रागिनी ने जैसे ही दोनों हाथ हवा में उठाए, सारी कायनात उन दो हाथों पर ठहर गई
शुक्रवार की शाम मेरे लिये बेहद खास थी मौक़ा था इंडिया हैबिटेट सेंटर के 'स्टाइन ऑडिटोरियम' में आयोजित 'सा मा पा' की तरफ़ से एक सूफ़ी और भक्ति संगीत की महफ़िल का—जहाँ सुरों की माया में अपनी रूह का सफ़र बयाँ कर रही थीं रागिनी रेनू।
मैंने उन्हें पहली बार सुना और यक़ीन से कह सकता हूँ कि पूरे डेढ़ घंटे की इस महफ़िल में उन्होंने अपनी आवाज़ का ऐसा रूहानी जादू बिखेरा कि हर दिल झूम उठा।
सबसे पहले उन्होंने कबीर के 'सबद' से शुरुआत की। वो जाने-पहचाने दोहे जब उनकी आवाज़ में सुरों की रवानी के साथ गूंजे तो जैसे मन की गहरी गिरहें एक-एक कर खुलती चली गईं।
एक के बाद एक नग़्मा... और हर बार एक नया तिलिस्म। पखावज, तबला, बांसुरी, ढोलक और हारमोनियम—सबके सब अपनी मौजूदगी का इज़हार कर रहे थे। हर धुन इस अंदाज़ में सजाई गई थी कि आप पहचान भी लें और साथ ही उसकी मिठास सीधे रूह तक उतर जाए।
पाँचवें गीत के बाद रागिनी ने मुस्कराकर कहा—“क्या आप छाप तिलक सुनना चाहेंगे?” और फिर जैसे ही उन्होंने अलाप लिया, मेरे रोंगटे खड़े हो गए। हॉल में पसरा सन्नाटा इश्क़ में मदहोश हो चुका था। छाप तिलक सब छीनी रे... मोसे नैना मिलाइ के... उनकी आवाज़ अपने उरूज पर थी और श्रोताओं के दिल हवा में तैर रहे थे। लगता था कि ये गीत कभी ख़त्म न हो, बस बहता ही जाए, बहता ही जाए।
लोग अपने आनंद के चरम पर थे और तभी, अचानक रागनी ने लोगों को झटका दिया और बज उठा —लाल मेरी पत रखियो, बला झूले लालण...।
किसी को उम्मीद भी न थी कि वो अब श्रोताओं को इससे आगे किस मुक़ाम पर ले जाएंगी। लेकिन 'दमादम मस्त कलंदर' ने सचमुच सबको बेख़ुद कर दिया। यह उनके बेहतरीन प्रस्तुतियों में से एक थी।
हॉल में मौजूद हर शख़्स अपनी रूह के साथ उनके सफ़र में शामिल हो चुका था—एक ऐसा सफ़र जहाँ पहुंचना आसान नहीं। रागिनी के दोनों हाथ लहराते और वो सबको अपने साथ उस रूहानी दरवाज़े से गुज़ार रही थीं, जहाँ इंसान का सामना ख़ुद से होता है।
वो लम्हा सिर्फ़ संगीत नहीं था—वो ख़ुदा की मौजूदगी का एहसास था, क़ुदरत को छू लेने का जज़्बा था, और भीतर कहीं गहराई में एक नयी रौशनी जगने का साक्षात्कार था।
और कानों में अब भी गूंज रही थी... रागिनी रेनू की रूहानी आवाज़।
— इरशाद दिल्लीवाला
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