सिंधी स्वीट्स: एक शहर, एक मिठाई, और एक यादों का खज़ाना
मेरठ के बुढ़ाना गेट की शान, 'सिंधी स्वीट्स'—जिसने न केवल मिठाइयों का स्वादिष्ट संसार रचा, बल्कि सैकड़ों लोगों के बचपन की यादों को भी संजोया। असली घी में बनी इन मिठाइयों का वह स्वाद, जो एक बार चखने के बाद जीवन भर के लिए ज़बान पर रह जाता था, अब कहीं और नहीं मिलता। दुकान एक बड़े से कॉर्नर पर स्थित थी, जिसके एक तरफ खत्ता रोड और दूसरी तरफ सुभाष बाजार की ओर जाती चढ़ाई थी।
मेरा बचपन भी इस दुकान से जुड़ी कई सुनहरी यादों से भरा हुआ है। हर दोपहर, मेरे छोटे चाचा कहते, "जा, सिंधी से दही लेकर आ," और मैं भागकर एक रुपए में कुल्हड़ भरकर दही लाता। मंगल के दिन, बाबूजी हमें 'सिंधी स्वीट्स' लेकर जाते थे, जहां सोफे पर बैठकर आइसक्रीम खाने का आनंद कुछ अलग ही होता था। वह डिब्बेवाली आइसक्रीम, जो एक रुपए में मिलती थी, आज भी मेरे जेहन में ताज़ा है।
सिंधी स्वीट्स की मिठाइयों का चूरा भी एक अद्वितीय स्वाद का अनुभव था। चार आने या पचास पैसे में मिलने वाला टूटी हुई मिठाइयों का चूरा, जिसमें कभी रसगुल्ला, कभी बर्फी, तो कभी लड्डू हाथ आता। सुभाष बाजार के सारे लाला जी और मारवाड़ी पत्ते में मिठाई का चूरा खाते थे, और मैंने उन्हें कई बार देखा। मेरी दादी जब बुढ़ान दरवाजे से आती थीं, तो मेरे लिए यह चूरा ले आती थीं। उस समय की खुशबू और स्वाद आज भी मेरे मन को भिगो देते हैं।
शहर में और भी हलवाई थे—सामने गोकुल, थोड़ा आगे कलकत्ता वाला, मुरारी, मोहन—लेकिन 'सिंधी स्वीट्स' वाली बात किसी में नहीं थी। यह दुकान न केवल मिठाइयों की, बल्कि मेरठ के सैकड़ों लोगों के बचपन और यादों की भी थी। टिन के डिब्बों में रेवड़ी, गजक लेकर लोग गिफ्ट देते, और जब भी घर में मिठाई आती, मैं कराची हलवा कभी नहीं खाता था। वह रबर की तरह लंबा खींचता और एक पीस खत्म ही नहीं होता था।
लेकिन बुढ़ाना गेट की शान 'सिंधी स्वीट्स' का अंत बड़ा दर्दनाक था। भाईयों की आपसी लड़ाई ने इस प्रतिष्ठित दुकान को बर्बाद कर दिया। एक बड़ा सरकारी नोटिस और नीलामी की खबरें आईं, जिन्हें मिलकर सारे भाई भी बचा नहीं सके। दुकान के टुकड़े हो गए, मिठाई की दुकान खत्म हो गई, और हमारे जैसे लोगों की यादों में 'सिंधी स्वीट्स' बस रह गई।
'सिंधी स्वीट्स' अब केवल एक दुकान नहीं, बल्कि एक युग का हिस्सा है। उन पुराने दिनों की यादें आज भी मेरे दिल को सुकून देती हैं, जब मिठाई केवल स्वाद का नहीं, बल्कि एक भावनात्मक जुड़ाव का प्रतीक थी। मेरठ के बुढ़ाना गेट की यह दुकान, जो कभी शान हुआ करती थी, अब सिर्फ यादों में जीवित है।