे है।

अब तुम मुझे पसन्द नहीं

अब तुम मुझे पसन्द नहीं
बुढ़ी हो गई है मेरी सोच
जा चुका है बसन्तउत्सव
जो कभी आया ही नही

रोज के लिये भी नही बचा कुछ
सूख गई मिटटी सभी गमलों की
किसी बीज की प्रतिक्षा में
अब तुम मुझे पसन्द नहीं
बुढ़ी हो गई है मेरी सोच

दिल धड़कता नही मेरा अब
तुम्हे देखकर अचानक अपने सामने
बल्कि दिखाई देते है, तुम्हारे चेहरे के निशान
जो पहले नही थे कभी
मेरा मन भी नही होता
तुमसे बात करने का
अपनी ही खोज में डूबकर मर गया है
शब्दों का वाचाल समन्दर
जिसने तुम्हारे लिये
महाकाव्य लिखने का वादा किया था
मैने जो बुने थे
सपनों के इन्द्रधनुष
उनके रंग अब फिके पड़ गये है

अब तुम्हे भी लौट जाना चाहिए
मेरी प्रतिक्षा किए बिना
बुढ़ी हो गई है मेरी सोच
और जा चुका है बसन्तउत्सव
इरशाद
(मेरे ही एक पूराने नाटक ''वापसी'' में काव्य संवाद, जब नायक मनोहर नायिका गीता को जाने के लिये कहता है)

आप कैसे दिखते है?

हम सदैव किसी न किसी प्रस्तुतिकरण के दौर में रहते है। हर समय हमें बहुत से लोग देख रहे होते है। जब वह हमें देखते है तो हमारे बारे में सोचते है। हमारी छवि का आकलन करने लगते है। यह सब वह होते है जो रोज ही हमसे मिलते है। लेकिन जब हम अन्जान लोगो से मिलते है तब तो वह सबसे पहले अपनी धारणा सिर्फ हमें देखकर बनाते है की सामने वाला व्यक्ति किस प्रकार का है। बातचीत करना अगला कदम होता है और कई बार तो ऐसा होता है कि आप सिर्फ एक ही व्यक्ति से मिलते है या बात करते है अपना असर उसपर छोड़ते है लेकिन बाकी लोग जिन्होने आपसे बात नही की वह भी आपका आकलन करते है कि आप किस तरह के व्यक्ति है। जैसे किसी कम्पनी में आप वहां के मालिक से मिलने जाते है या फिर किसी शादी, समारोह मे जाते है सब से मिल पाना या बात कर पाना मुमकिन नही हो पाता लेकिन वह आपको देख रहे होते है आपके व्यक्तित्व का अंदाजा लगाते है। तो यह भी एक प्रस्तुतिकरण का दौर है जहां आप किसी बात को समझाकर या बताकर अभिव्यक्त नही करते बल्कि आपकी ड्रैस सेन्स, बॉडी लेग्वेज आपको दूसरो के सम्मुख प्रस्तुत कर रही होती है। आप कैसे दिखते है इस बात को समझने के लिये हमें कुछ बातों का खास ध्यान रखना होता है
शरीर की सफाई और स्वच्छता
कपड़े किस तरह के हो
जूते और चप्पलों के प्रकार
आभूषण, घड़ी, कड़ा, कलावा आदि
सबसे पहले बात करते है शरीर की सफाई और स्वच्छता के बारे में हमारे दिखने के सारे प्रकरण में यह सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है आप अपने शरीर की सफाई करते है। आपके हाथ पैर साफ तरह से हो उन पर मैल न चढ़ा हो। हमारे घूटने, कोहनीयां, कमर, गरदन, जाघें आदि सब बिल्कुल साफ तरह हमने धोया है या फिर बस ऐसे औपचारिकतावश हम नहा लेते है तो इसका ध्यान रखें। दूसरी बात जो अक्सर बहुत से लोग ध्यान नही रखते है उनके कान बहुत गन्दे होते होते है। एक बार दिल्ली से घर लौटते हुए मैं बस से सफर कर रहा था। तभी मेरे बराबर में एक बेहद सुन्दर लड़की आकर बैठ गई मैने सोचा चलो रास्ते भर इनसे बातें करते हुए कट जाएगा। थोड़ी देर बाद मैने उस लड़की की तरफ गर्दन मोड़ी तो मुझे उसका कान दिखाई दिया जो बेहद गन्दा और मैल से भरा हुआ दिखाई दे रहा था। मैने फिर दोबारा उसकी तरफ नही देखा। ऐसे ही बहुत सारे लोगो के कान गन्दे होते है। वह उसकी सफाई नही करते है। इसके बाद आता है हमारे नाक की सफाई। नाक हमारे चेहरे का सबसे सुन्दर हिस्सा होती है। नाक की बदौलत ही हम सुन्दर दिखाई देते है। अक्सर पुरूष लोग अपने नाक के बाल ठीक तरह से नही काटते है और वह नाक से बाहर आते हुए दिखाई देते है जो बेहद गन्दे दिखाई देते है हमारे पास एक छोटी कैची होनी चाहिए इसके साथ ही हमारी नाक अन्दर से बिल्कुल साफ होनी चाहिए। महिलाओं और लड़कियो को इस बात का खास ध्यान रखना चाहिए कि उनकी नाक साफ है की नही। मेरे आफिस में जो रिसेप्सनिस्ट है वह नाक मे बाली पहनती है उसकी नाक भी गन्दी रहती है और.....। कुछ लोगो को एक गन्दी आदत होती है की वह कही भी अपनी उंगली नाक में चला देते है उन्हे यह गन्दा काम करते हुए शर्म नही आती है यह बात आपको बेहद फूहड़ और पिछड़ा हुआ शो करती है। मैने अक्सर कई बड़े स्टारो को बेहद करीब से देखा और बातचीत की तो पाया ये लोग अपनी चेहरे, कान, नाक आंख की बहुत सफाई रखते है। इसके बाद बात करते है हमारे दांत कैसे दिखते है वह पीले है या क्रिम कलर के है या फिर सफेद मोतीयो से चमकते हुए है इसके साथ ही बहुत जरूरी बात कि आप के मुंह से बदबू तो नही आती है अक्सर बहुत सारे लोगो के मुंह से सड़ी हुई बदबू आती है जो हमारे वजूद को खतरे मे डाल देती है इससे हम लोगो के प्रिय नही बन सकते किसी से किस करना तो बेहद दूर की बात है हा हा हा।
अगर आप इतना ध्यान कर लेगे तो भी हम एक दूसरे के करीब आसानी से आ सकते है आगे आपसे इसी तरह की अन्य पहलूओ पर बात करेगें यह सब बाते और व्याख्यान है जो अलग-अलग समय पर मैने अपनी क्लासों मे दिये है। इसकी एक लम्बी कड़ी है आप लोगो का साथ रहा तो आगे और भी बातें करेगे देखते है आपकी क्या टिप्पणी रही।
इरशाद

संसार तुम्हारी प्रतिक्षा मे है

अपनी अभिव्यक्तियों को अभिव्यक्त किजिए बिना किसी डर, सकोंच और हिचकिचाहट के, ये संसार तुम्हारी प्रतिक्षा मे है। और तुम सिद्ध करो अपना औचित्य कि तुम श्रेष्ठ हो। हमारे मन के किसी कोने में जब किसी कला ने जन्म लिया था और हमने कल्पनाओं के पंखों से उड़कर उसे अपने सुन्दर सपने का नाम दिया था तो वह वक्त अब आ खड़ा हुआ जब हम अपने सपनों को साकार करें।
मैं जब उन लोगों से मिलता हूं जिन्होने अपनी कामयाबी को इज्जत, शौहरत और दौलत में बदला है तो पाता हूं कि कामयाब होने की उनकी अपनी दिली ख्वाहिश थी और इसके साथ ही ऐसा कोई विचार जिसकी बदौलत उन्हे वह सब हासिल हुआ। उन्होने बस शुरुआत की कुछ भी न होते हुए लेकिन अपने रास्तों को खुद बनाया। अपनी मेहनत, हिम्मत और सोच के चलते खूद को दूसरो से अलग साबित किया। और आज सब उनकी बातें करते है।
इरशाद

ये कौन जावेद अख्तर है?

अपने काम के ताल्लुक से अक्सर अदबी और साहित्यिक सम्मेलनों में शिरकत करने का मौका मिलता रहा है। मुशायरों और कवि सम्मेलनो में शिरकत के बहाने देश के लगभग सभी मशहूर शाइरो और कवियों को करीब से जानने और समझने का मौका मिला है। भारत में अनेक राष्ट्रीय स्तर के साहित्यिक कार्यक्रम होते रहते है यह क्रम देशभर में वर्ष भर चलता रहता है। अनेक प्रसिद्ध कार्यक्रम जो उल्लेखनीय है उनमे जश्ने-ए-बहार मुशायरा, शंकर शाद मुशायरा, साहित्य अकादेमी का मुशायरा, लालकिले का मुशायरा तथा और भी कई मुशायरे होते है जिनमे किसी शाइर का पढ़ लेना वाकई बड़े सम्मान का विषय होता है। चूकीं आज मुझे सिर्फ जावेद अख्तर साहब के ताल्लुक से ही अपनी बात कहनी है। यहाँ में सिर्फ उनसे अपनी मुलाकात जो पिछले दिनों शंकर शाद मुशायरें के दौरान हुई थी का जिक्र करूंगा लेकिन पहले हम जाने जावेद भाई की जिन्दगी के कुछ सुनहरे पन्ने।
जावेद किसी जमाने में एक जिन्दादिल इंसान हुआ करते थे। आपकी पैदाइश ग्वालियर में हुई लेकिन आपने अपने आपको जावेद लखनऊ, अलीगढ। और भोपाल में रहते हुए बनाया। इस जमाने को आप ब्लैक एण्ड वाइट भी कह सकते है जब जावेद अपना निर्माण कर रहे थे। यह उनकी पढ़ाई और तरबियत का दौर था। आपके अब्बा जनाब जाँ निसार अख्तर साहब उस जमाने के मशहूर शाइर थे। आप उनके बड़े बेटे है और छोटे है सलमान अख्तर जो आजकल अमेरिका में है बहैसियत एक डाक्टर के। जावेद साहब को उर्दू और शायराना मिजाज अपने अब्बा से विरासत में मिला जिसे आगे चलकर उन्होने अपने फकीरी स्वभाव के चलते दिनो-दिन उरूस पर पहुँचाया। आज जावेद अख्तर चाहे जितने कामयाब हो लेकिन सच्ची बात यही है कि वो उनका गोल्डन टाइम था। जब जावेद कुछ भी नही थे लेकिन सब कुछ थे। आप उन्हे ही जावेद अख्तर जानिये आज जो शक्स है न जाने कहाँ से आया है शायद बम्बई की पैदाइश और बाजारीकरण की देन हैं। एक बात जो १०० फिसदी सच है कि कोई भी कलाकार सिर्फ एक कलाकार नही होता वह अवाम की अमानत भी होता है उसका फन विरासतो और संस्कृतियों का निर्माण करता है। इसलिये वो लोग अमर होते है यह ईश्वर की देने होते है जो समाज को गति प्रदान कर उन्हे राह दिखाने का भी काम करते है लेकिन जब किसी मान, सम्मान, लालच, शौहरत, पैसे के बदले इसका सौदा होता है तब कला मर जाती है और दिखावा रह जाता है। लेकिन सच्चा फनकार कभी अपनी जमीन और जड़े नही छोड़ता है।
शौहरत, इज्जत, दौलत उसकी राह के रोड़े होते है, सच्चा फनकार मिजाज का फकीर होता है और फकीर ही रहता है। जावेद भाई की जिन्दगी का एक बड़ा हिस्सा इसी फकीरी में गुजरा है आप शेर तो बहुत पहले से ही कहते है इसके अलावा किस्सागोई भी करते थे। हर चीज को देखने समझने का एक अलग ही नजरिया और फाकामस्ती का आलम रोटी मिली तो खा ली नही तो ऐसे ही सो रहे है कभी किसी हॉस्टल मे या यार दोस्त के कुचे में। अदब से गहरा नाता है लेकिन कामयाबी है कि नसीब ना होती है शहर बदलते है कुछ हाथ नही आता है धक्के खाते है कुछ हाथ नही आता है लेकिन एक चीज है जो निखर रही है लगातार मंझती जा रही है वो है आपकी शाइरी और कलमकारी, उर्दू से मौहब्बत और बिगड़ी हुई सोहबत, सब आपकी अपनी चीजे है। लेकिन यह कामयाबी का सितारा है कि बादलो से निकल ही नही रहा है फिर धीरे से बहुत ही मद्धम से किसी की नजर आप पर पड़े तो रोटी पानी का जुगाड़ हो। यहाँ सिर्फ एक ही चीज आपकी मददगार है उर्दू की आपकी काबलियत और जो धक्के आपने खाऐ है। फिर छुटपूट कुछ काम बन जाता है हनी से आपकी मौहब्बत हो जाती है। जावेद भाई ने यूँ तो न जाने कितनी मौहब्बते बेनामी के रास्तो पर छोड़ दी होगी जिनका आज कोई नाम भी नही है। लेकिन हनी ईरानी अपनी जड़े लगभग जमा चुकी थी और हिन्दी सिनेमा से आपका हिसाब-किताब चल पड़ा था। जावेद साहब का यह एक ईमानदार दौर था।
फिर सलीम साहब से आपकी टूयुनिंग हुई। आपको पता है कि सलीम साहब के लेखन में नाटकियता का पुट होता था जो उस दौर के सिनेमा के लिये बेहद जरूरी होता था लेकिन जावेद मियां का साथ उसे असरदार और रोचक बना देता था जिससे आप दोनो का काम बेहद प्रभावशाली व वास्तविक बन पड़ता था। सलीम और जावेद एक दूसरे के पूरक थे। भारतीय फिल्मों को एक नई डगर और संस्कार देने में आप दोनो ने अपना नया रास्ता खोजा था। बाद में जावेद अलग हो गये थे और आज तक अलग ही है और अकेले भी कामयाब रहे लेकिन सलीम साहब ने काम को अलविदा कह दिया फिर भी यदा कदा आप का काम देखने में आ जाता है। अभी पिछले सालो मे आई फिल्म बांगबा में सलीम जावेद एक बार फिर साथ थे। इसमे सलमान खान के लिये एक सीन में डायलॉग सलीम साहब ने लिखे थे जबकि अमिताभ बच्चन के लिये जावेद मियां ने लिखे है। यहां इस सीन मे दोनो को एक दूसरे के लिये बोलना होता है फिल्म में जब अमिताभ बच्चन को बुकर अवार्ड मिलता है। रवि चौपड़ा दोनो को फिर से साथ ले आये इसमे चाहे सलीम भाई अपने बेटे सलमान खान की वजह से आये हो। खैर बाद के दिनो मे जावेद अकेले ही काम करते रहे शबाना आजमी की तरफ आपका खिंचाव हुआ जो बाद में हनी ईरानी से आपके अलगाव के साथ खत्म हुआ। लेकिन आपकी मौहब्बत की निशानी फरहान अख्तर और जोया के रूप में हमारे सामने है। इसी तरह के और भी बहुत सारे उतार चढ़ाव जावेद के साथ चलते रहे है और इन उतार चढ़ावों के साथ दिन ब दिन जावेद भी कदम ताल करते रहे है। लेकिन अगर कुछ छूटा है तो जावेद अख्तर से जावेद अख्तर का साथ। अब जावेद अख्तर नही रहें अब कोई और वहां रहता है। शौहरत की खातिर जावेद को अपनी जड़ो से हाथ धोना पड़ा। अब वह किसी उद्योगपति की तरह से जीवनयापन करते है किसी फनकार की मानिन्द जिन्दगी बसर करना अब उनके हाथ न रहा। और उर्दू का इस्तेमाल वह राजनेताओ की तरह भाषणबाजी के लिये करते है। नये जमाने के सभी चोचले अब जावेद साहब की झोली में मिल जाते है। वह कही किसी अन्याय का विरोध करते नजर आते है जिसका कुछ नतीजा नही निकल पाता है या किसी चैनल मे बहस की धार को तेज करते हुए पाये जाते है।
फनकार के लिबास में न जाने कौन शक्स है जो दिन ब दिन नये नये नाटक खेलता फिर रहा है। आजकल एक टीवी शो में जज हुए जाते है और फैसला सूना देते है। शंकर-शाद मुशायरा चल रहा था। देशभर के कामयाब और मशहूर शायरो को कलाम पेश करने की दावत दी गई थी दावत मे जावेद साहब को भी बुलाया गया था। मुशायरा बेहद कामयाब रहा सभी शाइर मंच पर बैठ हुए थे । मशहूर शाइर मलिकजादा मजूंर कार्यक्रम का संचालन कर रहे थे। सभी शाइर मंच पर बैठे हुए थें। लेकिन जावेद अख्तर साहब मंच पर नही बल्कि मंच के सामने खास तरीके से बनाई हुई व्यवस्था में बैठे हुए थे। मानो सारे शाइरो को जज कर रहे हो। वहां एक से बढ़ कर एक शाइर मौजूद थे जिनमे से बहुत तो बेहद बुर्जूग शाइर थे लेकिन जावेद साहब को उनके साथ बैठना गंवारा न हुआ। क्योकी एक सेलीब्रिटी की हैसीयत जो रखते है इसलिये या फिर वह सभी शाइर उन के मुकाबले बेहद छोटे मालूम नजर आते थे उन्हे। इसलिये उन्होने सबको जज करने की सोची हो। तभी एक भले से सज्जन (भारत के मशहूर प्रकाशन संस्थान डायनेमिक पब्लिकेशसं प्रा लि के मालिक सतेन्द्र रस्तोगी जी) जावेद साहब से आटोग्राफ लेने पहुंचे जावेद साहब ने आटोग्राफ देने से मना कर दिया और कह दिया कि वह सिर्फ अपनी ही किताब पर आटोग्राफ देते है जबकि बराबर में बैठी हुई शबाना आजमी सब लोगो को खूब आटोग्राफ दे रही थी। क्या यह जावेद अख्तर साहब का अहंकार नही है क्या शौहरत ने उनको आम बोलचाल से भी मरहूम कर दिया। क्या उनके इस व्यवहार से लगता है की उन्होने आज भी अपनी जड़ो को पकड़ रखा है। इसी बीच मेरी उन से कुछ मुक्तसर बातचीत हुई थी उन्ही कि किताब तरकश को लेकर लेकिन उन्होने उसे सुनकर भी अनसुना कर दिया था। मेरे साथ ही नही बल्कि वह सबके साथ इसी तरह हिकारत से पेश आ रहे थे मानो सब गरीब-गुरबा लोग हो वह सबके अन्नदाता हो। इसके बाद मैने फिल्मलाइन से जूडे अपने दोस्तो से भी बातचीत की थी सबका यही रियेक्शन था कि वह एक मशहूर चेहरा है और बिकाउ नाम है। अगर ऐसा है तो उर्दू और अदब की खिदमत ऐसे ही की जाती है। हम क्यों नकली चेहरा लगाकर झूठी तस्वीर पेश करे। जावेद भाई एक सच्चे फनकार थे जिन्होने जिन्दगी के तमाम सघर्षो को झेला है वह बखूबी समझते है कामयाबी आसान शर्तो पर नही मिलती है। फिर ऐसा कोई भी व्यवहार उनके चाहने वालो का दिल दुखा सकता है।
इरशाद