An Unfinished Melody from the Valleys of Kashmir


There are films that dazzle with complexity, and then there are those that move in a straight line, free of narrative entanglements. Songs of Paradise belongs to the latter category—a simple, unhurried piece of cinema directed by Danish Renzu.

What comes as a surprise, however, is that this film is backed by Excel Entertainment—the very studio that once gave us the electrifying Gully Boy. Here, none of that creative energy, none of that signature vibrancy, seems to have filtered through. Renzu’s direction feels adrift, and the casting choices rarely align with the depth demanded by the characters. There are traces of Iranian cinema’s quiet influence, but the film fails to embody its contemplative spirit, nor does it capture the raw scent of Kashmir, nor present anything refreshing enough to charm today’s discerning OTT audience.

The camera, though, often redeems what the narrative cannot. Cinematographer Vincenzo Condorelli paints frames that are both lyrical and restrained, holding the film together with a visual grace it otherwise lacks. Editor Hemanti Sarkar works hard to keep monotony at bay, yet the weakly structured screenplay smothers those efforts. At times, the film feels claustrophobic, as though confined not to the wide valleys of Kashmir but to the walls of a matchbox—its world reduced to just two recurring spaces: a home and a studio. The repetition chokes the air out of the viewing experience.

In the restless ecosystem of OTT, where stories must reinvent themselves every few seconds, Songs of Paradise neither leaves an imprint from its past frames nor compels us to anticipate the next. Its trajectory is too predictable, its storytelling too indulgently paced.

Still, Saba Azad’s sincerity glimmers through the fog. Her performance is layered, worthy of admiration. The final scene, where Noor Begum’s granddaughter is to sing her song, holds the promise of magic. One almost imagines Alia Bhatt walking into the frame—a narrative twist that might have lent the film a spark. Curiously, her real-life mother Soni Razdan plays Noor Begum, and her performance carries shades of Alia in unexpected flashes, a ghostly resemblance that lingers.

As a musical drama, the film carries music in its veins, but the songs, while pleasant, seldom penetrate the soul or etch themselves into memory. This again is a failure of direction—the inability to transform melody into emotional permanence.

Yet there is one undeniable strength: the dialogues. They strike with poignancy, at times stirring courage, at times compelling reflection. Each line arrives like a quiet message, reaching directly for the heart. Here, Niranjan Iyengar and Sunayana Kachroo deserve full credit. Their words lend the film a dignity that the screenplay and direction could not, rescuing it in moments where everything else falters. Some lines echo long after the credits roll, and it is in these resonances that the film’s true beauty lies.

With producers Farhan Akhtar, Ritesh Sidhwani, Zoya Akhtar, and Reema Kagti attached, expectations of cinematic excellence were natural. This team’s reputation precedes them. Yet Songs of Paradise feels like a detour from their tradition—a work that could have been profound, but instead drifts in uncertainty. The complexities of Kashmir, the restrictions imposed in the name of faith, all are presented in a manner too casual, too tepid, to leave impact.

What could have been a memorable cinematic experience instead dissolves into half-light. A weak screenplay and a director unsure of his own vision cloud even the earnest efforts of the cast. What remains is an unfinished melody—haunting in parts, but ultimately incomplete.

— Irshad Dilliwala

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 अजीत राय नहीं रहे...

दिल में जैसे कुछ टूट गया हो। आंखें भीगी हैं, दिल रोने को बेकरार।

वो मेरे सबसे पसंदीदा फ़िल्म समीक्षक थे — फ़न की समझ रखने वाले, अदब के पारखी, और अंतरराष्ट्रीय सिनेमा पर हिंदी पट्टी की सबसे बारीक़ आवाज़।


कुछ रोज़ पहले ही बात हुई थी — इस बार दिल्ली में मुलाक़ात तय थी। अफ़सोस, अब वो सिर्फ़ एक अधूरा वादा बनकर रह गया।



उनकी लिखी हर समीक्षा दिल में उतरती थी, जैसे उन्होंने फिल्म नहीं देखी, उसे महसूस किया हो। उनकी कलम से निकला हर जुमला फिल्म की रूह को छू लेता था।

अब वो नज़रिया, वो महसूस करने वाली आंखें, हमेशा के लिए बंद हो गईं।


अक्षय कुमार ने उनकी आख़िरी किताब का लोकार्पण किया था।

वो दुनिया भर के फिल्म फेस्टिवल्स को अपनी कलम से जोड़ते थे — Cannes हो या Berlin, वो हर जगह मौजूद रहते और हिंदी पाठकों को एक पुल मुहैया कराते।


पत्रकारों की उस भीड़ में वो एक शख़्सियत थे — अलहदा, बेबाक़, और हमेशा सच्चे।


अब वो कलम रुक गई है...

लेकिन उनके अल्फ़ाज़ हमेशा हमारी यादों में ज़िंदा रहेंगे।


— इरशाद दिल्लीवाला

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 अब मर्दानगी चिकने चेहरे नहीं, दाढ़ी में बसती है।

साउथ के नायकों ने जैसे ही परदे पर दाढ़ी में एंट्री मारी, चॉकलेटी हीरोइज़्म की चिता जल गई। चिकने-सपाट चेहरों का दौर बीत चुका है। केजीएफ के रॉकी भाई जब पहली बार स्क्रीन पर दहाड़े, तब से देशभर में दाढ़ी एक स्टेटमेंट बन गई। हर गली-मोहल्ले का नौजवान अब आईने में खुद को माचोमैन समझने लगा है — बस एक परफेक्ट दाढ़ी चाहिए।



बॉलीवुड भी भला पीछे क्यों रहता? यहां के हीरो भी अब मूंछों को ऐंठने और दाढ़ी में गम्भीरता टांगने लगे हैं। रणवीर हो या ऋतिक, सबने अपने फेस पर फजीहत छोड़ स्टबल और बियर्ड को जगह दी। मगर सवाल यही है — ये बदलाव स्टाइल का है या सिर्फ साउथ की कामयाबी को नकल करने की एक और मिसाल?


नया करने का साहस कम है, फॉर्मूलों की लकीर पीटना ज़्यादा आसान। यही बॉलीवुड की सबसे बड़ी विडंबना है। जबकि साउथ का सिनेमा रूट्स से जुड़कर ग्लोबल तक जा रहा है, हमारा मैनस्ट्रीम अभी भी बॉक्स ऑफिस के गणित में उलझा पड़ा है। ओरिजिनैलिटी हाशिए पर है, और लुक्स का ट्रेंड बस ट्रेलर का हिस्सा।

इरशाद दिल्लीवाला

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हमारे पास कल्पनाएं हैं, लेकिन उन्हें बयां करने की आज़ादी नहीं?

मानवीय संवेदनाओं की महीन परतों को जिस बारीकी, ईमानदारी और बेबाकी से फ्रांसीसी सिनेमा ने उकेरा है — शायद ही कोई और कर पाया हो। वहां कहानियों पर कोई पर्दा नहीं डाला जाता, जो सोचा जाता है, और जो भीतर कहीं छुपा बैठा है — वो परदे पर निडरता से उभरता है।



यह खुलापन है या सोचने की आज़ादी — ये तय करना मुश्किल है। लेकिन इतना तय है कि फ्रांस का सिनेमा चौंकाता है, झकझोरता है और हमारी उस कल्पनाशक्ति की सीमाओं को तोड़ देता है — जिसे हम संस्कार, मर्यादा या परंपरा के नाम पर अपने भीतर ही कैद कर बैठे हैं।


2003 में आई The Dreamers की ही बात करें — तो यह एक ऐसी फ़िल्म है जो हमारे सामाजिक ढाँचों, नैतिक पहरों और विचारों की जकड़न को खुलेआम चुनौती देती है। एक तरफ पेरिस की सड़कों पर छात्र आंदोलन सरकार से टकरा रहा है, और दूसरी तरफ तीन युवा — अपने ही एक निजी संसार में, वर्जनाओं से मुक्त, एक फैंटेसी की दुनिया में जी रहे हैं। वे जीते हैं जैसे किसी बंद दरवाज़े के पीछे नहीं, बल्कि खुले आसमान में — जहाँ कोई सामाजिक नियम, नैतिकता या भय उन्हें छू भी नहीं पाता।


वो कोई विद्रोह नहीं करते, वे तो बस खुद को महसूस करते हैं — बगैर किसी परवाह के। जैसे ज़िंदगी को अगर जीने का कोई अंतिम, प्रामाणिक तरीक़ा हो — तो शायद वही हो। जीते जी मोक्ष, अपने ही विचारों की सीमाओं से मुक्त होना — यही तो कला का अंतिम उद्देश्य होता है, और फ्रांसीसी सिनेमा इसे साध लेता है।


भारत में? अभी शायद हज़ार साल लगेंगे वहां तक पहुँचने में।


हमारी कहानियों में संवेदना तो है, लेकिन हिम्मत नहीं। हमारे पास कल्पनाएं हैं, लेकिन उन्हें बयां करने की आज़ादी नहीं। हम जिन विषयों पर आज भी कानाफूसी तक नहीं कर सकते, वहां फ्रांसीसी सिनेमा उन्हें पूरी दुनिया के सामने निर्भीकता से रखता है — बगैर किसी स्पष्टीकरण के।


यह कोई एक फिल्म की बात नहीं — Blue is the Warmest Colour हो, Amour, La Vie d'Adèle, Breathless, या Portrait of a Lady on Fire — हर एक फिल्म अपने आप में एक सवाल है, एक प्रयोग है, और एक प्रतिबिंब है उस आज़ाद सोच का जो शायद किसी पाठ्यक्रम में नहीं सिखाई जा सकती।


भारतीय सिनेमा अभी भी सतह पर तैर रहा है। गहराई में उतरने का साहस अभी कम ही लोगों में है। यहाँ हर सच्चाई को पहले सेंसर, फिर संस्कार, और अंत में डर की चाशनी में डुबोकर पेश किया जाता है।


और यही फर्क है — वहां सिनेमा आत्मा की खोज है, यहाँ अब भी मनोरंजन का साधन मात्र।

इरशाद दिल्लीवाला


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 इरशाद दिल्लीवाला: एक परिचय


इरशाद दिल्लीवाला, जिन्हें इरशाद अली के नाम से भी जाना जाता है, एक प्रसिद्ध फिल्म निर्माता, लेखक, और कला प्रेमी हैं। उनका जन्म मेरठ, उत्तर प्रदेश के एक सांस्कृतिक और रचनात्मक परिवार में हुआ। उनके पिता एक प्रमुख रंगकर्मी हैं, जिन्होंने क्षेत्रीय सिनेमा और नाट्य जगत में बड़ा योगदान दिया है। उनके पिता की कला और रचनात्मकता का इरशाद पर गहरा प्रभाव पड़ा।


इरशाद ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मेरठ में पूरी की। उन्होंने कला में स्नातक की डिग्री प्राप्त की और बाद में पब्लिशिंग के क्षेत्र में कदम रखा। पब्लिशिंग के दौरान, उन्होंने 2,500 से अधिक किताबों के कवर डिज़ाइन किए और तीन प्रसिद्ध पुस्तकें लिखीं:


ब्लॉगिंग पर आधारित एक पुस्तक।

एनीमेशन और विजुअल इफेक्ट्स पर एक मार्गदर्शिका।

फेसबुक के संस्थापक मार्क ज़करबर्ग की जीवनी।


2013 में, इरशाद ने पुणे के फिल्म और टेलीविजन संस्थान (FTII) में फिल्म संपादन का अध्ययन किया। इसके बाद, उन्होंने दिल्ली में अपने करियर की शुरुआत की और 1,500 से अधिक वीडियो संपादित किए।


अब, इरशाद ने फिल्म निर्माण में कदम रखा है और उनकी पहली फीचर फिल्म को बड़े पर्दे पर लाने की तैयारी है। उनकी कहानियाँ सादगी, मौन, और उनके जीवन के अनुभवों को दर्शाती हैं।


प्रमुख कार्य


'ग्रेजुएट फरजाना': यह उनकी एक प्रसिद्ध शॉर्ट फिल्म है, जो एक मुस्लिम लड़की की प्रेरणादायक कहानी को दर्शाती है।

अन्य फिल्मों में 'लास्ट टोस्ट ऑफ लाइफ' और 'आइडेंटिटी' शामिल हैं।

'ग्रेजुएट फरजाना'की सफलता के बाद वह इन दिनों अपनी नई फिल्म सेकेण्ड इनिंग की तैयारियों में है।

प्रेरणाएँ और दृष्टिकोण


इरशाद विश्व सिनेमा, विशेष रूप से ईरानी सिनेमा, से गहराई से प्रभावित हैं। उनकी फिल्मों में सादगी, शांत वातावरण और निम्न-वर्गीय समाज की कहानियों का चित्रण प्रमुखता से किया गया है।


उपलब्धियाँ


उनकी फिल्में कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल्स में प्रदर्शित हो चुकी हैं।


उन्होंने 'ग्रेजुएट फरजाना' जैसी फिल्मों के माध्यम से सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों को उजागर किया। #IrshadDilliwala


 सिंधी स्वीट्स: एक शहर, एक मिठाई, और एक यादों का खज़ाना

मेरठ के बुढ़ाना गेट की शान, 'सिंधी स्वीट्स'—जिसने न केवल मिठाइयों का स्वादिष्ट संसार रचा, बल्कि सैकड़ों लोगों के बचपन की यादों को भी संजोया। असली घी में बनी इन मिठाइयों का वह स्वाद, जो एक बार चखने के बाद जीवन भर के लिए ज़बान पर रह जाता था, अब कहीं और नहीं मिलता। दुकान एक बड़े से कॉर्नर पर स्थित थी, जिसके एक तरफ खत्ता रोड और दूसरी तरफ सुभाष बाजार की ओर जाती चढ़ाई थी।

मेरा बचपन भी इस दुकान से जुड़ी कई सुनहरी यादों से भरा हुआ है। हर दोपहर, मेरे छोटे चाचा कहते, "जा, सिंधी से दही लेकर आ," और मैं भागकर एक रुपए में कुल्हड़ भरकर दही लाता। मंगल के दिन, बाबूजी हमें 'सिंधी स्वीट्स' लेकर जाते थे, जहां सोफे पर बैठकर आइसक्रीम खाने का आनंद कुछ अलग ही होता था। वह डिब्बेवाली आइसक्रीम, जो एक रुपए में मिलती थी, आज भी मेरे जेहन में ताज़ा है।

सिंधी स्वीट्स की मिठाइयों का चूरा भी एक अद्वितीय स्वाद का अनुभव था। चार आने या पचास पैसे में मिलने वाला टूटी हुई मिठाइयों का चूरा, जिसमें कभी रसगुल्ला, कभी बर्फी, तो कभी लड्डू हाथ आता। सुभाष बाजार के सारे लाला जी और मारवाड़ी पत्ते में मिठाई का चूरा खाते थे, और मैंने उन्हें कई बार देखा। मेरी दादी जब बुढ़ान दरवाजे से आती थीं, तो मेरे लिए यह चूरा ले आती थीं। उस समय की खुशबू और स्वाद आज भी मेरे मन को भिगो देते हैं।

शहर में और भी हलवाई थे—सामने गोकुल, थोड़ा आगे कलकत्ता वाला, मुरारी, मोहन—लेकिन 'सिंधी स्वीट्स' वाली बात किसी में नहीं थी। यह दुकान न केवल मिठाइयों की, बल्कि मेरठ के सैकड़ों लोगों के बचपन और यादों की भी थी। टिन के डिब्बों में रेवड़ी, गजक लेकर लोग गिफ्ट देते, और जब भी घर में मिठाई आती, मैं कराची हलवा कभी नहीं खाता था। वह रबर की तरह लंबा खींचता और एक पीस खत्म ही नहीं होता था।

लेकिन बुढ़ाना गेट की शान 'सिंधी स्वीट्स' का अंत बड़ा दर्दनाक था। भाईयों की आपसी लड़ाई ने इस प्रतिष्ठित दुकान को बर्बाद कर दिया। एक बड़ा सरकारी नोटिस और नीलामी की खबरें आईं, जिन्हें मिलकर सारे भाई भी बचा नहीं सके। दुकान के टुकड़े हो गए, मिठाई की दुकान खत्म हो गई, और हमारे जैसे लोगों की यादों में 'सिंधी स्वीट्स' बस रह गई।

'सिंधी स्वीट्स' अब केवल एक दुकान नहीं, बल्कि एक युग का हिस्सा है। उन पुराने दिनों की यादें आज भी मेरे दिल को सुकून देती हैं, जब मिठाई केवल स्वाद का नहीं, बल्कि एक भावनात्मक जुड़ाव का प्रतीक थी। मेरठ के बुढ़ाना गेट की यह दुकान, जो कभी शान हुआ करती थी, अब सिर्फ यादों में जीवित है।


हेलिन बोलेक और इब्राहीम गोक्चेक की याद दुनियाभर में फ़ासिस्टों और तानाशाहों के ख़िलाफ़ संघर्ष में हमें प्रेरित करती रहेगी।

 अलविदा इब्राहीम गोक्चेक! इंक़लाबी लाल सलाम!

हेलिन बोलेक के बाद आज ही के दिन (8 मई 2020) उनके साथी संगीतकार इब्राहीम गोक्चेक भी को हमसे जुदा हो गये थे। वे अपना गिटार खुलकर बजा सकें, इसी आज़ादी की माँग पर 323* दिनों की भूख हड़ताल के बाद इब्राहीम भी अपनी साथी हेलिन के पीछे चले गये थे जिसने 288 दिनों की भूख हड़ताल के बाद 3 अप्रैल 2020 को हमारा साथ छोड़ा था। (*तुर्की में यह परम्परा रही है कि भूख हड़ताल के दौरान कुछ भी ठोस नहीं खाते, पर तरल पदार्थ ले सकते हैं।)
ये दोनों तुर्की के क्रान्तिकारी संगीत बैंड ‘ग्रुप योरम’ के सदस्य थे। एर्दोआन की बर्बर हुक़ूमत ने इस बैंड पर इसलिए प्रतिबन्ध लगा दिया गया था क्योंकि वे उसकी ज़ालिम और दकियानूस सत्ता का विरोध करते थे और समाजवाद और मज़दूर वर्ग के गीत गाते थे। 2016 में बैंड के सभी सदस्यों की गिरफ़्तारी के फ़रमान के बाद पुलिस ने उनके सांस्कृतिक केंद्र पर छापा मारा और उनके वाद्य यंत्रों तक को नष्ट कर दिया था। तुर्की में पहली बार, कलाकारों के सिर पर ईनाम रखे गये और उन्हें “फ़रार आतंकवादियों” की सूची में डाल दिया गया।
एर्दोआन की फ़ासिस्ट हुक़मत के लिए वे आतंकवादी और देशद्रोही थे क्योंकि वे उन खदान मज़दूरों के बारे में गाते थे जो धरती से सात मंज़िल नीचे की गहराई में बेहद ख़राब हालात में काम करते-करते मर जाते थे; क्योंकि वे उन क्रान्तिकारियों के बारे में गाते थे जिन्हें एर्दोआन की फ़ासिस्ट सत्ता ने यातनाएँ दे-देकर मार डाला था; क्योंकि वे उन किसानों के बारे में गाते थे जिनकी ज़मीनें छीन ली गयी थीं, वे तुर्की में उत्पीड़ित कुर्द लोगों के बारे में गाते थे, वे उन ग़रीबों के बारे में गाते थे जिनकी झुग्गी बस्तियों को बुलडोज़रों ने रौंद डाला था, और वे उन बुद्धिजीवियों के बारे में गाते थे जिन्हें चुप कराने के लिए मौत के घाट उतार दिया गया था। वे प्रतिरोध के गीत गाते थे और रेसेप तैयप एर्दोआन के क्रूर शासन के लिए यह आतंकवाद से कम नहीं था।



जन आन्दोलनों के नृशंस दमन के बाद 2016 में एर्दोआन द्वारा आपातकाल की घोषणा होते ही कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और लेखकों-कलाकारों-संगीतकारों पर दमनचक्र तेज़ हो गया था। तुर्की में बेहद लोकप्रिय इब्राहीम और उनके बैंड के सदस्यों ने अचानक एक सुबह पाया कि वे आतंकवादी करार दिये गये हैं और उनके सिरों पर ईनाम रख दिया गया है। उनके घरों और सांस्कृतिक केन्द्र पर दो साल में 9 बार छापे मारे गये। आख़िरकार उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। गिरफ़्तारी के कुछ ही दिनों के बाद पिछले साल इब्राहीम और हेलिन बोलेक ने राजनीतिक बन्दियों के अधिकारों की माँग पर भूख हड़ताल शुरू कर दी और फिर इसे आमरण भूख हड़ताल में बदल दिया। उनकी माँगें थीं कि उनके बैंड पर से प्रतिबन्ध हटाया जाये, तुर्की में कहीं भी अपने संगीत की प्रस्तुति देने की उन्हें आज़ादी मिले, उनके तमाम गिरफ़्तार साथियों को रिहा किया जाये और उन पर से मुक़द्दमे हटाये जायें।
उन्हें पिछले नवम्बर में जेल से रिहा किया गया था लेकिन अपनी माँगों को लेकर उनका विरोध जारी रहा। ग्रुप योरम बैंड के दो सदस्य अब भी जेल में हैं। इनमें से एक गोक्चेक की पत्नी हैं।
तुर्की के सैकड़ों लेखकों-कलाकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की आवाजों को अनसुना करते हुए फ़ासिस्ट हुक़ूमत अपनी इस ज़िद पर अड़ी रही कि पहले उन्हें भूख हड़ताल ख़त्म करनी होगी, उसके बाद ही कोई बात की जायेगी। लेकिन ये दोनों इंक़लाबी कलाकार भी अपने संकल्प के पक्के थे। अट्ठाइस साल की ख़ूबसूरत और लोकप्रिय गायिका हेलिन 288 दिनों की भूख हड़ताल के बाद 3 अप्रैल 2020 को नहीं रही। आज वह इस्ताम्बुल की एक क़ब्रगाह में सो रही है।
मृत्यु से कुछ दिन पहले लिखे अपने ख़त में 41 वर्षीय इब्राहिम ने कहा था, “मैं अपनी खिड़की से बाहर नज़र डालता हूँ और मुझे इस्ताम्बुल के ग़रीबों की बस्तियाँ दिखाई देती हैं। मैं इस क़दर कमज़ोर हूँ कि बाहर नहीं जा सकता, मेरा वज़न अब बस 40 किलो है। लेकिन मैं कल्पना करता हूँ कि मैं अपने गिटार के साथ मंच पर हूँ और मैं देखता हूँ कि हज़ारों तुर्क लोग आसमान में मुट्ठियाँ लहराते हुए ‘बेला चाओ’* गा रहे हैं।” (*दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान फ़ासिस्टों से लड़ने वाले इतालवी छापामारों का गीत)
बार-बार कहा जाता है कि कम्युनिस्ट यूटोपिया में जी रहे हैं और समाजवाद एक असफल सिद्धान्त और कभी सच न होने वाला स्वप्न है। फिर क्या वजह है कि सारी दुनिया में मज़लूमों और मज़दूरों के हक़ में आवाज़ उठाने वालों को रोज़ सताया जाता है? क्या वजह है कि सारी सत्ताएँ उनकी आवाज़ बन्द करने के लिए जु़ल्म की इन्तेहा करने पर आमादा हो जाती हैं? चाहे भारत हो या तुर्की, सारे फ़ासिस्ट उनसे इस क़दर डरते क्यों हैं?
जवाब साफ़ है। सारे तानाशाह जानते हैं कि इंक़लाबी अपनी जान पर खेलकर भी उनके पाखण्ड को लोगों के सामने नंगा कर देंगे। वे समझते हैं कि कम्युनिस्ट इतिहास को करवट बदलने पर मजबूर कर सकते हैं। वे जानते हैं कि ये ज़िद्दी इंसान तब तक लडते रहेंगे जब तक दुनिया में लड़ने की ज़रूरत बाक़ी रहेगी, वे तब तक जूझेंगे जब तक वे अपने इर्दगिर्द की भौतिक परिस्थितियों को बदलकर नहीं रख देंगे। वे समझते हैं कि यही वे लोग हैं जो एक दिन जनता के दिलो-दिमाग़ में क्रान्ति के बीजों को रोप देंगे और तब भूख, ज़िल्लत और मौत पर टिके उनके इस निज़ाम की उल्टी गिनती शुरू हो जायेगी। इसीलिए अपने डर को झुठलाने के लिए वे ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते हैं कि कम्युनिज़्म ख़त्म हो गया और रात-दिन हमें चुप कराने, ख़त्म कर देने और क़ैदख़ानों में डालने की साज़िशों में लगे रहते हैं।
मगर वे नहीं जानते कि हेलिन और इब्राहीम जैसे लोग कभी मरते नहीं। हमारे प्यारे भगतसिंह और पाश की तरह वे करोड़ों-करोड़ लोगों के दिलों में ज़िन्दा रहते हैं, उनके दिलों को उम्मीद और हौसले से रौशन करते रहते हैं, और हुक़्मरानों के सीने में ख़ंज़र की तरह धँसे रहते हैं।
हिन्दुस्तान के अवाम की ओर से हम हेलिन और इब्राहीम को इंक़लाबी सलाम पेश करते हैं। कॉमरेड, तुम्हारे ख़ून से एक दिन इंक़लाब के फूल खिलेंगे और नाज़िम हिक़मत और रूमी की धरती तुम्हारे संघर्ष की याद में लिखी कविताओं और गीतों से गूँज उठेगी।