बोरिंग ब्लॉगों से परे की बात

सरदारः
एक सरदार टैक्सी ड्राइवर
दो सरदार कारपेंटर
तीन सरदार शेरे पंजाब ढाबा
चार सरदार ट्रांसपोर्ट कम्पनी
पांच सरदार प्यारे


मराठाः
एक मराठा बस कंडक्टर
दो मराठे कबड्डी प्लेयर
तीन मराठे अचार फैक्ट्री
चार मराठे थियेटर ग्रुप
पांच मराठे शिव सेना शाखा



भैयनः
एक भैया दूधिया
दो भैयन चना जोर गर्म (या पानी पूरी) विक्रेता
तीन भैयन हलवाई शॉप
चार भैयन अखाड़ा
बारह भैयन छोटा परिवार सुखी परिवार



कश्मीरीः
एक कश्मीरी नाव वाला
दो कश्मीरी शिकारे वाला
तीन कश्मीरी टूरिस्ट एजेन्सी
चार कश्मीरी कारपेट फैक्ट्री
पांच कश्मीरी जमायतेदहशतगर्दी



बंगालीः
एक बंगाली रवीन्द्र संगीत गायक
दो बंगाली रसगुल्ला-सन्देश शॉप
तीन बंगाली ब्लैक एण्ड वाईट फिल्म निर्माता
चार बंगाली मर्क्सिस्ट मूवमेंट
पांच बंगाली मोहन बगान स्र्पोट ग्रुप



मलयालीः
एक मलयाली वेटर
दो मलयाली नारियल पानी शॉप
तीन मलयाली गल्फ जॉब रैकेट
चार मलयाली बोट रेस
पांच मलयाली मलयालम फिल्म इन्डस्ट्री



तमिलः
एक तमिल चन्दन लकड़ी स्मगलर
दो तमिल आत्मघाती बम दस्ता
तीन तमिल शास्त्रीय संगीत स्कूल
चार तमिल उडूपी रेस्टोरेंट चेन
पांच तमिल जयललिता फैन क्लब



गोवानीः
एक गोवानी रेमो फर्नान्डिज
दो गोवानी टूरिस्ट ट्रांसपोट कम्पनी
तीन गोवानी फेनी डिस्लिरी
चार गोवानी फुटबाल क्लब
पांच गोवानी ऑल नाइट ड्रिंक्स-डांस पार्टी



बिहारीः
एक बिहारी लालू प्रसाद यादव
दो बिहारी लोकल एम.एल.ए. के दायें-बायें
तीन बिहारी बूथ कैप्चरिंग स्कवायड
चार बिहारी कास्ट किलिंग
पांच बिहारी राज्य की सम्पूर्ण साक्षरता



सिन्धीः
एक सिन्धी जनरल स्टोर
दो सिन्धी डुप्लीकेट गुड्स शॉप
तीन सिन्धी स्मगल्ड गुड्स शॉप
चार सिन्धी करन्सी रैकेट
पांच सिन्धी पापड़ फैक्ट्री



गुजरातीः
एक गुजराती मुम्बई लोकल ट्रेन में शेयर दलाल
दो गुजराती मुम्बई लोकल ट्रेन में सियासी झड़प
तीन गुजराती मुम्बई लोकल ट्रेन में गुजराती समाज सभा
चार गुजराती मुम्बई लोकल ट्रेन में रमी
पांच गुजराती मुम्बई लोकल ट्रेन में भजन मण्डली



राजस्थानीः
एक राजस्थानी टूरिस्ट गाइड
दो राजस्थानी राज-मिस्त्री
तीन राजस्थानी ढोर डंगर विक्रेता
चार राजस्थानी कठपुतली कलाकार
पांच राजस्थानी जैसलमेर डांस ड्रामा ग्रुप


अगर बात जमें तो बताए जरूर।

वसीम की शाइरी दर्द की शाइरी है

शराफत और सादगी के साथ अदबनवाज़ी का अगर कोई नाम हो सकता है तो आप वसीम बरेलवी को जानिये। आज के दौर के मशहूरो-मारुफ शायरों में आपका शुमार होता है। आपकी शायरी ने सुनने और पढ़ने वालों को अहसासों की एक ऐसी सौगात दी है जिसकी जगह उनके दिलों में हैं। अपनी शायरी में जबान की सादगी और सोच में जिन्दगी के आम मसलों और सरोकारों से गजल को जोड़ कर वसीम साहब पेश किया है। आज हमारे दौर को जिस शायरी की जरूरत है, वसीम साहब ने अपने कलाम में उसी आवाज को बुलन्द किया हैं। आपके बारे में मशहूर शायर ‘फिराक’ गोरखपुरी ने कहा था कि- मेरा महबूब शाइर ‘वसीम बरेलवी’ है। मैं उससे और उसके कलाम दोनों से मुहब्बत करता हूं। ‘वसीम’ के अशआर से मालूम होता है कि ये महबूब की परस्तिश में भी मुब्तिला रह चुके हैं। वसीम के खयालात भौंचाल की कैफियत रखते हैं। वसीम के कलाम में आगही और शऊर की तहों का जायजा है और ऐसा शऊर और आगही कैफो-सुरूर का गुलदस्ता है। यह अकसर बातचीत से बुलन्द होकर काइनात का रंगीनियों और दिलकशियों से लुत्फ हासिल करते हैं। दरअसल शाइरी भी वही है, जो अपने वुजूद में हमें जिन्दगी की नजदीकतर चीजों का एहसास दिलाती है। ‘वसीम’ की शाइरी दर्द की शाइरी है।

आज उर्दू शाइरों में वसीम बरेलवीं का नाम आज बुलन्दीयों पर है। आपके बिना उर्दू मुशाइरों में एक अधुरापन सा रहता है। आपने अपनी शाइरी में नये-नये प्रतीको और बिम्बों के जरीये से मौजूदा हालात की परेशानीयों पर बहुत ही सहज और सरल ढंग से लिखा है। आपकी गजलों अनेक गायक गा चुके हैं और आपके अशआर लोगों को जबानी याद हैं।
मंसूर उस्मानी साहब ने एक बार वसीम साहब के बारे में कहा था कि- कभी-कभी ऐसा लगता है कि ये शायरी शब्द और एहसास का ही रिश्ता न होकर हमारे आँसुओं की एक लकीर है जो थोड़े-थोड़े अर्से के बाह हर युग में झिलमिला उठती है और इस झिलमिलाहट में जब-तब देखा गया है कि किसी बड़े शायर का चेहरा उभर आता है। इस चमक का नाम कभी फैज था, कभी फिराक था, कोई चेहरा दुष्यन्त के नाम से पहचाना गया, किसी को जिगर कहा गया। हमारे आज के दौर में आँसुओं की ये लकीर जहाँ दमकी है, वहीं वसीम बरेलवी का चेहरा उभरा है। इन्होंने अपने शायरी में जिस तरह दिल की धड़कन और दिमाग की करवटों को शब्दों के परिधान दिये गये हैं वह अपने आप में एक अनूठी मिसाल है। आँसू को दामन तक, जज्बातों को एहसास तक और ख्वाबों के ताबीर तक पहुँचाने में जितना वक्त लगता है उससे भी कम समय में वसीम साहब की गजलें वक्त के माथे की तहरीर बन जाती हैं।

पिछले दिनों आपको प्रथम फिराक गोरखपुरी अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया है। जिसमें 51,000 रुपए का नकद पुरस्कार और एक प्रशस्ती पत्र प्रदान किया। पुरस्कार ग्रहण करने के बाद वसीम साहब ने कहा कि हमारे समाज को पाश्चात्य संस्कृति से लगातार खतरा बना हुआ है। भविष्य की लड़ाइयां जमीन या इलाके के लिए नहीं, बल्कि सांस्कृतिक वर्चस्व के लिए लड़ी जाएंगी। गालिब, मीर और नजीर के शहर ने उन्हें महान सम्मान से नवाजा है। यह पुरस्कार मेरे लिए इम्तिहान हैं।
आजकल आप बरेलवी रूहेलखंड विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के प्रमुख हैं और वह कला संकाय के डीन भी रह चुके हैं। आपकी उर्दू शायरी पर आधा दर्जन से ज्यादा किताबे आ चूकी हैं और कई फिल्मों और टीवी धारवाहिकों में उनके गीत लिए गए हैं।

कुछ ऐसे हुआ फरिदाबाद का ब्लागर सम्मेलन

कार्यक्रम की जानकारी तो नुक्कड़ ब्लाग से मिल गयी थी, बाद में मैंने अविनाश जी से सम्पर्क बनाया। तब कार्यक्रम में जाने का इरादा पक्का किया। 12 की सुबह ही मैं मेरठ से फरिदाबाद के लिये निकल पड़ा क्योंकि इस ब्लागर सम्मेलन को 10:30 पर शुरू होना था, इसलिये समय से पहुंचना जरूरी था। लगभग 10:15 पर में सैक्टर 17 पहुंच गया। वहां पहुंचते ही साहित्य शिल्पी के राजीव रंजन जी को फोन लगाया, एक्जेट लोकेशन पता करने के लिये। उन्होने मार्डन पब्लिक स्कूल की सही स्थिति से मुझे बताई।
ये वहां का एक बड़ा विद्यालय था। स्कूल के बाहर ही एक बड़ा बैनर कार्यक्रम के सम्बध में लगा हुआ था। स्कूल में दाखिल होने पर रिसेपशन से पता किया कहां पर कार्यक्रम है, वहां से एक व्यक्ति मुझे हिन्दी सभागार में ले गया। बाहर ही राजीव रंजन जी स्वंय मेहमानो का स्वागत कर रहे थे। उन्होने बहुत ही जोश और स्नेह के साथ मेरा स्वागत किया और हाल की तरफ ले गए। आगे हमारे अन्य ब्लागर मित्र जो साहित्य शिल्पी तथा अन्य बलागों से भी जुड़े है मिले सभी पलकें बिछाए हुए मिले। ये मेरी राजीव रंजन और दूसरे दोस्तो से पहली मुलाकात थी। हाल में पहुंचकर देखा तो वह एक बड़ा कक्ष था, जहां स्लाइड प्रजेंटेशन पहले से ही चल रही थी। बहुत सारे ब्लागर बंधु कार्यक्रम की शोभा बड़ा रहे थे। कार्यक्रम अभी शुरू नही हुआ था।
मैंने अपना स्थान लिया। बराबर में ही सूलभसतरंगी जी बैठे हुए थे, जो गुड़गांव से आए हुए थे और दूसरी और हसते रहो वाले राजीव तनेजा जी। हमने एक-दूसरे से परिचय किया। मैंने देखा हाल में चारों और सभी सारे ब्लागर मित्र एक-दूसरे से गुफ्तगू में मशगूल थे। जितने पुरूष ब्लागर दिखाये दे रहे थे उनसे कहीं अधिक महिला ब्लागर वहां मुझे दिखी। कार्यक्रम में ब्लागर दोस्त लगातार बड़ रहे थे। योगेन्द्र मौदगिल जी दिखे, अविनाश जी भी तभी आए, वही दीपक गुप्ता भी साथ में दिखे हमसब एक-दूसरे से मिल रहे थे ओर जलपान चल रहा था। तभी मशहूर व्यंग्यकार प्रेम जनमेयजय जी तशरीफ ले आए। कार्यक्रम की अध्यक्षता उन्होने ही करनी थी।
राजीव जी ने स्वागत कार्यक्रम आरम्भ कराया। सरस्वती वंदना हुयी सबको पुष्प भेंट किए गए। कुछ औपचारिकताओं के बाद राजीव रंजन जी ने साहित्य शिल्पी के एक वर्ष की योगदान को स्लाइड प्रस्तुतिकरण के माध्यम से सबको दिखाया तथा ब्लाग और इंटरनेट पर हिन्दी के योगदान पर शानदार तरीके से अपने विचार रखे। एक सबसे लाजवाब बात जो इस कार्यक्रम की रही वो था इसका फार्मेट और उसकी मौलिकता। राजीव जी ने सबसे पहले जिसे हस्ती से लोगों को परिचित कराया था वो एक बुक सेलर श्री कुंद्रा जी थे। राजीव जी ने सस्ती साहित्यिक कृतियां बेचने के सन्दर्भ उनके योगदान को बताया। सभी लोग अभिभूत थे। इसके बाद अन्य मेहमानों ने भी अपने विचार रखें प्रेम जनमेयजय जी ने कमाल की बातें अपने साहित्यिक अनुभवों के बारे में साझा की। उन्होने अपनी त्रिनिनाद यात्रा के बारे में बताया कि वहां हिन्दी और साहित्य की क्या दशा है इसके अलावा वह हिन्दी और इंटरनेट तथा ब्लाग के बारें में भी जमकर बोले।
उन्होने बताया कि ब्लाग और वेब की इन साहित्यिक सेवाओं ने साहित्य से प्रवासी शब्द गायब कर दिया है, साहित्य सिर्फ साहित्य है, ना कि प्रवासी साहित्य। आगे उन्होने कहा ब्लाग या नेट लेखन पर आदमी संयम से परे हो जाता है, यहां लिखने के दौरान वे संयम को खो देता है। इसके बाद अन्य वक्ताओं व कवि/ब्लागर साथियों ने अपनी चुनिंदा कविताओं को रखा और इस प्रकार कार्यक्रम का पहला सेशन समाप्त हुआ। लंच के दौरान ब्लागर साथी एक-दूसरे से मिल रहे थे, जिन्हें अभी तक सिर्फ स्क्रीन पर ही देखा था वे अब लाइव मिल रहे थे। राजीव जी अविनाश जी स्वंय लोगों से भोजन के लिये निवेदन कर रहे थे। दूसरे सेशन में मेरे साथ में मीडिया खबर वाले पुष्कर पुष्प और टीवी प्लस वाले विनित बैठे थे। ये दोनो ही लजवाब बन्दे हैं। विनित ने तो जोरदार तरीके से अपनी बात रखी। उसने मुझे बताया कि मीडिया विषय पर वह शोध (मनोरजंन चैनलो की भाषिक संस्कृति) भी कर रहा है। बेहद संतुलित तरीके से पुष्कर ने भी अपने विचार रखें। अविनाश जी ने वहां पर सबको मेरी पुस्तक ब्लागिग के बारे में भी बताया। जिन ब्लागर साथियों ने अपने विचार रखे सबका नाम दे पाना तो मुश्किल है लेकिन जो याद रहे उनमें नमिता राकेश,सृजन के सुरेश यादव, अमन दलाल, शैफाली पांडे, विनोद कुमार पांडेय, पवन चंदन जी देशनामा वाले खुशदीप सहगल जी, तथा बहुत सारी महिला ब्लागरों ने भी अपने विचार रखें।
एक और मुख्य बात मुझे इस कार्यक्रम में दिखी कि फरीदाबाद के सभी गणमान्य अतिथी, पत्रकार, कवि और लेखक भी जमा थे। जो ब्लाग जैसे नये विषय को समझने के लिये उपस्थित थे। मुझसे इस कार्यक्रम में बहुत सारे लोगों ने मेरठ के ब्लागरों के बारे में भी पुछा, क्योंकि मेरठ के अनेक ब्लागरों ने अपने लेखन के जरिये विश्व स्तर पर अपनी पहचान बना ली है, लेकिन बेहद अफसोस के साथ कहना पड़ रहा कि मेरठ में कोई राजीव रंजन नही है जो ब्लागिग के लिये इतना सर्मपित कार्यक्रम कर सके। कार्यक्रम में भाग लेने के लिये गुड़गांव, फरीदाबाद, मेरठ, गाजियाबाद, दिल्ली, लखनऊ, हलद्वानी, पटना, पानीपत आदि जगहों से ब्लागर आए हुए थे।

खुद पर यकीन करना तो सिखिए

कल शाम एक पुराना दोस्त घर आया, बोला उसने एक जेनरेटर सेट 65 हजार रूपये में खरीदा, उसको रिपेयर किया और 1 लाख बीस हजार रूपये में बेच दिया। उसने कहा- उसे अपने आप पर यकीन नहीं हो रहा, कि वो इतने फायदे का सौदा कर आया हैं। वो हमेशा से ऐसा करना चाहता था, लेकिन कभी अपने आप को यकीन नही दिला पाया था कि वो इस तरह इसको बेच भी सकता है, लेकिन इस बार जैसे ही उसे पुराना जेनरेटर दिखाई दिया तब उसने फैसला कर लिया था कि वो इसको अच्छे दामों पर बेच लेगा और उसने बेच दिया।
खुद पर विश्वास करना ऐसा है, जैसे, मन चाही चीज़ हासिल हो जाना। नौकरीपेशा लोग महीने की पहली तारिख की प्रतिक्षा में रहते हैं, मजदूर शाम ढले अपनी मजदूरी की प्रतिक्षा में, दुकानदार माल बिकने के इंतजार में रहता है। हम सब लोग किसी ना किसी वजह से दूसरों को अपनी कामयाबी का आधार मानकर चलते हैं। हमने अपना यकिन अपने आप से हटाकर, दूसरों पर लगा रखा है। अगर आपने सफलता को लक्ष्य बना रखा है, तो दांव भी अपने ऊपर ही खेलना हो। आप खुद पर यकीन करना सीखिए। अपने आप को बताइए की कोई भी कार्य आपके लिए असम्भव नहीं है। क्योंकि जो सफलता आप अपने लिये चाहते हैं, उसके प्रक्ट्रिकल के लिये हमने दूसरों को कैसे चुन लिया। सफलता, जिसका अर्थ प्रत्येक व्यक्ति अपनी जरुरतों के हिसाब से लगाता है। किसी के लिये सफल होना बहुत अधिक पैसा होना होता है, किसी के लिए शौहरत और मान-सम्मान सफलता है, किसी के लिये शीर्ष पर पहुँचना सफलता है। लक्ष्य कुछ भी हो सकता है। सफलता यदि आपके लिए अभी तक असम्भव थी, तो ये मानिए की अब आप सफल होकर ही रहेंगे। आपका खुद को दिलाया गया यकिन सबमें अनमोल धरोहर बन जाता है आपके लिए। हमने जिस प्रकार सुबह उठकर पेस्ट करने को एक सरल प्रक्रिया मान रखा है, अपने जुते पाॅलिश करना या दूसरे ऐसे ही कुछ और काम, जिनमें कोई कठिनाई हमें नज़्ार नहीं आती और हम आसानी से इन कामों को कर लेते हैं। ऐसे ही कोई भी अन्य असम्भव प्रतीत होने वाला कार्य भी हम केवल विश्वास के बल पर सरलता से कर सकते हैं।
इसलिए खुद को यकिन दिलाइये, आपके लिए कोई भी कार्य असम्भव नहीं है। यदि कामयाबी का रास्ता किसी लम्बी सीढ़ी से होकर जाता है, तो खुद पर किया गया यकीन उसका पहला कदम है।

हिन्दी ब्लागिंग का एक दुर्लभ चित्र


इस चित्र को हाल ही मैं मैंने लिया है, ऐसा नज़ारा कभी-कभी ही देखने को मिलता है। ये दोनों महान लोग हिन्दी ब्लागिंग के लिये मील का पत्थर सिद्ध हुए है, दोनों ही पुराने खिलाड़ी है, और आज के सर्वाधिक लोकप्रिय ब्लागर के रूप में प्रतिष्ठित हैं। क्या आपको लगता है, इस चित्र में दुर्लभ होने जैसी कुछ बात है, यदि हां तो आप भी ब्लागिंग के दक्ष पुरोधा है, यदि नहीं तो कुछ पुराने ब्लाग पढ़िये?

आत्मा तक चित्कार उठती है

आजकल बारिशों का मौसम हैं। पूरा दिन टपकता रहता है, बारिश की वजह से कही बाहर जाना नही हो पा रहा था। शाम में पापूलर भाई आ गए थे, वो 30 जुलाई में एक प्रोग्राम करने जा रहे है, कुछ लोगों को कार्ड देने थे, मैं चल पड़ा। बारिशमें भीगते-बचते हम निकल पड़े, साथ में जमीर मियां थे, गाड़ी वो ही ड्राइव कर रहे थे। साढ़े सात या आठ बज रहे होगें, जोशी जी का फोन आया, किसी अमित सक्सैना का पता मालूम कर रहे थे, वो एक उपन्यासकार है, उन्होने ही मुझे बताया, किसी कविता पाकेट बुक्स ने उसका उपन्यास छापा है, मैंने मनेष जी को फोन खड़काया, हमेशा की तरह शाम को उनका फोन बन्द ही मिला, सलीम भाई से पता किया- कौन है ये अमित सक्सैना, उन्होने दो-तीन अमितों का हवाला दिया- मैंने जोशी जो को सलीम भाई के हवाले किया।
पापूलर जी के साथ आगे बढ़े बच्चा पार्क आ गया था, मैं घन्टाघर से ही डोसा खाने की सोच रहा था, यहां अच्छा डोसा मिल जाता है, कार्ड लगभग बंट चुके थे। हम बच्चा पार्क पर उतर गए। जमीर भाई चले गए थे। पापुलर जी ने कहा जब यहां आए है तो, धामा जी से भी मिलते चले, मैं फोन करता हूं, अगर वो हो तो, तुम रिक्शा रोको। एक रिक्शे वाला मेरी तरफ आया। इतनी बारिश में वो अकेला चोपले पर खड़ा हुआ था, वो एक बुढ़ा आदमी था, और भीगा हुआ था, बोला- कहां चलना है, ‘मैं चलता हूं’ तभी पापूलर भाई ने बताया कि अब नही जाना। धामा साहब घर पर नहीं है, आओ डोसा खाते है, वो गजीबो की और चल दिये।
उस बुढ़े रिक्शे वाले ने कहा- कि कोई भी बुढ़ा समझ कर मेरे रक्शे में नही बैठता, अभी तक बोनी भी नही हुयी, गांव से आता हूं मैं। उसकी बात सुनकर मैं एकदम से जड़ हो गया था, मुझे असीम करूणा उसमें दिखाई दे रही थी। कैसी लाचारी है, इसके साथ, मेरा दिल अन्दर से एकदम टुकड़े-टुकड़े हुए जा रहा था। आदमी के साथ भी क्या-क्या मजबूरीयां होती है, मैंने उस रिक्शे वाले से कहा- बाबा सबके साथ कुछ ना कुछ परेशानियां है, हर आदमी जो सही दिख रहा है, कही अन्दर से टूटा हुआ है। ये कहकर में आ गया। गजीबों में बैठे। डोसे का आर्डर दिया। एक छोटा सा बच्चा टेबल साफ करने आ गया। इतने छोटे-छोटे मेरे भांजे हैं, ये उनकी उम्र का ही होगा। में ये सोच रहा था। डोसा खाने में मन ना लगा। ऐसे ही छोड़ दिया। पापूलर जी ने पूछा क्या हुआ। मैंने कहा-कुछ नही आओं चलते है। घर आया, टेलीविजन पर देखा। भारत अब पहले से कही अधिक सम्पन और शक्तिशाली हो गया हैं। में इस तरक्की हो जब तक झूठा मानता हूं तब तक कोई बुढ़ा रिक्शे वाला भरी बारिश में रोटी के जुगाड़ के लिये मारा-मारा फिरता हो।

हिन्दी ब्लॉगिंग के 10 सबसे बड़े खतरें

हिन्दी ब्लागिंग तेजी से अपने कदम बड़ा रही है, लेकिन कुछ ऐसी बातें भी हो जो सबसे लिये समस्या बनकर आयी है, प्रस्तुत है, ऐसी ही 10 बातें।

1-बेनामी एक ( anonymous) बड़ी समस्या के रूप में उभर कर सामने आया है। ये जिधर चाहे मुंह मार देता है, कोई इसको रोकने-टोकने वाला नही है। इनको पकड़ने का अभी तक कोई पक्का इंतजाम नही है, ब्लॉगर आलोचना का स्वागत कर सकते है, लेकिन गालियों और बदतामिजी का नहीं। (बेनामी कोई और नहीं हैं, हम खुद ही चेहरा बदलकर एक-दूसरे को कोसते है)

2-हम लोग धड़ाधड़ लिखने पर उतारू हो गए है, लगातार पोस्टों पर पोस्टे दे रहे है, लेकिन सामूहिक रूप से हमारी फ्रिक ये बिल्कुल नही है कि हमें हमारे ब्लॉग से भी कुछ आमदनी होनी चाहिये, ये भी एक खतरा है, क्योकि अपने ब्लॉग पर हर कोई अपना बेस्ट देता है, जिसका उसे कुछ ना कुछ मेहनताना मिलना ही चाहिये।

3-लोगों को लिखने से मतलब, क्या लिखा, कुछ भी जो दिमाग में आया, फिर हम कहते है- अरे फलां का ब्लॉग बड़ा अच्छा चल रहा है, उस पर बहुत भीड़ रहती है, हमें अपने लेखन के जरिये अपने आप को ब्रांड में बदलना आना चाहिये। तभी हम अपना मजबूत पाठक वर्ग तैयार कर सकगें। (याद रखना ज्यादा टिप्पणीयां और प्रशंसक किसी के अच्छा लिखने की गांरटी नही है, बल्कि ये चापलूसी और टिप्पणी के बदले टिप्पणी वाला सिस्टम भी होता है।)

4. कुएं के मेढ़क बने रहना, हमेशा ही, प्रत्येक पोस्ट में एक सा लिखते रहना, चाहे वो सरकार को कोसना हो, हिन्दूव का ढोल पीटना हो, आंतकवाद की दुहाई हो। या इसके आस-पास जैसा कुछ। इससे बचे! ये आपके वातावरण और पालनपोषण को उजागर करता है।

5. ऐसे कई ब्लॉगर प्रकाश में आए है, जो तीन-तीन, चार-चार घटें के अतंराल से लगातार पोस्टे देते है। उनकी पोस्टों को पढ़ने वालो की कुल जमा-पूंजी चार या पांच लोग। (ये फिर भी बाज नही आते) ये एक दिन ब्लॉगिंग को फ्री से निकाल कर पैसों की करवाकर ही बाज आएगे।

6-सर्कीण मानसिकता वाले ब्लॉगरों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। धर्म को बचाने का ठेका इन्होने ही लिया हुआ है। अपनी घटिया बयानबाजी और एकतरफा लेखन से ब्लॉगिंग को प्रदूषित करने वाले ब्लॉगर भी बड़े खतरों में से एक है।

7- पुराने पुरोधाओं की गुम होती पहचान- अब तो काफी ब्लॉगर हो गए है, लेकिन कभी इस क्षेत्र के खिलाड़ी कोई और ही थे, एक ब्लॉगर जो पुणे में रहते है, तकनीकी विषेषज्ञ है, बड़ी गालियां बक रहे थे- हमने इतना कुछ किया हिन्दी ब्लॉगिंग को पहचान दिलायी, और आज हम ही गायब से हो गए। हमें इन लोगों को भी याद करना चाहिये, ये लोग भी हिन्दी ब्लॉगिंग के ब्लेक एण्ड व्हाइट दौर के नायक हुआ करते थे कभी।

8- अगर कोई किसी का मेटर उठा लेता है, तब हम क्या कर सकते है, ऐसा कोई प्रावधान नही है, क्योंकि यहां पर अधिकांशत लिखने वाले नॉन प्रोफेशनल है, कहीं छप नही पाए है, अगर आपके लेखन का कोई इस्तेमाल करे तो ये अच्छी बात है बशर्ते आपको भी उसका लाभ मिलना चाहिये।
9- कुछ सालों में ही हिन्दी ब्लॉगिंग की फिजा बदलने वाली है, दस-बीस हजार नही, लाखों की संख्या में ब्लॉगर लिख रहे होगे। आपका क्या होगा। कैसे टिकोगे, कभी सोचा है, अभी तो मजे की मिल रही है,

10- सबसे महत्वपूर्ण बात! आपने ब्लॉगिंग करते हुए किसी को क्या दिया। आप सिर्फ बकवास ही लिखते है, या कुछ बदलाव लाने वाला भी लिखते है, ऐसा कुछ जिसे पढ़कर पाठक प्रेरित हो, स्फुर्ति महसूस करे। (हिन्दी ब्लॉगिंग में अगर 13 हजार ब्लॉग है तो इनमें तीन प्रकार के ब्लॉग सर्वाधिक है, पहले वे लोग जो कविताए लिखते है, यहां कवियो और कवित्रियों की भरमार है, कविताएं भी ऐसी आदमी पढ़कर आत्महत्या की सोचने लगें। दूसरे जो सलाह देने वाले लोग है, देश ऐसे चलना चाहिये, नीतियां ऐसी होनी चाहिये, प्रधानमंत्री को ये करना चाहिये, इसने ये गलत कर दिया, मैंने ये सही कर दिया। दुनिया की सारी चिंताओं का हल इनके पास है, सिवा खुद के। तीसरे नम्बर पर वे ब्लॉगर सर्वाधिक है जो पत्रकार हुए जा रहे है, जिसको देखो वो यहां पत्रकार हुआ जाता है, अगर नही है, तो भी खुद को कहेगा जरूर। यहां क्या पत्रकारिता की डिग्रीयां बट रही है)

मेरठ में आज कर्फ्यू लगा दिया गया है (ब्लॉग पर पहली खबर)

आज सुबह जब सोकर उठा तो मेरठ में कर्फ्यू लगा पाया। कल की एक छोटी सी घटना को लेकर यहां के स्थानिय मुस्लिम नेताओं ने शहर में कर्फ्यू लगवाकर ही दम लिया। घटना कुछ इस तरह से है कि कल जमात (तबलीगी जमात) से लौटते हुए कुछ मुस्लिम समुदाय के लोगों की अन्य समुदाय के लोगों से कुछ कहासुनी हो गयी। बात ये है कि कोई भी दो समुदाय के लोगों की आपस में कहासुनी अक्सर ही हो जाती है लेकिन बात कभी भी इतनी नही बढ़ती की शहर में कर्फ्यू लगा दिया जाए। चूकिं यहां मामला जमात के लोगों के होने से जुड़ा था। बस क्या था यहां के एक शातिर गुण्डें ने जो यहां का मुस्लिम कौम का नेता भी बना हुआ है और जो इस वक्त चुनाव में हारने की वजह से खिसयाया हुआ है, उन जमात के लोगों की वकालत में शहर में जगह-जगह उपद्रव मचाने की कोशिश की लेकिन पुलिस ने हर जगह मामले को सम्भाल लिया। अच्छा इस स्थानिय गुण्डें ने जो अपने आप को कौम का रहनुमा भी बताता रहा है हर जगह दंगा भड़काने की कोशिश की लेकिन असफल रहा। उसने दिनभर हर जगह पहुंच कर लोगों को भड़काया जैसे ईदगाह चौपला, घंटाघर, रोहटा फाटक हर जगह उसका प्रयास असफल रहा और मुस्लिम कौम ने उसकी बात को सून कर अनसुना कर दिया। लेकिन रात में उसने अपने गुण्डों को लेकर दूसरे कौम की एक धर्मशाला पर पथराव और जलती हुयी चीजें फेंकी तथा पुलिस की एक गाड़ी को आग लगवा दिया। बस इतना होते ही प्रशासन ने शहर में कर्फ्यू लगा दिया। अब जब हमारी बात हमारे पत्रकार मित्रों से हुयी तो सबने बता ही दिया है कि वो गुण्डा अब इसको और बढ़ाने की कोशिश में लगा हुआ है जिससे
अपनी सियासत को चमका लें। इस नेता का कहना ये भी रहा है कि जब तक वो नेता था तब तक शहर में कोई दंगा नही था लेकिन जैसे ही शहर के लोगों ने उसे नकारा उसने ये कमाल भी दिखा दिया। दोस्तों हम मेरठ के ब्लागर आपस में जुड़े हुए है और पूरी दुनिया को अपनी पोस्टों से लाइव अवगत कराते रहेगें। इस सब पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है जरूर बताये।

परिक्रमा: कमलेश्वर और इन्दिरा जी

16 अगस्त की सुबह, सन् ज़रूरी नहीं, बस इतना याद रखना ज़रूरी है कि भारत के एक प्रधान मन्त्री लाल किले की प्राचीर से, 15 अगस्त का भाषण दे चुके थे। मैं 16 की सुबह दिल्ली पहुँचा। टैक्सी ली। कुछ देर कोई बात नहीं हुई पर टैक्सी वाले को सिर्फ ड्राइवर मान कर बात न करना अच्छा नहीं लगा। आखिर वह भी तो संसार के सबसे बड़े इस लोकतन्त्र का नागरिक है। योरुप या अन्य देशों में टैक्सी वाले बराबरी से बात करते हैं। साथ बैठकर नाश्ता करते या खाते हैं। साम्यवादी देशों में तो यह बात समझ में आती है। योगोस्लाविया में यह अनुभव किया था—सन् 1971 में। और फिर अभी सन् 1989 में चीन में।
तो, बात करने के लिए पूछा—कल आपने प्रधान मन्त्री का भाषण सुना था।
-सुना था।
-कैसा लगा ?
-ठीक था।
-उन्होंने कहा कि वे गरीबी खत्म करके रहेंगे !
-हाँ।
-आपको यह बात कैसी लगी ?
-सब यही कहते हैं।
-पर यह तो नए प्रधान मन्त्री हैं।
-ये भी गरीबी तो खत्म नहीं कर पाएंगे..पर हम गरीबों को खत्म कर देंगे !
-सब मुझसे ही पूछते-से लगते हैं, साफ-साफ कोई कहता तो नहीं...यही कि मैंने अपनी ज़िन्दगी बरबाद कर दी ! पर आज तक किसी ने नदी से पूछा कि कितना पानी बरबाद किया है उसने ? औरत की ज़िंदगी और नदी में फ़र्क ही क्या है ?
सन् 1971, शायद नवम्बर का महीना था। वीयना यूनिवर्सिटी में सभा थी। मुझे बंग्ला देश में हुई क्रांति पर बोलना था। प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी भी उसी दिन वीयना में थीं। हमारी एक मीटिंग वीयना यूनिवर्सिटी में रखी गई तो उनकी सुविधा के लिए हमारी सभा का समय उन्हें दिया गया और हमारा समय आगे बढ़ा दिया गया।
उनकी सभा में मौजूद रहना मुझे अच्छा लगा। वे बंगला देश का निर्माण करने के बाद पहली बार विदेश आई थीं। दो राष्ट्रों के सिद्धान्त को उन्होंने ग़लत साबित कर दिया था। पर विदेशी तो विदेशी। उनके बोल चुकने के बाद प्रश्नोत्तर शुरू हुआ। एक विदेशी ने पहले प्रश्न के दिए गए उत्तर के संबंध में उन से चीख कर पूछा—बट ह्वाट अबाउट योर काऊज़ (Cows) ?
इन्दिरा जी ने कुछ गोलमोल-सा उत्तर देकर धार्मिक अन्धतावाद को कोसा।
दस मिनट बाद वहीं हमारी सभा शुरू हुई। आधे श्रोता वही थे। हमें इन्दिरा जी की सभा के कारण अधिक श्रोता मिल गए थे।
हॉल के एक भाग में ही इन्दिरा जी के लिए त्वरित चाय का इन्तजाम था। वे शायद तब चाय पी रही थीं। मुझे मालूम नहीं था क्योंकि वह खण्ड हॉल का हिस्सा होते हुए भी अलग था।मैं उनसे पूछे गए सवाल पर विक्षुब्ध था...गाय औसत भारतीय की धर्मांधता का हिस्सा नहीं है। विदेशी खुद भारत को लेकर अंधविश्वास ग्रस्त हैं। मैं बोलने खड़ा हुआ तो, काफी वही चेहरे देखकर मैंने घुमा-फिरा कर वही सवाल उठाया और उसे संदर्भ से जोड़ते हुए मैंने श्रोताओं से पूछा—एण्ड ह्वाट अबाउट यार डॉग्स- (dogs) ?
क्या आप उन्हें मार कर खाते हैं ? आप उन्हें अपने साथ विस्तर पर सुलाते हैं, रोज़ अलस्सुबह उन्हें दिशा-मैदान के लिए शहर की पटरियों पर ले जाते हैं—सारा शहर बदबू से भरा होता है, फिर वह धोया जाता है और जब आपके कुत्ते मरते हैं तो आप उन्हें दफनाते हैं....भारत में गाय की अलग स्थिति है। हमारा कृषि-प्रधान देश है। गाय हमारा इकोनॉमिक युनिट है। वह हमें खेत जोतने के लिए बैल देती है। दूध से हम घी, मक्खन और दही बनाते हैं। गाय के गोबर से हमें खाद और ईधन मिलता है, इसलिए हम गाय को नहीं मारते !
चाय पीते हुए इन्दिरा जी यह भाषण सुन रही थीं। वहाँ लम्बे भाषण तो होते नहीं। बंगला देश क्रांति पर बोल कर मैं उतर आया।
तभी इन्दिरा जी के लश्कर से एक सज्जन आए—आपको प्रधान मन्त्री बुली रही हैं !मैं गया उन्हें प्रणाम किया।
-मैं अभी आपकी कुछ बातें सुनीं ! इन्दिरा जी बोलीं—आप जैसे लोगों को तो भारत में होना चाहिए....पता नहीं आप लोग देश छोड़कर क्यों चले जाते हैं ? वे मुझे अप्रवासी भारतीय (N. R. I.) समझी थीं।
-जी, ऐसा तो नहीं है, पर मुश्किल सिर्फ यह है कि जब हम अपने देश के मंचों पर बोलते हैं तो बेकार समझे जाते हैं। पर विदेशी भूमि पर खड़े होकर बोलते हैं तो कारगर और समझदार समझे जाते हैं ! पता नहीं आधारभूत ग़लती कहाँ हुई है ? मैंने कहा—मैं तो भारत में ही रहता हूँ !उन्होंने एक पल सोचा। फिर कहा—जब आप भारत लौटें तो मुझसे मिलिए !यह इन्दिरा जी से मेरी पहली मुलाकात थी।
सन् 1971....पाकिस्तान होते हुए योरुप यात्रा। ईस्ट पाकिस्तान ख़त्म हो चुका था, बंगला देश बन चुका था। मैं क़ायदे-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना की शानदार मज़ार देखने गया। उसकी बाहरी दीवार पर किसी ने बड़े-बड़े हरुफों में कुछ लिख दिया था, जिसे शैम्पू करके मिटाया जा रहा था। मैं इतना ही पढ़ सका—...अहसान हमने उतार दिया ! शुरू के हरूफ धुल चुके थे। मैंने वहां खड़े एक आदमी के पास जाकर पूछा—यह क्या मिटाया जा रहा है ?
वह हँसने लगा, फिर हँसते हुए ही बोला—बंगला देश बन गया न इसलिए किसी मनचले ने मज़ार पर लिख दिया था-कायदे-आज़म आपका आधा अहसान हमने उतार दिया।
एक बातचीत।
-जब से पंजाब में आतंकवादियों का दौर चला है, रोज़ 15-20 लोगों की हत्या की ख़बर आती है—जेबकतरी, चोरी, बलात्कार वगैरह की कोई खबर ही नहीं आती। लगता है जैसे इस तरह के क्राइम अब पंजाब में होते ही नहीं !
-जी हाँ, इसलिए कि पंजाब पुलिस आतंकवादियों को लेकर बिज़ी है, उसके पास वक्त ही नहीं है !दिल्ली-30-6-90. घनघोर मानसून का पहला दिन—
जमना पार का इलाका। गर्मी की ज्यादती और बिजली-पानी की कमी। झुग्गी वालों को तो पानी महीनों नसीब नहीं था।
मानसून आया। गलियां और पतली सड़कें पानी से भर गईं। गंदला पानी। बच्चे बतखों की तरह पानी में उतर गए। एक मां ने गोद से बच्चे को पानी में उतारते हुए कहा—ले नहा बेटा...खूब नहा....अब भगवान् का दिया सब पानी हमारा है !
दफ्तर। नया-नया है। बिजली गई। इधर-उधर की बातचीत ने एक कोई भयानक सपना सुनाया।
कमेंट : पता है सपने क्यों आते हैं ?
-क्यों ?
‘कब्ज़ के कारण !
-पर आदमी खुली आँख भी तो सपने देखता है !
-वह आते हैं गरीबी के कारण !
पढ़े-लिखे लोगों की जमात, घूमते-घामते बात राष्ट्रीय मोर्चा सरकार पर आई। बढ़ती कीमतों पर बात भी हुई थी। दिन बढ़ती कीमतों और बारिश के।
–विश्वनाथ प्रताप सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार मूल्य आधारित नीतियों की बात करती है।
-इसीलिए मूल्य बढ़ रहे हैं ! टमाटर आठ रुपये किलो से बीस रुपए किलो हो गया !
वहीं, दूसरा टुकड़ा—
-सरकार राष्ट्रीय मोर्चे की है !
-तभी तो सरकार वाले एक-दूसरे से मोर्चा लगाए बैठे हैं !सन् ’93....केंद्र में कांग्रेस सरकार। चार राज्यों की बी।जे.पी. सरकारें बर्खास्त, जनता दल के अलग-अलग धड़े, मुलायमसिंह यादव, देवीलाल, ओमप्रकाश चौटाला, वी.पी. सिंह, जार्ज फर्नांडिस, मधु दण्डवते, रामकृष्ण हेगड़े, रामविलास पासवान, शरद यादव, अजित सिंह, बीजू पटनायक आदि—सवाल एक नेता से—क्या कभी जनतादल एक हो सकता है ?उत्तर : यह करिश्मा जादूगर तो छोड़ो....भगवान भी नहीं कर सकता !जम्मू-कश्मीर, आंतरिक सुरक्षा का मसला। गृह मंत्री का दौरा, भयानक आतंक का माहौल....पाकिस्तान-पोषित आतंकवादियों का इलाका—बारामूला और कुपवाड़ा, बी.एस.एफ. के जवान, खरतों के बीच।मंत्री—आप लोगों को कोई दिक्कत तो नहीं ?बी.एस.एफ. का एक जवान-दिक्कत कोई नहीं, बस कई बार हमारी डेड बॉडी घर नहीं पहुँच पाती.....सन् ’89-90, अयोध्या राम मंदिर, बाबरी मस्जिद का मामला तूल पर, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, आर.एस.एस., भाजपा की राजनीतिक मिलीभगत, जबरदस्त हिन्दुत्ववादी तूफान। लखनऊ, कपूरथला काम्प्लेक्स के पान की दुकान ! दुकान में प्रस्तावित राम मंदिर का नक्शा।-तो इस बार तुम भारतीय जनता पार्टी को जितवाओगे ?

पानवाला—हम पागल नाहीं हैं साब ! मंदिर भारतीय जनता पार्टी से बनवाएंगे...सरकार कांग्रेस से चलवाएंगे !
फैज़ाबाद : राम जन्म भूमि तो मिल जाएगी, पर मातृभूमि चली जाएगी !
एक फाश फ़िल्मी बातचीत-सन् ’93-खलनायिका की शूटिंग, दिल्ली में—बातें वही....
शुरू : इंशाअल्ला ! कपड़े उठाए, खोला, देखा : सुभान अल्ला ! दाखिला : माशा अल्ला ! और फिर : अल्ला ! अल्ला ! अल्ला !
अनीता और गायत्री की बातचीत—अनीता की जुबानी-8-6-93.
गायत्री : हाँ इन्होंने डेन बना लिया है। सुबह से उसमें घुस जाते हैं—लिखने के लिए। लगता है कल तक उपन्यास खत्म कर देंगे...फिर मन उचटता है तो उठकर कहीं भी चले जाते हैं....
अनीता : तो पूछ तो लिया करो, कहाँ जा रहे हो ?
गायत्री : पूछ कर इन्हें मुश्किल में क्यों डालूँ !
वही दिल्ली। फ़िल्म खलनायिका की शूटिंग। जितेंद्र, जयप्रदा, अनु अग्रवाल, वर्षा उसगाँवकर और महमूद—शूटिंग देखने आए कुछ पाकिस्तानी। बातचीत में कुछ तनाव और अजीब-सा मोड़।
महमूद : सुनो ! हम तुमसे पैदा नहीं हुए हैं...तुम हमारे नुत्फे से पैदा हुए हो, हिन्दुस्तान से पाकिस्तान पैदा हुआ है...समझे !
वही फ़िल्मी शाम।
-पकड़े गए जनाब, एक प्राइवेट शो में माशूका का हाथ पकड़े बैठे थे। पीछे आकर बीवी बैठ गई ! हालत खराब।
-फिर ?
-फिर क्या, दूसरे हाथ से बीवी के पैर पकड़ लिए।वही फ़िल्मी गुफ्तगू। एडीटर प्राण मेहरा। शादी। सर्दियां। कश्मीर में हनीमून।
बीवी-हाय रब्बा, तुसी तो कुल्फी मार दित्ती !वही माहौल : कोई और जोड़ा। बीवी को पूरा अनुभव।
-फिर वही !
-नहीं...बिलीव भी।
-तब इतनी रात कहाँ से आए हो ?
-पार्टी में था।
-पार्टी में थे...ओके...आओ, बैडरूम में आओ !
-बैड रूम ! बैड...
-अब क्या हुआ ?
-सॉरी डार्लिंग ! इस बार माफ कर दो। मैं बहुत शर्मिंदा हूँ !

प्रस्तुति : इरशाद

अक्षरों के साये/अमृता प्रीतम

मौत के साये
जब मैं पैदा हुई, तो घर की दीवारों पर मौत के साये उतरे हुए थे...मैं मुश्किल से तीन बरस की थी, जब घुटनों के बल चलता हुआ मेरा छोटा भाई नहीं रहा। और जब मैं पूरे ग्यारह बरस की भी नहीं थी, तब मां नहीं रही। और फिर मेरे जिस पिता ने मेरे हाथ में कलम दी थी, वे भी नहीं रहे...और मैं इस अजनबी दुनिया में अकेली खड़ी थी-अपना कहने को कोई नहीं था। समझ में नहीं आता था-कि ज़मीन की मिट्टी ने अगर देना नहीं था, तो फिर वह एक भाई क्यों दिया था ? शायद गलती से, कि उसे जल्दी से वापिस ले लिया और कहते हैं-मां ने कई मन्नतें मान कर मुझे पाया था, पर मेरी समझ में नहीं आता था कि उसने कैसी मन्नतें मानीं और कैसी मुराद पाई ? उसे किस लिए पाना था अगर इतनी जल्दी उसे धरती पर अकेले छोड़ देना था...लगता-जब मैं मां की कोख से आग की लपट-सी पैदा हुई-तो ज़रूर एक साया होगा-जिसने मुझे गाढ़े धुएं की घुट्टी दी होगी...बहुत बाद में-उल्का लफ़्ज सुना, तब अहसास हुआ कि सूरज के आस पास रहने वाली उल्का पट्टी से मैं आग के एक शोले की तरह गिरी थी और अब इस शोले के राख होने तक जीना होगा...
आने वाले वक्त का साया
जब छोटी-सी थी, तब सांझ घिरने लगती, तो मैं खिड़की के पास खड़ी-कांपते होठों से कई बार कहती-अमृता ! मेरे पास आओ।शायद इसलिए कि खिड़की में से जो आसमान सामने दिखाई देता, देखती कि कितने ही पंछी उड़ते हुए कहीं जा रहे होते...ज़रूर घरों को-अपने-अपने घोंसलों को लौट रहे होते होंगे...और मेरे होठों से बार-बार निकलता-अमृता, मेरे पास आओ ! लगता, मन का पंछी जो उड़ता-उड़ता जाने कहां खो गया है, अब सांझ पड़े उसे लौटना चाहिए...अपने घर-अपने घोसले में मेरे पास... वहीं खिड़की में खड़े-खड़े तब एक नज़्म कही थी-कागज़ पर भी उतार ली होगी, पर वह कागज़ जाने कहां खो गया, याद नहीं आता...लेकिन उसकी एक पंक्ति जो मेरे ओठों पर जम-सी गई थी-वह आज भी मेरी याद में है। वह थी-‘सांझ घिरने लगी, सब पंछी घरों को लौटने लगे, मन रे ! तू भी लौट कर उड़ जा ! कभी यह सब याद आता है-तो सोचती हूं-इतनी छोटी थी, लेकिन यह कैसे हुआ-कि मुझे अपने अंदर एक अमृता वह लगती-जो एक पंछी की तरह कहीं आसमान में भटक रही होती और एक अमृता वह जो शांत वहीं खड़ी रहती थी और कहती थी-अमृता ! मेरे पास आओ !अब कह सकती हूं-ज़िंदगी के आने वाले कई ऐसे वक़्तों का वह एक संकेत था-कि एक अमृता जब दुनिया वालों के हाथों परेशान होगी, उस समय उसे अपने पास बुलाकर गले से लगाने वाली भी एक अमृता होगी-जो कहती होगी-अमृता, मेरे पास आओ !
हथियारों के साये
तब-जब पिता थे, मैं देखती कि वे प्राचीन काल के ऋषि इतिहास और सिक्ख इतिहास की नई घटनाएं लिखते रहते, सुनाते रहते। घर पर भी सुनाते थे, और बाहर बड़े-बड़े समागमो में भी लोग उन्हें फूलों के हार पहचानाते थे-उनके पांव छूते थे...उनके पास खुला पैसा कभी नहीं रहा, फिर भी एक बार उन्होंने बहुत-सी रकम खर्च की, और सिक्ख इतिहास की कई घटनाओं के स्लाइड्स बनवाए-जो एक प्रोजक्टर के माध्यम से, दीवार पर लगी बड़ी-सी स्क्रीन पर दिखाते, और साथ-साथ उनकी गाथा-अपनी आवाज़ में कहते, लोग मंत्र-मुग्ध से हो जाते थे...एक बार अजीब घटना हुई। उन्होंने एक गुरुद्वारे की बड़ी-सी दीवार पर एक स्क्रीन लगा कर वे तस्वीरें दिखानी शुरू कीं, आगंन में बहुत बड़ी संगत थी, लोग अकीदत से देख रहे थे, कि उस भीड़ में से दो निहंग हाथों में बर्छे लिए उठ कर खड़े हो गए, और ज़ोर से चिल्लाने लगे-यहां सिनेमा नहीं चलेगा...मैं भी वहीं थी, पिता मुझ छोटी-सी बच्ची को भी साथ ले गए थे। और मैंने देखा-वे चुप के चुप खड़े रह गए थे। एक आदमी उनके साथ रहता था, उस सामान को उठा कर संभालने के लिए, जिसमें प्रोजेक्टर और स्लाइड्स रखने निकालने होते थे...पिताजी ने जल्दी से अपने आदमी से कुछ कहा-और मुझे संभाल कर, मेरा हाथ पकड़ कर, मुझे उस भीड़ में से निकाल कर चल दिए...लोग देख रहे थे, पर खामोश थे। कोई कुछ नहीं कह पा रहा था-सामने हवा में-दो बर्छे चमकते हुए दिखाई दे रहे थे...यह घटना हुई कि मेरे पिता ने खामोशी अख्तियार कर ली। सिक्ख इतिहास को लेकर, जो दूर-दूर जाते थे, और भीगी हुई आवाज़ में कई तरह की कुरबानियों का जिक्र कहते थे, वह सब छोड़ दिया...एक बाद बहुत उदास बैठे थे, मैंने पूछा-क्या वह जगह उनकी थी ? उन लोगों की ?कहने लगे-नहीं मेरी थी। स्थान उसका होता है, जो उसे प्यार करता है...मैं खामोश कुछ सोचती रही, फिर पूछा-आप जिस धर्म की बात करते रहे, क्या वह धर्म उनका नहीं है ?पिता मुस्करा दिए कहने लगे-धर्म मेरा है, कहने को उनका भी है, पर उनका होता तो बर्छे नहीं निकालते...उस वक़्त मैंने कहा था-आपने यह बात उनसे क्यों नहीं कहीं ? पिता कहने लगे-किसी मूर्ख से कुछ कहा-सुना नहीं जा सकता...वह बड़ा और काला बक्सा फिर नहीं खोला गया। उनकी कई बरसों की मेहनत, उस एक संदूक में बंद हो गई-हमेशा के लिए...बाद में-जब हिंदुस्तान की तक्सीम होने लगी, तब वे नहीं थे। कुछ पूछने-कहने को मेरे सामने कोई नहीं था...कई तरह के सवाल आग की लपटों जैसे उठते-क्या यह ज़मीन उनकी नहीं है जो यहां पैदा हुए ? फिर ये हाथों में पकड़े हुए बर्छे किनके लिए हैं ? अखबार रोज़ खबर लाते थे कि आज इतने लोग यहां मारे गए, आज इतने वहां मारे गए...पर गांव कस्बे शहर में लोग टूटती हुई सांसों में हथियारों के साये में जी रहे थे...बहुत पहले की एक घटना याद आती, जब मां थी, और जब कभी मां के साथ उनके गांव में जाना होता, स्टेशनों पर आवाज़ें आती थीं-हिंदू पानी, मुसलमान पानी, और मैं मां से पूछती थी-क्या पानी भी हिन्दू मुसलमान होता है ?-तो मां इतना ही कह पाती-यहां होता है, पता नहीं क्या क्या होता है...फिर जब लाहौर में, रात को दूर-पास के घरों में आग की लपटें निकलती हुई दिखाई देने लगीं, और वह चीखें सुनाई देतीं जो दिन के समय लंबे कर्फ्यू में दब जाती थीं...पर अखबारों में से सुनाई देती थीं-तब लाहौर छोड़ना पड़ा था...थोड़े दिन के लिए देहरादून में पनाह ली थी-जहां अखबारों की सुर्खियों से भी जाने कहां-कहां से उठी हुई चीखें सुनाई देतीं...रोज़ी-रोटी की तलाश में दिल्ली जाना हुआ-तो देखा-बेघर लोग वीरान से चेहरे लिए-उस ज़मीन की ओर देख रहे होते, जहां उन्हें पनाहगीर कहा जाने लगा था... अपने वतन में-बेवतन हुए लोग....चलती हुई गाड़ी से भी बाहर के अंधेरे में मिट्टी के टीले इस तरह दिखाई देते-जैसे अंधेरे का विलाप हो ! उस समय वारिस शाह का कलाम मेरे सामने आया, जिसने हीर की लंबी दास्तान लिखी थी-जो लोग घर-घर में गाते थे।
तब अजीब वक्त सामने आया-यह नज़्म जगह-जगह गाई जाने लगी। लोग रोते और गाते। पर साथ ही कुछ लोग थे, जो अखबारों में मेरे लिए गालियां बरसाने लगे, कि मैंने एक मुसलमान वारिस शाह से मुखातिब होकर यह सब क्यों लिखा ? सिक्ख तबके के लोग कहते कि गुरु नानक से मुखातिब होना चाहिए था। और कम्युनिस्ट लोग कहते कि गुरु नानक से नहीं-लेनिन से मुखातिब होना चाहिए था...यह सब होता रहा-पर नज़्में-मुझ पर जैसे बादलों सी घिरतीं और बरस जातीं-उस वक्त पंजाब की कहानी लगी
उन दिनों जनरल शाह नवाज़ अगवा हुई लड़कियों को तलाश रहे थे, उनके लोग, जगह-जगह से टूटी बिलखती लड़कियों को ला रहे थे-और पूरा-पूरा दिन-ये रिपोर्ट उन्हें मिलती रहतीं। मैंने कुछ एक बार उनके पास बैठ कर बहुत सी वारदातें सुनीं। ज़ाहिर है कि कई लड़कियां गर्भवती हालात में होती थीं...उस लड़की का दर्द कौन जान सकता है-जिसके दिल की जवानी को ज़बर से मां बना दिया जाता है....एक नज़्म लिखी थी-मज़दूर ! उस बच्चे की ओर से-जिसके जन्म पर किसी भी आंख में उसके लिए ममता नहीं होती, रोती हुई मां और गुमशुदा बाप उसे विरासत में मिलते हैं...
मेरी मां की कोख मजबूर थी-मैं भी तो एक इन्सान हूंआजादियों की टक्कर मेंउस चोट का निशान हूंउस हादसे का ज़ख्म जो मां के माथे पर लगना थाऔर मां की कोख को मजबूर होना था...मैं एक धिक्कार हूं-जो इन्सान की जात पर पड़ रही..और पैदाइश हूं-उस वक्त कीजब सूरज चांद-आकाश के हाथों छूट रहे थेऔर एक-एक करके सब सितारे टूट रहे थे...मैं मां के ज़ख्म का निशान हूंमैं मां के माथे का दाग हूंमां-एक जुल्म को कोख में उठाती रहीऔर उसे अपनी कोख सेएक सड़ांध आती रहीकौन जान सकता हैएक जुल्म को, पेट में उठाना हाड़-मांस को जलानापेट में जुल्म का फल रोज-रोज़ बढ़ता रहा...और कहते हैं-आज़ादी के पेड़ को-एक बौर पड़ता रहा...मेरी मां की कोख मजबूर थी
क्रमशः
प्रस्तुति : इरशाद

रविश कुमार के 600 दोस्त क्यों हैं?

जब हिन्दी ब्लॉगिंग शुरू की थी, तो बहुत सारे ब्लॉग पढ़ता था, जब इस पर पुस्तक लिखी तब उन सबका विवेचन भी करना पड़ा। ये तब की बात है जब हजार एक्टिव ब्लॉगर मुश्किल से मिल पा रहे थे। ब्लॉगिंग में ऐसे-ऐसे लोग पैदा हुए जिन्होने अपने दम पर, अपने लेखन के दम पर। अपनी पहचान को कायम किया। मैंने सिर्फ इन बेहतरीन लिखने वालों से प्रेरित होकर इन्ही के बारे में लिखना आरम्भ किया। जो अभी तक जारी हैं। आज भी जब देखता हुं अनुप जी, समीरभाई, रवि रतलामी, संजय बैंगाणी, अविनाश, नीलीमा, प्रत्यक्षा, घूघुती-बासुती और बहुत सारे नाम जिनके बिना हिन्दी ब्लॉगिंग की बातें ही अधूरी है। ये सब अपने अलग से लेखन की वजह से पहचाने गए। आज और भी नए लिखने वाले आ गए है जो सिद्ध कर रहे है कि वो भी अलग सा लिख कर हिन्दी ब्लॉगिंग की लोकप्रियता को बढ़ाकर अपनी पहचान को भी कायम करेगें।
मैं हमेशा ही ऐसा अलग सा लिखने वालों पर अलग सी टिप्पणी करने से भी नही चूकता, क्योकि ये बताना बेहद जरूरी है कि आप अलग लिख ही नही रहे बल्कि हिन्दी ब्लॉगिंग की लोकप्रियता में एक बड़ा योगदान दे रहे हैं। ब्लॉगिंग में अगर अच्छा लिखा जा रहा है तो खराब भी लिखा जा रहा है, वैसे इसको खराब कहना उचित ना होगा, क्योंकि ब्लागर अपनी समझ के हिसाब से बढ़िया ही लिखता है, लेकिन जब वह लिखने की हिंसात्मक प्रवृति पर उतारू हो जाता है तब उसका क्या किया जाए। वह घन्टे दो घन्टे में नयी-नयी पोस्टे देने लगता है। ऐसे ब्लॉगर ही 6 से 600 और 600 से 6000 हो जाते हैं। इन सब का पता आपको रविश कुमार के फेसबुक एकाउंट से चल सकता हैं। अब बात करते है रविश भाई साहब की।
रविश मेरे पसन्दीदा ब्लागरों में से है। कस्बा ने हिन्दी ब्लॉगिंग में अपनी एक खास जगह को बना लिया है। इसकी वजह शायद ये है कि वो काले को काला और सफेद को सफेद कहने से कभी नही कतराते, ये शायद अविनाश से उन्होने सीखा हो, इसलिये इन पर अल्पसंख्यों का हिमायती होने का आरोप भी लगता रहा है, लेकिन इन सब से परे रविश अपना बेहतरीन लिखने से पीछे नही हटते हैं। आज हम सबको रविश को मुबारकबाद देनी चाहिये, क्योंकि रविश के फेसबुक एकाउंट में 630 दोस्त बन गए है, ये 630 लोग कौन है, और ये रविश से क्या चाहते है। रविश इन 630 लोगों का मतलब समझते है लेकिन अंजान बने रहते है, क्योकि इसमें एक सुख है, और रविश इस सुख का मजा लेते है। ये मजा ऐसा ही है जैसे कोई घमण्डी जमीदार अपनी गरीब-गुरबा जनता के बीच उनके फैसले सुलझा रहा हो, कोई अन्नदाता, माईबाप लोगों को उनकी जीविका बांट रहा हो। तो रविश के पास ऐसा क्या है कि 630 लोग दौड़े-दौड़े अपना मित्रता निमंत्रण पत्र उठाये हुजूर के दरबार में पेश हुए जाते हो, और कहते हो- माईबाप ज्यादा तो कुछ ना बन पड़ा बस यही एक मित्रता प्रस्ताव है, स्वीकार कर लिजे, और राजा अपनी दयालूता का परिचय देता है, और सबको अपने फेसबुक एकाउंट में जगह देता हैं। मुनादी कर दी जाती है अब 600 लोग हमारे सखा हो गए हैं। दरबार लम्बा-चैड़ा है, ये 600 गरिब-गुरबा लोग आखिर अपने दयालू राजा से क्या चाहते हैं। दो बातें हैं जो राजा इनकी पूरी कर सकता हैं। पहली, वे चिल्ला-चिल्ला कर सबको बता सके- अरे एनडीटीवी वाला रविश अपना दोस्त हैं, अरे वही जो खबरे पढ़ता है- अपना पुराना यार हैं। दूसरी, रविश भाई मैं भी बहुत बढ़िया ब्लाग लिखता हूं, और आपका दोस्त भी हूं, मेरा जिक्र भी अपने कालम में करो ना।
अच्छा एक बात- क्या मुझे इन 600 लोगों ने आकर बताया कि वो रविश से क्या चाहते है या मुझे ऐसे सपने आते है। नहीं ये बात नही है। आज की तारीख में फेसबुक से ज्यादा चलने वाला आर्कुट साइट देखिये। रविश वहां भी है लेकिन वहां भाई के केवल 17 मित्र है, वहां मैत्री प्रस्ताव स्वीकारे नहीं जाते है। ये भेदभाव क्यों है, नही पता चला। वैसे ये ऐसा ही है जैसे कोई नेता उसी इलाके से खड़ा हो जहां से उसे जीतने की प्रबल सम्भावना दिखाये दें। ये तो पुछिये ही नही यहां रविश की चापलूसी करने वाले कितने स्क्रेप आपको दिखाये देगें। बस कुछ भी हो, अन्नदाता हमें पढ़ लो, बस एक बार पढ़ लो तो ये जीवन सफल हो जाए।
मेरी इस पोस्ट को जितने लोग पढ़ रहे है क्या उन्होने कभी रविश की किसी पोस्ट पर टिप्पणी की है?, क्या रविश ने आपकी किसी पोस्ट पर कभी टिप्पणी की है?, क्या आपने किसी और के ब्लॉग पर रविश की टिप्पणी देखी हैं? अरे ये कैसा राजा है जो सिर्फ लेना जानता हैं, किसी को देना नही। क्या इसको एक तरफा ब्लॉगिंग करना कहते है, ब्लॉगिंग में अगर प्रतियोगिताए आयोजित की गयी, तो उनमें एक प्रतियोगिता ये भी होनी चाहिये- तलाश किजिये रविश ने किस ब्लॉग पर और कब टिप्पणी की है, और जीतिये दो लोगों के लिये तीन दिन का फ्री सिंगापुर टूर। लोग कहेगें भले ही इनाम में एक बाॅल पैन दे दो, लेकिन प्रतियोगिता तो आसान करो।
खैर रविश हमेशा की तरह से मेरे प्रिय बने रहेगें। इस बात से रविश के लेखन का कोई मतलब नहीं है, मेरी ही तरह के सैंकड़ो ब्लॉगर उनको अपने पहले पेज पर लगाते हैं। वो हमेशा की तरह शानदार लिखते रहेगें। हिन्दी ब्लॉगिंग में गजब की अदबनवाजी है, आप जरा सी किसी को कोई टिप्पणी दो, वो तुरन्त आपको शुक्रिया का सन्देश भेज देता है, और अगर आप किसी को पंसन्द कर रहे हो, लगातार उसको बताते भी हो, अच्छे-बुरे विचारों में उसको भागीदार बनाते हो और वो इतनी बेरूखी दिखाये, तो ये खालीपन सालता हैं।

अब्बा, शबाना आज़मी

वो कभी दूसरों जैसे थे ही नहीं, लेकिन बचपन में ये बात मेरे नन्हें से दिमाग में समाती ही नहीं थी..... न तो वे आफ़िस जाते थे, न अंग्रेज़ी बोलते थे और दूसरों के डैडी और पापा की तरह पैन्ट पहनते थे- सिर्फ सफ़ेद कुर्ता-पाजामा वो ‘डैडी’ या ‘पापा’ के बजाय ‘अब्बा’ थे-ये नाम भी सबसे अलग ही था-मैं स्कूल में अपने दोस्तों से उनके बारे में बात करते कुछ कतराती ही थी-झूट-मूट कह देती थी कि वो कुछ ‘बिज़नेस’ करते हैं- वर्ना सोचिए, क्या यह कहती कि मेरे अब्बा शायर हैं ? शायर होने का क्या मतलब ? यही न कि कुछ काम नहीं करते !

बचपन में मुझे अपने माँ-बाप की बेटी होने की वजह से कुछ अनोखे तजुर्बें भी हुए, जैसे कि जिस अंग्रेज़ी स्कूल में मेरा दाखिला कराया जा रहा था, वहां शर्त थी कि वही बच्चें दाखिला पा सकते हैं जिनके माँ-बाप को अंग्रेजी आती हो-क्योंकि मेरे माँ-बाप अंग्रेज़ी नहीं जानते थे इसलिए मेरे दाखिले के लिए मशहूर शायर सरदार जाफ़री की बीवी सुल्ताना जाफ़री मेरी माँ बनीं और अब्बा के दोस्त मुनीश नारायण सक्सेना ने मेरे अब्बा का रोल किया। दाखिला तो मिल गया मगर कई बरस बाद मेरी वाइस प्रिन्सिपल ने मुझे बुलाकर कहा कि कल रात उन्होंने एक मुशायरे में मेरे अब्बा को देखा और वो उन अब्बा से बिल्कुल अलग थे जो ‘पेरेन्ट्स डे’ पर स्कूल आते हैं। एक पल तो मेरे पैरों तले ज़मीन निकल गई, फिर मैंने जल्दी से कहानी गढ़ी कि पिछले दिनों टयफ़ॉइड होने की वजह से अब्बा इतने दुबले हो गए हैं कि पहचाने नहीं जाते-बेचारी वाइस प्रेन्सिपल मान गई और मैं बाल-बाल बच गई।

अब्बा को छुपाकर रखना ज्यादा दिन मुमकिन न रहा। उन्होंने फिल्मों में गीत लिखना शुरू कर दिए थे और एक दिन मेरी एक दोस्त ने क्लास में आकर बताया कि उसने मेरे अब्बा का नाम अखबार में पढ़ा है। बस, उस पल के बाद बाज़ी पलट गई-जहाँ शर्मिंदगी थी, वहाँ गौरव आ गया। चालीस बच्चे थे क्लास में मगर किसी और के पापा का नहीं, मेरे अब्बा का नाम छपा था अखबार में। अब मुझे उनका सबसे अलग तरह का होना भी अच्छा लगने लगा। वो सबकी तरह पैन्ट-शर्ट नहीं, सफेद कुर्ता-पाजामा पहनते हैं-जी ! अब मैं उस काले रंग की गुड़िया से भी खेलने लगी थी जो उन्होंने मुझे कभी लाकर दी थी और समझाया था कि सारे रंगों की तरह काला रंग भी बहुत सुन्दर होता है। मगर मुझे तो सात बरस की उम्र में वैसी ही गुड़िया चाहिए थी जैसी मेरी सारी दोस्तों के पास थी-सुनहरे बालों और नीली आँखों वाली। मगर अब जब कि मुझे सबसे अलग अब्बा अच्छे लगने लगे तो फिर उनकी दी हुई सबसे अलग गुड़िया भी अच्छी लगने लगी और जब मैं अपनी काली गुड़िया लेकर आत्मविश्वास के साथ अपनी दोस्तों के पास गई और उन्हें अपनी गुड़िया के गुण बताए तो उनकी सुनहरे बालों और नीली आँखों वाली गुड़िया उनके दिल से उतर गई। ये सबसे पहला सबक था जो अब्बा ने मुझे सिखाया, कि कामयाबी दूसरों की नक़्ल में नहीं, आत्मविश्वास में है।

हमारे घर का माहौल बिल्कुल ‘बोहिमियन’ था। नौं बरस की उम्र तक मैं अपने माँ-बाप के साथ कम्युनिस्ट पार्टी के ‘रेड फ्लैग हॉल’ में रहती थी। हर कामरेड परिवार को एक कमरा दिया गया था। बाथरूम वगैरह तो कॉमन था। पार्टी मैम्बर होने के नाते से पति-पत्नी की जिन्गदी आम ढर्रे से जरा हट के थी। ज्यादातर पत्नियाँ वर्किंग वुमैन थीं- बच्चों को सम्भालना कभी माँ की जिम्मेदारी होती, कभी बाप की। मम्मी पृथ्वी थियेटर्स में काम करती थीं और और अक्सर उन्हें टूर पर जाना होता था-तो उन दिनों मेरे छोटे भाई बाबा और मेरी सारी ज़िम्मेदारी अब्बा पर आ जाती थी।

मम्मी ने काम शुरू तो आर्थिक जरूरतों के लिए किया था क्योंकि अब्बा जो कमाते थे वो पार्टी को दे देते थे। पार्टी उन्हें महीने का चालीस रुपए ‘अलाउन्स’ देती थी। चालीस रुपए और चार लोगों का परिवार ! बाद में हमारे हालात थोड़े बेहतर हो गए। फिर हम लोग जानकी कुटीर में रहने आ गए मगर मम्मी ने थियटर में काम जारी रखा। उनकी थियटर में बहुत प्रशंसा होती थी और उन्हें भी अपने काम से बहुत प्यार था। मुझे याद है, महाराष्ट्र स्टेट प्रतियोगिता के लिए वो एक ड्रामा ‘पगली’ की तैयारी कर रही थीं और अपने रोल में इतना खोई रहती थी कि वो डॉयलॉग ‘पगली’ के अन्दाज़ में बोलने लगती थीं, कभी धोबी से हिसाब लेते हुए कभी सरोई में खाना पकाते हुए। मुझे लगा मेरी माँ सचमुच पागल हो गई हैं मैं रोते हुए अब्बा के पास गई जो अपनी मेज़ पर बैठे कुछ लिख रहे थे। अपना काम छोड़कर वे मुझे समुन्दर के किनारे ले गए। रेत पर चलते-चलते उन्होंने मुझे समझाया कि मम्मी को कितने कम वक़्त में कितने बड़े ड्रामे की तैयारी करनी पड़ रही है और हम सबका, परिवार के हर सदस्य का, ये कर्तव्य है कि वो उनकी मदद करे, वर्ना वो इतनी बड़ी प्रतिय़ोगिता में कैसे जीत पाएँगी ! बस, फिर क्या था-मैंने जैसे सारी जिम्मेदारी जैसे अपने सिर ले ली और जब मम्मी को ‘बेस्ट एकट्रैस’ का अवार्ड मिला महाराष्ट्र सरकार से, तो मैं ऐसे इतरा रही थी जैसे एवार्ड मम्मी ने नहीं, मैने जीता हो। मम्मी को डॉयलॉग्स याद कराने की जिम्मेदारी अब्बा ने अपनी समझी है- आज भी अगर मम्मी किसी ड्रामे या फिल्म में काम करे तो अब्बा पूरी जिम्मेदारी से बैठ के उन्हें याद करने के लिए डॉयलॉग्य के ‘क्यूज़’ देते हैं।

मेरी माँ भी अब्बा की जिन्दगी में पूरी तरह हिस्सा लेती रहीं हैं। शादी से पहले उन्हें अब्बा पसन्द तो इसलिए आए थे कि वो एक शायर थे लेकिन शादी के बाद उन्होंने बहुत जल्दी ये जान लिया कि कैफ़ी साहब जैसे शाय़रों को बीवी के अलावा भी अनगिनत लोग चाहते हैं। ऐसे शायर पर उनके घरवालों के अलावा दूसरों का भी हक होता है (और हक़ ज़ताने वालों में अच्छी ख़ासी तादात ख़वातीन की होती है)। याद आता है, मैं शायद दस या ग्यारह बरस की होऊँगी अब हमें एक बड़े इन्डस्ट्रियलिस्ट के घर दावत दी गई थी। उन साहब की खूबसूरत बीवी, जिसका उस जमाने की सोसाइटी में बडा़ नाम था, इतरा के कहने लगीं-‘कैफ़ी साहब, मेरी फरमाइश है वहीं नज़्म ‘दो निगाहों का,...समथिंग समथिंग।’ फिर दूसरों की तरफ देखकर फरमाने लगीं-‘पता है दोस्तों, ये नज़्में कैफ़ी साहब ने मेरी तारीफ़ में लिखी है’- और अब्बा बगैर पलक झपकाए बड़े आराम से वो नज़्में सुनाने लगे, जो मुझ अच्छी तरह पता था कि उन्होंने मेरी मम्मी के लिए लिखी थी और मैं अपनी माँ कि तरफदारी में आगबबूला होकर चिल्लाने लगी-‘ये झूठ है। ये नज़्में तो अब्बा मम्मी के लिए लिखी है, उस औरत के लिए थोड़ी।’ महफिल में एक पल तो सन्नाटा-सा छा गया। लोग जैसे अपनी बगले झाँकने लगे। फिर मम्मी ने मुझे डाट के चुप कराया। सोचती हूँ ये डाट दिखावे की ही रही होगी, दिल में तो उनके लड्डू फूट रहे होंगे। बाद में मम्मी ने मुझे समझाया भी कि शायरों का अपना चाहने वालों से एक रिश्ता होता है। अगर वो बेचारी समझ रही थी कि वो नज़्म उसके लिए लिखी गई तो समझने दो, कोई आसमान थोड़े टूट पड़ेगा। ख़ैर, अब उस बात को बहुत बरस हो गए लेकिन हाँ, कैफ़ी साहब ये नज़्म उन मेमसाहब को दोबारा नहीं सुना सके और वो मैडम आज तक मुझसे ख़फ़ा हैं।

अब्बा की महिला दोस्तों में जो मुझे सबसे ज्यादा अच्छी लगती थीं, वो थी बेगम अख़्तर। वो कभी-कभी हमारे घर पर ठहरती थीं। वैसे तो जोश मलीहाबादी, रघुपति सहाय ‘फ़िराक़’ और फैज़’ भी हमारे यहाँ मेहमान रहे हैं, जबकि हमारे घर में न तो कोई अलग कमरा था मेहमानों के लिए न ही अटैच्ड बाथरूम मगर ऐसे फनकारों को अपने आराम-वाराम की परवाह कहाँ होती है ! उनके लिए दोस्ती और मोहब्बत पाँच-सितारा होटल से भी बड़ी चीज होती हैं। उन लोगों के आने पर जो महफ़िले सजा करती थीं, उनका अपना एक जादू होता था और उनकी बातें मनमोहनी हालाँकि मेरी समझ में कुछ ज्यादा नहीं आती थीं, मगर वो शब्द कानों को संगीत जैसे लगते थे। मैं हैरान उन्हें देखती थी, सुनती थी, और वो नदियों की तरह बहती हुई बातें, गिलासों की झंकार, वो सिगरेट के धुँए से धुँधलाता कमरा....। कभी अब्बा ने मुझसे नहीं कहा, ‘जाओ, बहुत देर हो गई है, सो जाओ’ या ‘बड़ों की बातों में क्यों बैठी हो ।’ हाँ, मुझे इतना वादा जरूर करना पड़ता था अगले दिन सुबह-सुबह स्कूल जाने की ज़िम्मेदारी मेरी है मुझे हमेशा से यकीन दिलाया जाता जाता रहा है कि मैं समझदार हूँ अपने फैसले खुद कर सकती हूँ।

फिर मैं मुशायरों में भी जाने लगी। साहिर साहब बहुत लोकप्रिय थे, सरदार ज़ाफरी का बड़ा सम्मान था, मगर कैफ़ी आज़मी की एक अलग बात थी। वो मुशायरे के बिल्कुल आखिर में पढ़ने वाले चन्द शायरों में से एक थे। उनकी गूँजती हुए गहरी आवाज़ में एक अजीब शक्ति, एक अजीब जोश, एक अजीब आकर्षण था। मेरा छोटा भाई बाबा और मैं दोनों आम तौर से मुशायरों के स्टेज पर गावतकियों के पीछे सो चुके होते थे और फिर तालियों की गूँज में आँख खुलती जब कैफ़ी साहब का नाम पुकारा जा होता था। अब्बा के चेहरे पर लापरवाही-सी रहती। मैंने उन्हें कभी न उन तालियों में हैरान होते देखा, न ही बहुत खुश होते। मम्मी की तो हमेशा शिकायत रही कि मुशायरे में आकर ये नहीं बताते कि मुशायरा कैसा रहा, बहुत कुरेदिए तो इतना जावाब मिल जाता था-‘ठीक था’, इससे ज्यादा कुछ नहीं।

मैं शायद सत्तरह-अठ्ठारह साल की थी। वो एक मुशायरे से वापस आए और मैं बस पीछे ही पड़ गई ये पूछने के लिए कि उन्होंने कौन सी नज़्म सुनाई और लोगों को कैसी लगी। मम्मी ने धीरे से कहा कि ‘कोई फायदा नहीं पूछने का’-मगर मुझे जिद हो गई थी कि जवाब लेकर रहूँगी। अब्बा ने मुझे अपने पास बिठाया और कहा, ‘छिछोरे लोग अपनी तारीफ़ करते हैं, जिस दिन मुशायरे में बुरा पढूँगा, उस दिन आकर बताऊँगा।’ उन्होंने कभी अपने काम की नुमाइश नहीं की। गाना रिकार्ड होता तो कभी उसका कैसेट घर नहीं लाते थे। आज के गीतकार तो अक्सर अपने गीत ज़बरदस्ती सुनाते भी हैं और ज़बरदास्ती दाद भी वसूल करते हैं। लेकिन अब्बा कभी क़लम कागज़ पर नहीं रखते जब तक कि ‘डेडलाइन’ सर पर न आ जाए, और फिर फ़िजूल कामों में अपने को उलझा लेते जैसे कि अपनी मेज़ की सभी दराज़ें साफ करना, कई ख़त जो यूँ ही पड़े थे उनका जवाब देना-मतलब ये कि जो लिखना है उसके है उसके अलावा और सब कुछ।

मगर शायद ये सब करते हुए कहीं उनकी सोच कि जो लिखना है उसे भी चुपके-चुपके लफ़्जों के साँचे में ढालती रहती है। फिर जब लिखना शुरू किया तो भले घर में रेडियो बज रहा हो, बच्चे शो मचा रहे हों, घर के लोग ताश खेल रहे हों, हंगामा हो रहा हो-कोई फ़र्क नहीं पड़ता। कभी ऐसा नहीं हुआ कि घर पर खामोशी का हुक्म हो गया कि हाँ काम कर रहे हैं। लिखते वक्त उनकी ‘स्टडी’ का दरवाज़ा भी खुला रहता है, यानी उस पल में भी दुनिया से रिश्ता कम नहीं होने देते। एक बार मैंने उनकी मेज़ कमरे के दूसरे कोने में रखनी चाही कि यहाँ उन्हें बाहर के शोर, दूसरों की आवाज़ों से कुछ तो छुटकारा मिलेगा। मम्मी ने कहा, ‘बेकार है, कैफ़ी अपनी मेज़ फिर यहीं दरवाज़े के पास ले आएँगे’-और ऐसा ही हुआ।

वो लिखते सिर्फ ‘माउन्ड ब्लान्क’ क़लम से हैं। उस कम्पनी के न जाने कितने कलम उनके पास हैं। ये उनका कुल ख़ज़ाना है जिसे अक्सर निकालकर निहायत मोहब्बत भरी निगाह से देखते और फिर सारे ‘माउन्ड ब्लान्क’ दिया, वो भी जब्त करके ख़ज़ाने में दाखिल कर लिया गया जबकि ठीक ऐसे तीन पेन पहले से ख़ज़ाने में मौजूद थे। अब्बा ने मेरी दोस्त को एक प्यारा सा खत लिखकर अच्छी तरह समझा दिया कि उसका भेजा हुआ पेन मेरे बजाए अब्बा के पास कहीं ज्यादा सुरक्षित रहेगा। ये न जाने कितने वर्षों से हो रहा है कि अब्बा मुझे पहली अप्रैल को किसी न किसी तरह ‘अप्रैल फ़ूल’ बना देते हैं। हर साल मैं मार्च के महीने से ही अपने आप से कहना शुरू कर देती कि इस बार मुझे किसी झाँसे में नहीं आना है, मगर क्या मेरी क़िस्मत है कि किसी न किसी वजह से ठीक पहली अप्रैल को ये बात मेरे ख़्याल से निकल जाती है और किसी न किसी तरह वो मुझे एक बार फिर ‘अप्रैल फूल’ बना देते हैं। कम लोग ये जानते हैं कि अब्बा में बहुत जबरदस्त’ सेन्स ऑफ ह्यूमर’ भी है। लोगों की नक़लें भी उतार लेते हैं। घर में घरवालों के बारे में जो चुटकुले बनते हैं, उनको बार-बार सुनते हैं और बार-बार हँसते-हँसते उनकी आँखों से आँसू बहने लगते हैं, खास तौर पर जब मम्मी पूरी एक्टिग के साथ ये किस्से दोहरती हैं। तो मानना मुश्किल होगा कि उनका एक रूप ऐसा भी है।

एक दिन मुझे उनकी आँखों में दवा डालनी थी, मगर कैसे डालती, एक तो उनकी आँखें वैसे छोटी हैं, फिर जैसे ही मैं दवा डालना चाहूँ, पलकें इतनी ज़्यादा झपकाते हैं कि कभी नाक में चली जाए, कभी कान के पास। मैं फिर भी कोशिश में थी कि उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर मुझे रोका और एक कहानी सुनाई-‘एक था राजकुमार जिसका बाप यानि की राजा बहुत परेशान था कि बेटा कोई भी काम नहीं कर पाता। राजा के पास एक गुरू आया और उसने कहा कि वो राजकुमार को तीर चलाने का हुनर सिखाएगा। छः महीने बाद जब उसने अपना कमाल दिखाने की कोशिश की तो तीर महल के चारों ओर जा रहे थे, सिवाय उस तख़्त के जहाँ राजकुमार को निशाना लगाना था। राजा और गुरू के लिए उन तीरों से बचना मुश्किल हो रहा था। राजा ने पूछा, गुरू जी राजकुमार के इन उल्टे-सीधे तीरों से कैसे बचा जाए गुरू ने कहा महाराज, आइए, उस निशाने वाले तख्त के सामने खड़े हो जाते हैं- लगता है, वहीं एक जगह है जहाँ अपने राजकुमार के तीर कभी नहीं आएँगे।’ इससे पहले कि मैं कुछ कहती, अब्बा ने कहा-‘ऐसा करो तुम दवा मेरे कान में डालने की कोशिश करो, आँख में ख़ुद-ब-खु़द चली जाएगी।’

अब्बा को अच्छे खाने का बेहद शौक है और उन्हें पूरा यक़ीन है कि अच्छा खाना सिर्फ यू।पी. का होता है। शादी के बावन बरस हो गए मगर मम्मी उन्हें हैदराबादी खाना नहीं खिला सकीं। घर में जब हैदराबाद की खट्टी दाल बनती है तो अब्बा के लिए अलग यू.पी. दाल होती है। टेबल पर खाना अपनी प्लेट में खु़द नहीं निकालेंगे, न आपकों बताएँगे कि उन्हें क्या चाहिए। मम्मी को बस पता नहीं कैसे पता चल जाता है कि उन्हें प्लेट में क्या चाहिए और कितना। जब मैं उनकी इस दादागिरी के खिलाफ़ कुछ कहने की कोशिश करती हूँ तो वो बताती हैं कि उन्हें अब्बा की अम्मी यानी मेरी दादी ने कहा था कि कैफ़ी को हमेशा तुम खुद ही प्लेट में खाना निकालकर देना, नहीं तो भूखे ही टेबल से उठ जाएँगे। सास की नसीहत को बहू ने आज तक याद रखा है। अब्बा सिर्फ़ उस वक़्त खाने की मेज़ पर ये कहते है कि उन्हें और चाहिए जब मैंने कुछ अपने हाथ से पकाया हो। खाना पकाने का फ़न आज तक मुझमें नहीं आया है। घर के बाकी लोग जहाँ तक हो सके मेरे बनाए पकवान से बच निकलने की कोशिश करते हैं, मगर अब्बा ऐसे मज़े से खाते हैं जैसे अवध के किसी शाही दस्तरख़्वान का बेहतरीन खाना हो। सच कहूँ तो उनका ये लाड़ हर बार मेरे दिल को अच्छा ही लगता है।

अब्बा और जावेद में बहुत सी बाते एक जैसी हैं। दोनों को तमीज़-तहज़ीब का बहुत ख़्याल रहता है। दोनों बहुत तकल्लुफ़पसन्द हैं, दोनों को घटिया बात और ख़राब शायरी बर्दाश्त नहीं है। दोनों को राजनीति से गहरी दिलचस्पी है और उसकी समझ है। एक ज़माना था मैं अपने आपको जानबूझ कर राजनीति की बातों से दूर रखती थी, यहाँ तक की अख़बार भी नहीं पढ़ती थी। शायद ये एक रियक्शन था क्योंकि दिन भर घर में यही बातें होती रहती थीं, मगर जब जावेद से मेरी दोस्ती बढ़ी और मैंने अब्बा और जावेद की आपस में राजनीति पर घण्टों बातें सुनीं तो धीरे-धीरे मेरा ध्यान भी उन बातों में लगने लगा ये बात अजीब है मगर सच है कि मैंने जैसे-जैसे जावेद को जान रही थी, वैसे-वैसे अब्बा को जैसे दोबारा पहचान रही थी। उर्दू शायरी से दिलचस्पी, राजनीति के बारे में एक खास तरह की सोच-जो भी मुझे जावेद से मिल रहा था वो एक बार फिर मुझे अपनी उन्हीं जड़ों की तरफ ले जा रहा था जो मेरा और मेरे अब्बा का मज़बूत रिश्ता थीं।

जब जावेद और मैं एक दूसरे के पास आ रहे थे, मेरी माँ इस बात से बिल्कुल खुश नहीं थीं क्योंकि जावेद शादीशुदा थे। मेरे दूसरे दोस्तों और घरवालों का भी यही कहना था कि इसका अंजाम सिवाय दुख के और कुछ नहीं हो सकता। एक दिन मैंने धड़कते दिल के साथ अब्बा से पूछ लिया कि क्या आप भी समझते हैं कि जावेद मेरे लिए सही इनसान नहीं हैं।’’ उन्होंने कहा-‘‘जावेद तो सही हैं लेकिन उनके हालात सही नहीं हैं।’’ मैंने कहा, ‘‘उनके हालात तो बदल जाएँगे। आप विश्वास कीजिए कि जब मेरा जावेद की ज़िन्दगी में गुज़र नहीं था-उनकी शादी तब भी टूटने ही वाली थी।’’ उन्होंने मेरी बात पर यक़ीन कर लिया और खामोशी से मेरे फ़ैसले को मान लिया। कभी-कभी सोचती हूँ, अगर उन्होंने मुझे सख़्ती से मना कर दिया होता तो मैं क्या करती-क्या मुझमें हिम्मत होती कि उनके ख़िलाफ जाऊँ ? बात ये नहीं कि मैं उनसे डरती हूँ, बात ये है कि मुझे यक़ीन है कि वो जो कुछ कहते हैं, बहुत सोच समझ कर कहते हैं। उनकी राय पूरी इमानदारी और समझ की होती है।

मैंने जब इस दुनिया में आँखे खोलीं तो जो पहला रंग मैंने देखा वो था-लाल ! मैं बचपन में अपने माँ-बाप के साथ ‘रेड फ़्लैग हॉल’ में रहती थी, जहाँ बाहर के दरवाज़े पर ही एक बड़ा-सा लाल झण्डा लहराता रहता था। जरा सी बड़ी हुई तो बताया गया कि लाल रंग मज़दूरों का रंग है। मेरा बचपन या तो अपनी माँ के साथ पृथ्वी थियेटर के ग्रुप के साथ अलग-अलग शहरों के सफ़र में गुज़रा या अपने बाप के साथ ऐसे जलसों में-मदनपुरा बम्बई की एक बस्ती है यहाँ मैं अब्बा के साथ ऐसे जलसों में जाती थी। हर तरफ लाल झण्डे, गूँजते हुए नारे और अन्याय के खिलाफ शायरी और फिर गूँजता हुआ-इन्क़लाब ज़िन्दाबाद। बचपन में मुझे अब्बा के साथ मज़दूरों के ऐसे जलसों में जाना इसलिए भी अच्छा लगता था कि मज़दूर कै़फ़ी साहब की बच्ची को खूब लाड़ करते थे। अब सोचती हूँ तो अजीब लगता है। आज मैं जब किसी जुलूस या प्रदर्शन या पदयात्रा या भूख हड़ताल में होती हूँ, यहीं सोचती हूँ, यही सब तो मैंने अपने बचपन में देखा था। पेड़ कितना भी उगे, अपनी जड़ों से अलग थोड़े ही हो सकता है ! कुछ बरस पहले मैं बम्बई के झुग्गी-झोपड़ी वालों के हक़ के लिए एक भूख हड़ताल में बैठी थी-चौथा दिन था, मेरा ब्लड प्रैशर काफ़ी कम हो गया था लेकिन लगता था, न सरकार हमारी बात मानेगी न हम भूख हड़ताल तोड़ेगे। मम्मी बहुत परेशान थीं अगर अब्बा ने जो उस वक्त पटना में थे, मुझे टेलीग्राम भेजा-‘बेस्ट ऑफ लक, कॉमरेड।’

मैं देहली से मेरठ तक एक सांप्रदायिकता-विरोधी पदयात्रा पर जानेवाली थी। जाने से पहले घरवालों से मिलने आई। मुझे लोगों ने डराया था कि यू।पी. की सड़कों पर फिल्म एक्ट्रेस ऐसे निकले तो लोग कपड़े तक फाड़ सकते हैं। पत्थर चल जायें, कुछ भी हो सकता है मेरे दिल में कहीं कोई घबराहट थी और वहीं फ़िक्र और घबराहट मुझे अपने परिवार के चेहरों पर भी दिखाई दे रही थी। मम्मी, मेरा भाई बाबा, उनकी बीवी तन्वी और जावेद सभी मौजूद थे, लेकिन कोई कुछ कह नहीं रहा था। मैं अब्बा के कमरे में गई। मैंने पीछे से उनके गले में बाँहे डाल दीं। उन्होंने मुझे गले से लगा लिया, फिर मेरे चेहरे को अपने हाथों में लेकर गौर से देखा और कहा, ‘‘क्या बहादुर बेटी डर रही है ? जाओ, तुम्हें कुछ नहीं होगा।’’ मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे अन्दर एक नया विश्वास, एक नई शक्ति आ गई हो। ये लिखने की शायद जरूरत नहीं कि वो पदयात्रा बहुत कामयाब रही मगर इसलिए लिख रही हूँ कि ये एक और मिसाल है कि जब उन्होंने जो मुझसे कहा, वही ठीक निकला।

बाप होने के नाते तो अब्बा मुझे ऐसे लगते हैं जैसे एक अच्छा बाप अपनी बेटी को लगेगा, मगर जब उन्हें एक शायर के रूप में सोचती हूँ तो आज भी उनकी महानता का समन्दर अपरम्पार ही लगता है। मैं ये तो नहीं कहती कि मैं उनकी शायरी को पूरी तरह समझती हूँ और उसके बारें में सब कुछ जानती हूँ, मगर फिर भी उनके शब्दों से जो तस्वीरें बनती हैं, उनके शेरों में जो ताक़त छुपी होती है, अपने गम को भी दुनिया के दुख-दर्द से मिलाकर देखते हैं। उनके सपने सिर्फ अपने लिए नहीं, दुनिया के इन्सानों के लिए हैं। चाहे वह झोपड़पट्टी वालों के लिए काम हो या नारी अधिकार की बात या सांप्रदायिकता के विरुद्ध मेरी कोशिश, उन सब रास्तों में अब्बा की कोई न कोई नज़्म मेरी हमसफर है। वो ‘मकान’ वो ‘औरत’ हो या ‘बहरूपनी’- ये वो मशाले है जिन्हें लेकर मैं अपने रास्तों पर चलती हूँ। दुनिया में कम लोग ऐसे होते हैं जिनकी कथनी और करनी एक होती है। अब्बा ऐसे इंसान हैं-उनके कहने और करने में कोई अंतर नहीं है। मैंने उनसे ये ही सीखा है कि सिर्फ सही सोचना और सही करना ही काफ़ी नहीं, सही कर्म भी होने चाहिए।

हिन्दी ब्लॉगिंग में अब तक के सबसे बड़े 25 सच

1 हिन्दी ब्लॉगिंग के अब तक से सबसे पक्के दोस्त। या कह लिजिये सबसे पक्की दोस्ती इन्ही की है। अविनाश (मौहल्ला) और यशवंत (भड़ास)

2 बेहद शर्मीली और सकोंची स्वभाव की महिला ब्लॉगर। जो विवादों से हमेशा दूर रहती है, जब प्रश्न महिला अस्मिता, स्वतन्त्रता या अधिकारों को हो। तब तो ये कही आस-पास भी नही दिखाई देती है। सुजाता (नोटपेड)

3 सबसे कम टिप्पणी करने वाले महानुभाव। सभी लोगों को इनसे शिकायत है कि ये इतनी कम टिप्पणिया क्यों करते हैं। जबकि अगले-पिछले दस सालों तक टिप्पणी करने का सर्वाधिक ठेका भारत सरकार ने इन्ही को दिया है। समीरलाल (उड़नतशतरी)

4 हिन्दूत्व और मोदी के सबसे कट्टर आलोचक और काग्रेंस और सोनिया गांधी के सबसे बड़े प्रशंसक। सोनिया गांधी की शान में जो कसीदे आपने अपने ब्लॉग पर कहे है वे बहुत ही दुर्लभ है। सुरेश चिपलूनकर (महाजाल पर सुरेश चिपलूनकर )

5 साल में एक या दो पोस्ट ही लिखते है। अपने आप को मार्डन ज्ञानगुरू बनाने की राह पर ये बिल्कुल नही हैं। ज्ञानदत्त पाण्डेय जी से आप तंग आ चुके है। आलोक पुराणिक (अगड़म-बगड़म)

6 ये कभी-कभी ही ब्लॉगिंग करती है। और दूसरो से टिप्पणी कैसे निकलवायी जाती है इस कला से ये पूरी तरह अनभिज्ञ है, और हां टिप्पणी देने के मामले में समीरलाल जी से इनकी प्रतिस्र्पधा बिल्कुल नही हैं। हरकिरत हकिर (हरकिरत हकिर)

7 ये अभी तक रहस्य बना हुआ है कि ये अपना अधिकांशत समय ब्लॉगिंग को देते है या अपने मरीजों को। डा. अनुराग आर्य (दिल की बात)

8 ऐसा ब्लॉगर जिसको कोई मित्र ना बनाना चाहेगा, और जिसने ठान रखी है कि ब्लॉगिंग करते हुए अगर कोई मुसीबत में फंसेगा तो मैं उसकी मदद बिल्कुल ना करूंगा। संजय बैंगाणी (तरकश)

9 जिसके कार्टून कोई नहीं देखता लेकिन टिप्पणी सब करते है। इरफान (इतनी सी बात)

10 ऐसा ब्लॉगर जिसकी हर कोई बुराई करता है और तकनीकी दृष्टी से भी जो हमेशा बहुत पीछे चलता है। रवि रतलामी (छिटें और बौछारें)

11 बेहद सुलझी हुई और सादगी से रहने वाली महिला ब्लॉगर । शमा (ए लाइट बाइ लोनली पाथ)

12 ओमकार चौधरी जी के सूपरहिट ब्लॉग आजकल की सूपर-डूपर हिट और सर्वाधिक चर्चित पोस्टों तक पर इन्होने कभी टिप्पणी नही की। मनविंदर भिम्बर (मेरे आस-पास)

13 सबसे बड़े सैक्यूलर ब्लॉगर। अनुनाद सिंह (भारत का इतिहास)

14 उबाऊ और बोझिल पोस्टे लिखने वाला ब्लॉगर। इनको हिन्दी ब्लॉगिंग के हरिशंकर परसाई या शरद जोशी समझने का भम्र आप ना पाले। अनुप शुक्ला (फुरसतिया)

15 ऐसे ब्लॉगर मित्र जिनकी पोस्टों में सबसे ज्यादा व्याकरण की गलतियां होती है। और ये हमेशा ही लोगों की व्याकरण समबन्धित गलतियां करने के लिये प्रोत्साहित भी करते रहते हैं। वन्य जीवन के प्रति इनकी उदासीनता सबको दिखायी देती हैं। हरि जोशी (इर्द-गिर्द)

16 ये हमेशा ही दूसरों के ब्लॉग पर टिप्पणी करते है लेकिन इनके ब्लॉग पर कभी किसी ने टिप्पणी नही की। रविश कुमार (नयी सड़क/कस्बा)

17 ब्लॉगिंग से पैसे कमाने की अफवाह फैलाने वाला सबसे बड़ा ब्लॉगर। पी. एस. पाबला (इंटरनेट से आमदनी)

18 हिन्दी ब्लॉगिंग का सबसे युवा चेहरा। शास्त्री जे. सी. फिलिप (सारथी)

19 ये विविध विषयों पर रंग-बिरंगी पोस्टे लिखते है और जबरदस्ती अपने आपको बुद्धिजिवियों की कतार में शामिल करने का इनको कोई शौक नही हैं, और इनकी सबसे बड़ी विशेषता है कि ये लोगों से दूर भागते फिरते है। प्रवीण त्रिवेदी (प्राइमरी का मास्टर)

20 ये भी हमेशा से ही सबसे ब्लॉग पर टिप्पणी करते रहते है, जबकि इनके ब्लॉग को कोई देखता भी नही, और ये बिल्कुल भी अंहकारी नही है। (वैसे भी ब्लॉगिंग परम्परा में यह रविश कुमार के ताऊ होते है।) मनोज वाजपेयी (इट्स माई ब्लॉग)

21 शु्क्रवार के दिन इनको पता नही क्या हो जाता है। फिर ये अपना सारा बवाल अपने ब्लॉग पर निकाल देते है। अजय ब्रह्मात्मज (चवन्नी चैप)

22 हिन्दी ब्लॉगिंग को बदनाम करने में इन्होने कोई कसर नही छोड़ी। रात-दिन एक कर दिया अजीब-अजीब प्रयोग करने में इनकी बदौलत आज बहुत से भले लोग ब्लॉगिंग करते हुए बिगड़ गए हैं। जीतेन्द्र चौधरी (मेरा पन्ना)

23 हिन्दी ब्लॉगिंग की छोटी दीदी। अगर पी. एम. इन वेटिंग आडवानी ना होते तो ब्लॉगिंग समाज की ओर से आपके नाम की पेशकश भी कि जा सकती थी। घूघूती बासूती (घूघूती बासूती )

24 ये समीरलाल के सबसे बड़े आलोचक है, हमेशा ही उनकी बुराई करते रहते है और उनकी चापलूसी से तो ये कोसो दूर है। अरविन्द मिश्रा (क्वचिदन्यतोअपि! )

25 ये खूद ही अपना ब्लॉग लिखते है, हालांकि ये खुद इतने मशहूर नही है जितना मशहूर इनका ब्लॉग है, और ब्लॉगिंग को लेकर इनको कतई भम्र नही है कि अमिताभ बच्चन से इनकी प्रतिस्र्पधा हैं। अशोक चक्रधर (चक्रधर की चकल्लस)

बचपन

धीरे से उम्र गुजरी है
दबें कदमों की आहट से
किसी को पता ना चलें
तुम कहां से आये हो
पुरानी सी कोई बात हो चली
जैसे स्कूल के दिन
पतंग उड़ाने का लुत्फ
बारिश में नहाना
जोर से चिल्लाना
देर से उठना
रात तक जागना
गली में बैठना
और जाने क्या-क्या
अब एक रूटिन है
बस कुछ और नहीं
हम बढ़े हो गये।
इरशाद

ये विरासत है अमृता प्रीतम की हम मनविंदर भिम्बर समझ रहे हैं।

भागदौड़, तेज रफ्तार जिन्दगी, दिनभर के कामकाज, नये तनाव नये दबाव, फास्टफूड, तेज संगीत, हाईफाई सोशल लाइफ के बीच सारी उमर निकले जा रही है। इसी के बीच में कुछ पल अपने आप से बातें करने के लिये मिल जाए, रूह के रिश्तों की समझ का अन्दाजा लगा सके, पुरानी यादों के टुकड़ों को सजों कर रख पाए। क्या आप ऐसा ना करना चाहेगें। मनविंदर भिम्बर तो ऐसा ही करती हैं। जानी-मानी पत्रकार हैं, धडल्ले से लिखती है अगर लिखने पर आ जाए। पत्रकारिता को अपनी जिन्दगी दी हैं। आजकल कटे हुए बालों वाली फैशनेबल महिला पत्रकारों का दौर है, जो खबरों की दुनिया से परे ग्लैमर की नुमाइश ज्यादा करती है। ऐसे में ठेट पंजाबी लुक वाली, संस्कारों की प्रबल पैरोकार मनविंदर ना सिर्फ कामयाब है बल्कि बेहद शौहरतयाफ्ता भी।
जागरण जैसे पत्र के साथ आपका पिछले चौदह-पन्द्रह सालों का साथ रहा है। आजकल दैनिक हिन्दुस्तान को गरिमा प्रदान कर रही हैं। मनविंदर जी का काम करने और लिखने का अपना ही एक अलग अंदाज है। मुझे याद है पिछली दिवाली पर उन्होने पूरे पेज का एक परिशिष्ट तैयार किया था जिसमें उन्होने बताया था कि शहर में क्या-क्या बढ़िया और स्वादिष्ट व्यंजन कहां-कहां मिलता हैं। इसकी कवरेज के लिये उन्होने शहर का कोई कोना नही छोड़ा था। बेहतरीन मिठाइयों से लेकर लजीज मुर्ग-मुसल्लम तक के बारे में उन्होने बताया कि कौन क्या-क्या बनाता हैं। जब मैंने रहमान बिरयानी वाले को बताया कि भाई आज तो तुम्हारी बिरयानी का जिक्र मनविंदर जी ने अपने कालम में किया है तो वो बन्दा पैसे लेने को तैयार न हुआ। क्योकि वो ये तो जानता था कि उसकी बिरयानी के बारे में लिखा गया है लेकिन किसने लिखा है ये उसको नही पता था।
आज जब पत्रकारिता के अर्थ बदल रहे है और नैतिकता की कही जगह नही बचती ऐसे मनविंदर का मनविंदर बने रहना आश्चर्यजनक लगता हैं। मेरठ में हुए 87 के दंगों को कौन नही जानता। तब भी आन द स्पाट, हालत की आंख में आंख डालकर ये महिला अपने फर्ज को तरजीह देने से पीछे नही हटी। जिस समय हाशिमपुरा में पीएसी के जवानों ने असहाय, बेगुनाह लोगों पर गोलीया चलाई तब भी घटना की कवरेज के लिये मनविंदर जी वहां मौजूद थी और एक पत्रकार से ज्यादा अपनी मानवीय सवेंदना की खातिर उस समय की स्थानीय विधायक मोहसिना किदवाई जी से इस मानवीय बर्बरता पर बात करने से भी पीछे नही हटी थी और आजकल आप दैनिक हिन्दूस्तान के लिये आर्मी और कैण्टोंमैंट को देखती हैं। इस पर भी आपका कालम खूब चलता हैं। जबकि पिछले दिनों रिमिक्स आपकी जिम्मेदारी था। बतौर रिमिक्स पर लिखते हुए आप बहुत सारी नयी प्रतिभाओं को कलम के जरिये सामने लायी। आज जब पत्रकारिता को एक स्टेटस सिम्बल की तरह से इस्तेमाल किया जाने लगा है तब ऐसे में वह इस बात से भी बचती है कि उनके नाम को किसी भी वजह से तरजीह मिले या आगे बढ़ाया जाए। इतनी सादगी और सवेंदना मुझे अभी तक किसी अन्य महिला पत्रकार में देखने को नही मिली है। आपकी इन्ही कारगुजारीयों को देखते हुए अभी हाल ही में आपको महिला गौरव सम्मान से सम्मानित किया गया है। जो वास्तव में बेहद ही फर्क की बात है।
मनविन्दर जी ब्लागिंग के लिये बहुत पुराना चेहरा नही है लेकिन कम समय में ही उन्होने पुराने ब्लागों की अपेक्षा ज्यादा लोकप्रियता पाई हैं। ब्लाग बनाने को लेकर उनका आरम्भिक असंमजस साफ तौर पर दिखाई दिया। उन्होने अभी तक तीन ब्लाग बनाये है जिनमें से एक (वो कुछ पल) तो अब वह चलाती ही नही जबकि दूसरा (कुछ खास हस्तिया) भी खास एक्टिव नही है जबकि तीसरे ब्लाग (मेरे आस-पास) आज हिन्दी ब्लागों में अपनी एक खास जगह रखता है। अपनी ब्लागिंग के शुरूआती दिनों में वो एक पत्रकार की तरह से अपना ब्लाग चला रही थी जबकि उनके दिमाग में बहुत कुछ चल रहा था। आप आरम्भिक पोस्टे कोरी पत्रकारिता से लबरेज फीचरों की तरह से रही जिनमें टिप्पणी के नाम पर भी एक या दो लोग ही दिखाई पड़ते थे। हां लेकिन रंजू भाटीया जी आपकी कद्रदान शुरू से ही रही हैं। मनविंदर जी ने धीरे-धीरे समझा कि उनको क्या लिखना है, और अब जाकर बिल्कुल क्लियर है कि वह क्या लिख रही है। अपने ब्लाग पर आजकल वह पत्रकारिता से दूर एक महिला होने के नाते। एक बेहद भावूक, सवेंदनशील और अदबनवाज तरीके से अपने मोर्च को सम्भाल रही हैं।
अमृता प्रीतम का असर आप पर बहुत ज्यादा तारी हैं। आपने अमृता को सिर्फ पढ़ा ही नही बल्कि महसूस किया है, और जिया हैं। ये किसी को चाहने की वो स्थिती होती है जब आप उस जैसे ही होने लगते है। अमृता अपने जमाने से आगे की औरत रही हैं, उन्होने जिन्दगी को अपनी शर्तो पर जिया हैं। बहुत बार मनविन्दर की नज्मों को पढ़ते हुए आपको लगेगा कि अरे क्या बात कि जा रही है और आप जैसे ही उस नज्म में उतरने की कोशिश करेगें कि भिम्बर जी बचकर साफ निकल जाती हैं। आप उनकी नज़्में और शब्दचित्रों को पढ़िये। वो अधूरी प्यास जगागर दूर निकल जाती है, लगता है जैसे अभी भी कुछ कहना बाकि है। मनविंदर जी कि नज़्में बहुत सारे अनसुलझे सवालों को छोड़कर जाती हैं, अब ये उनके उपर है कि वो सबकुछ साफ करें या छुपा जाए।
असल में कोई सच्ची नज़्म केवल शब्दों का जामा पहन लेती है, लेकिन बात दिल की होती है। और इंसान नही चाहता कि उसके दिल की बातों का कोई साझी हो, इसलिए आप शार्टकट मारकर फुर्र हो जाती हैं। आपने जितने शानदार तरीके से अपने कैरियर को परवान चढ़ाया है उतनी ही बेहतरीन ढ़ग से गृहस्थी को भी अंजाम दिया हैं। आप मनविंदर जी से बातें किजिए तो वो थोड़ा शर्माती है, सकोंच करती है, लेकिन जब बाते करती है, तब अदब की लहर दौड़ जाती है, जिसमें पंजाबी खुशबू का तड़का होता हैं और उर्दू की मिठास। यही तो मनविंदर भिम्बर हैं। वो अपने काम से प्यार करने वाली महिला है और इसके प्रति उनका सर्मपण भी है कि आज वह इस मुकाम तक पहुंची जब हम जैसे लोग उनकी बातें करते हैं। दिगम्बर नासवा जी ने एक बार आपके बारे में कहा था कि- ’’सूरज तक पहुँचने के लिए तो ख्यालों की उड़ान ही काफी है और आपके ख्यालों की उड़ान का तो कोई छोर नही’’ ये सच बात भी है।
आप विविध विषयों पर पुस्तकें लिखने का मन रखती हैं फिलहाल अमृता प्रीतम के जीवन और काम पर आपकी बहुप्रतिक्षित पुस्तक आ रही हैं। साहित्यिक लेखन के लिए जिस तकनीक और कौशल की जरूरत पड़ती है आप उसकी जानकार ही नही महारथी भी हैं।
यह ख्याल है या जिक्र भर तेरा
तुम कहते हो
मैं कहीं गया नहीं, यही हूं तेरे पास
आपके इसी तकनीकी कौशल को देखते हुए मशूहर सम्पादक और पत्रकार (ओमकार चौधरी जी को कहना ही पड़ा-अब तो थोड़ी।थोड़ी ईर्ष्या भी होने लगी है कि हम इतने अच्छे शब्द क्यों नहीं लिख पाते।) असल में मनविंदर भिम्बर का लेखन प्रतीकों और बिम्बों का लेखन हैं, जो रहस्य की सड़क से होकर आता है किसी रूहानी नगर की तलाश में। ऐसे में अगर बहुत अच्छा है कहकर हम चलते बने तो ये नाइंसाफी होगी, जो कलम जिस सम्मान की हकदार है, उसको उसका वो स्थान मिलना ही चाहिए। मनविंदर भिम्बर अगर दर्द की जुबान का बयां हैं तो हालत की अक्कासी का नक्शा भी जो खामोशी के साथ जिन्दगी के सफ्हों पर रोजमर्रा का तुर्जमा लिख रही है। शायद ऐसे ही लोग होते होगें जिनके लिये बहूत पहले बशीर बद्र ने कहा हैं-
आँसुओं से लिखी दिल की तहरीर को
फूल की पत्तियों से सजाते रहे
अतः मैं फिर कहूंगा कि ये तनकीद निगारी किसी जाति उद्देश्य या भावना से नही बल्कि उनके काम और लेखन पर एक विचार या राय भर है। अगली समीक्षात्मक पोस्ट मशहूर फिल्म निर्देशक महेश भट्ट की बेटी आलिया और शाहिन भट्ट (पहली बार इंटरनेट पर) पर पढ़ना ना भूले।
इरशाद

इरफान ब्लागिंग करते है दूसरों को कुछ देने के लिए।

आप कभी कम्यूनिस्ट रहे हैं। अगर कम्यूनिज्म को आपने जाना हो, हिन्दी, अग्रेज़ी, उर्दू साहित्य आपने पढ़ा हों। पूरानी गली-कूचों की खाक छानी हो। लम्बी बेहसों, भाषणों, धरनों में हिस्सा लिया हो। आपके पास बेलबोटम की पेंन्टें हो, कोई एक पुराना रेडियों, डाक टिकट, पूराने गीतों और किताबों का कलैक्शन हो। नाटक देखते भी हो, करते भी हो। क्या आप ऐसे है अगर नही तो इरफान तो ऐसे ही है। इतना सब होने के बाद ये पत्रकार भी है, अदबनवाज भी। आप देश के ख्यातीप्राप्त पत्रकारों में से एक है। ये वो ही पूराने वाले पत्रकार है जिनके पास बहुत सारे खादी के कुर्ते और एक झोला होता है, झोले में एक डायरी, दोपहर का खाना, पुराने खतोकिताबत और तेज नजर के साथ अपार ज्ञान होता हैं। इरफान भाई जितने मशहूर पत्रकार है, उतने ही शौहरतयाफ्ता ब्लागर भी हैं। एक जमाना हो गया इरफान को पत्रकारिता करते हुए हम जैसे कल के बच्चे तो दुनिया में पैदा भी ना हुए थे। जबसे इरफान भाई ने बोलना और लिखना शुरू किया है। रेडियों आप की नसों में खून की जगह बहता हैं। अगर आप पुराने रेडियों सूनने वाले है तो इरफान से जरूर वाकिफ होगे।
रेडियो के शौक ने आपके फन को निखारा और जमाने के सामने नई चीजों को पेश किया। इरफान बहुत शानदार पोस्टें लिखते है। बेहतरीन साहित्य आपके ब्लाग पर साउण्ड फार्मेट में आपको मिल सकता हैं। आज जब लोग ब्लाग पर जमकर फ्री की भाषणबाजी कर रहे है। ऐसे में इस आदमी ने भाषा के नायाब साहित्य को साउण्ड फार्मेट में कनवर्ट करके अपने ब्लाग पर डाला है। आप यहां पर कई सारी मशहूर कहानीयां, दूर्लभ इंटरव्यू, रोचक किस्से, बेशकिमती ना मिलने वाले गीत और जाने क्या-क्या अजग-गजब इरफान के ब्लाग पर मिल जाता हैं। इरफान शुरू से ही जमीन के आदमी रहे हैं, लेकिन बदलती दुनिया के मिजाज ने आपको भी मार्डन बना दिया हैं। आप अपना पूरा नाम इरफान सैय्यद मुहम्मद लिखते हैं और दिल्ली में रहते हैं। बतौर पेशेवर आप लिखने के साथ-साथ रेडियो ब्रॉडकास्टिंग से भी जुड़े हुए हैं। रामरोटीआलू आपका ईमेल पता हैं। आपके प्रंशसकांे में सबसे ज्यादा संख्या महिलाओं की है। इरफान से आज भी लोग उनके फोटो की मांग करते हैं। इरफान को पूरानी चीजों से बेहद लगाव है चाहे वो कबाड़ ही क्यों ना हों। इरफान भाई जितना रेडियों पर सूने जाते है उतना ही अखबारो में पढ़े जाते हैं। आमतौर पर हिन्दी ब्लागिंग में मशहूर है कि इरफान भाई अपने ब्लाग टूटी हुई बिखरी हुई पर जो सुनाते हैंए जाने कहां से छांट छांट के लाते हैं। इरफान अपने दोस्तो में खासे मशहूर है उनके बारे में अजीज, पराशर सहाब का कहना है- इरफान साब अच्छे इनसान हैं, पिछले छह.सात महीनों से उनसे मुलाकात नहीं हुई है, अलबत्ता फोन पर गुफ्तगू कभी.कभी हो जाती है। पिछली मुलाकात श्रीराम सेंटर में हुई थी जहां तंजो.मिजा की दुनिया के बेताज बादशाह और मेरे अजीज मुज्तबा हुसैन साहब की किताबों की निंदा करते हुए वे उसे कबाड़ी को बेचने की बात कह रहे थे।
इरफान के लिए अपना ब्लाग लिखना जेहनी सुकून पहुंचाने का जरिया है और लोगों को अपनी पसंन्द की चीजों से अवगत कराने का। इसलिये आपकी पोस्टे औरो से अलग होती हैं, और इसी अलग के चक्कर में कई बार बड़ी फजीहत भी उठानी पड़ जाती हैं। पिछले दिनों आप अपनी एक पोस्ट ’’शील, अश्लील और पतनशील: कुछ टिप्स’’ के चलते विवादो में फंस गए थे। इस पोस्ट में नारी और पुरूष सम्बधों पर एक पुराणिक सन्दर्भ की बात कि गई थी। इस पोस्ट को लेकर अपने भड़ास भैय्या यशवंत तो इरफान भाई के पीछे ही पड़ गए थे उनका कहना था कि ’’ अगर औरते सर्वजनिक जीवन मे एक इंसान के बतौर सम्मान की मांग करे तो आपके जैसे वाम पंथियो को भी इस तरह के भय सताते है ’’ और उन्होने इसको लेकर एक मुहिम शुरू कर दी थी। जिसके चलते इरफान भाई को पोस्ट से सम्बधित कार्टून को हटाना पड़ा था। इस पर अपनी नीलीमा जी भी बहुत गरजी थी। आपने कहा- इरफान दादा ये क्या हुआ आपको ? इतने गर्तवान पातालगामी पतनशीलता के टिप्स ! और जाने दीजिए ये भाव विस्तारपरक चित्र कहां से मार लाए ? ये कुरुचिपूर्ण स्त्री विमर्श है या आपका आंतरिक भय या कि फिर आपका जेंडर ग्यान हाइपर हो गया है ????लेकिन इस पर दिनेशराय द्विवेदी जी की कुछ अलग ही राय थी आपने कहा कि इरफान भाई हम तो आप की इस पोस्ट को पढ़ कर आप के कायल हो गए। बात ऐसे की जाती है। उद्धरणों में क्या रखा है। अगर माँ की गाली वेद में लिखी होती तो क्या ब्रह्मवाक्य मान कर सिर पर लगा लेते क्या? आप ने बात भी कही और भाषा का भी निर्वाह किया। आप को बहुत बहुत बधाई।
इरफान जो कटैंट या सामग्री अपने ब्लाग पर रखते है उसके कापीराइट के बारे मे बहुत सजग दिखते है। कटैंट की मारामारी पर उन्होने एक बार कहा था कि- यह निवेदन ब्लॉग और इंटरनेट महारथियों से रवि रतलामी, श्रीश, अविनाश, देबाशीश, मैथिली, सागर नाहर और जीतू चौधरी सहित उन तमाम लोगों से है जिन्होंने हमें चोरी की राह पर ढकेला है। मैं भाई यूनुस, विमल वर्मा, पारुल, अशोक पांडे, प्रमोद सिंह और उन सभी मित्रों से आग्रह करता हूँ जो पूर्व प्रकाशित साहित्य और प्री.रेकॉर्डेड म्यूज़िक अपने ब्लॉग्स या साइट्स पर अपलोड करते हैंए वे बताएं कि क्या हम सब चोर हैं?
वैसे इरफान इन छोटी बातों और विवादो से परे है। वो अपनी मर्जी का ब्लाग चलाते हैं। उनके ब्लाग पर फैली विविधता को देखते हुए आपको उनकी पसन्द का कायल होना ही पड़ेगा। जो आदमी इतने जतन से चीज़ो को खोज-खोज कर ला रहा हो, उन्हे तराश रहा हो, सजा कर पेश करता हो तो वो किसी ब्लाग से ज्यादा एक धरोहर बन जाता है। इरफान यही काम कर रहे है। वह दूसरों को कुछ देने के लिए ब्लागगिंग कर रहे हैं। अभी बहुत दिनों से आपने कोई पोस्ट नही लिखी है। लेकिन अखबारो में लगातार लिख रहे है। आज जब हिन्दी में ब्लाग लगातार बढ़ रहे है। ऐसे में सार्थक और उपयोगी ब्लागों की संख्या बहुत कम है तब इरफान का टूटी हुई बिखरी हुई एक ताजगी का अहसास कराता हैं।
हर बार की तरह ही अतः मैं फिर कहूंगा कि ये तनकीद निगारी किसी जाति उद्देश्य या भावना से नही बल्कि उनके काम और लेखन पर एक विचार या राय भर है। अगली समीक्षात्मक पोस्ट मशहूर ब्लॉगर और नामचीन महिला पत्रकार मनविंदर भिम्बर ’’मेरे आस-पास’’ पर पढ़ना ना भूले।

मैं अपने ही हथियारों से मारा गया।

कल शाम एक फोन मेरे मोबाइल पर आया। ये फोन किसी अन्जान आदमी का था। उसने बताया कि वो मुम्बई से बोल रहा है और उस व्यक्ति ने एक वेब पता मुझे एसएमएस किया कि मैं इस वेब पते को देखू। जब मैंने वो साइट देखी तो मैं हैरान था कि मेरे कम्प्यूटर की जानकारीयां वहां उपलब्ध थी। मैं समझ चुका था कि मेरा कम्प्यूटर हैक कर लिया गया है। कुछ दिनों पहले फेसबुक की तरफ से मुझे लगातार मेल मिलते रहे कि मैं अपनी आई डी से गलत-गलत मैसेज लोगो को भेज रहा हूं इसलिए वो इसको बन्द कर रहे है। मैं यहां भी हैरान था कि हो क्या रहा है। शायद कोई वायरस है जो दिक्कते दे रहा है।
लेकिन किसी ने मेरे कम्प्यूटर को निशाना बना रखा था और मेरी जानकारीयां का गलत इस्तेमाल शुरू कर रहा था। अब जब मैं यह सब जान गया तो पता करना था कि कितना नुकसान हो चुका है और इसको कैसे रोका जाए। मैंने फोरन ही अपने कुछ साॅफ्टवेअर प्रोफेशनल दोस्तो से सम्र्पक बनाया और उनको बुलाया। समस्या की गहराई को बताया कि क्या हो रहा हैं। उन लोगों ने काम शुरू कर दिया और पता करना शुरू किया कि कम्प्यूटर कब हैक किया गया और कैसे। मेरे दोस्त है रियाज भाई अपने काम के माहिर है और बहुत पेशेवर। उन्होने तुरन्त पता कर लिया कि क्या हो रहा है। उन्होने बताया कि मेरे कम्प्यूटर का D ड्राइव हैक कर लिया गया है और जितना भी मेटर D ड्राइव में था उसको वहां से निकाला जा रहा है। उन्होने बताया कि मेरे कम्प्यूटर से कुछ गलत साइटो को खोला गया है और वहां जाकर अपना रजिस्ट्रेशन किया गया है तथा D ड्राइवसे कुछ फोटो मेल किए गए है। जब उस साइट से रजिस्ट्रेशन करने के बाद D ड्राइव से फोटो को मेल किया जा रहा था तभी फोटो का पाथ बताने के लिए D ड्राइव का पता दिया गया। बस तभी उन लोगो ने इस ड्राइव को अपना निशाना बनाया। और ये सारा काम आर्कूट साइट के जरीये ही हुआ हैं। क्योकि वही से स्क्रेप लिए और दिये जा रहे थे। तब कुछ लोगों ने इसको टारगेट किया।
मैं आर्कुट का प्रयोग कम ही करता हूं। लेकिन मैंने पता किया कि मेरा छोटा भाई आर्कुट चला रहा था और उसी ने उन हैक करने वाली साइटों पर गलती से रजिस्ट्रेशन कर दिया था। वो पागल कुछ शाइरी के एसएमएस तलाश कर रहा था नेट पर इसलिए वो ऐसी साइट पर पहूंच गया। बारहाल मैंने अपने दोस्तों की मदद से इस समस्या से छुटकारा पाया। हम शाम में ही गाजियाबाद गए। वहां मेरा एक और दोस्त जो इस काम का माहिर है रहता है। उसने लाइमवायर नाम का एक साॅफ्टवेअर के प्रयोग के बारे में मुझे दिखाया। ये लाइमवायर आपके बताए हुए कम्प्यूटरों से डेटा निकलता है ना कि किसी सर्च इंजन या सर्वर से। अब वो कम्प्यूटर आपका भी हो सकता है और मेरा भी। यहां एक बात में फिर से अपने सभी दोस्तों को बताना चाहूंगा कि आॅर्कूट जैसी साइटों पर रहना सेफ नही है वहां आपके फोटोस को निकाल कर गन्दी साइटो पर डाल दिया जाता है। आजकल आतंकवादी भी आर्कूट जैसी साइटों पर सोशल नेटवर्किग से अपने रिलेशन बना रहे है।
दूसरे यहां आपकी अपनी व्यक्तिगत जानकारी का कोई भी गलत फायदा उठा सकता है। और यदी आप आॅर्कुट जैसी साइटों के सदस्य है तो आपको तरह-तरह के लोग मुबारकबादें देगें, आपसे मिलना चाहेगे, बातें करना चाहेगें। जिन्हे आप जानते भी ना होगें वो सब आपके प्रोफाइल को विजिट कर रहे होगे। आपको किसी के बारे में क्या पता कि वो कौन लोग हैं। मेरा खुद का भी आर्कुट पर प्रोफाइल था। जिसका प्रयोग मैं अपने प्रकाषको को अपना काम दिखाने के लिए करता था और मेरे मित्रों में जो लोग ऐड थे मैं उन सबको व्यक्तिगत तौर पर जानता था क्योकि वो सब भी मेरे काम के साथ ही जूड़े हुए थे। लेकिन अब मैंने अपना आर्कुट का एकाउंट भी बन्द कर दिया हैं। अभी पिछले दिनों ही सोशल नेटवर्किग के बारे में बताते हुए कहा था कि इसके अगर फायदे भी है तो नुकसान भी है। हम सभी जानते है कि अदनान के साथ क्या हुआ था। उसको आर्कुट साइट के जरीये ही मारा गया था। ऐसे एक नही बहुत सारे उदाहरण है। सोशल नेटवर्किग जान-पहचान का एक अंधा माध्यम है। कल तक मेरे लिए सोशल नेटवर्किग एक सषक्त माध्यम थी लेकिन आज मुझे किसी के अन्जानपन से इतना बड़ी मुसीबत का सामना करना पड़ा। कम्प्यूटर और अपने डेटा और प्राईवेसी को तो मैंने बचा लिया लेकिन मै इस सब को लेकर कितना डिस्टर्ब रहा। मैं रात भर परेषान रहा। आज का पूरा दिन खराब हो गया। और सबसे बड़ी बात जब आपके कुछ करीबी लोग इससे जुड़े हो तब और भी दर्दनाक लगता है क्योकि वो सब इसके खतरनाक पहलूओं को नही समझ पाते हैं। उनके फोटोग्राफस और दूसरी जानकारीयों का ये लोग गलत इस्तेमाल कर सकते है। मेरे कम्प्यूटर को हैकिंग से बचाने के लिए तो मेरे पास रियाज और नितिन जैसे दोस्त है लेकिन सबके पास इतनी तकनीकी क्षमता वाले सम्र्पक नही होते है।

कला की डिजिटल दुनिया


YOGA, BHOGA AND CLOWN

THE MASTER

THE FIRST GREY HAIR

THE COUPLE

PHILOSOPHER

PASSION FOR LIFE

not orphan

MONALISA IN AFGHANISTAN

MEDITATOR

life is a game

life as lotus is beautiful

IN DEEP MEDITATION

GANDHI NEVER DIES - II

GANDHI NEVER DIES

DIVINE JUGGLER

DHARMA , ARTHA , KAMA ,...MAUKSHA

DEVOTEE AND GOD

CLOWN WITH MORTAL CROWN

CLOWN - The Seeker for Love

BETWEEN AGONY AND ECSTASY

NDTV की नगमा सहर

कुछ साल पहले अनीता कंवर की फिल्म ‘थोड़ा सा रूमानी हो जाए’ देखी थी। अब बारी है आपके रूमानी होने की। नगमा सहर को जानते हुए आपका रूमानी हो जाना स्वाभाविक हैं। ईश्वर को अगर कहा जाए कि वह अपनी बनाई हुई कृतियों में से कुछ चुनिंदा लोगों को अलग करे। तो आप शक ना कीजिएगा कि उनमें नगमा भी एक होगी। जब ईश्वर संसार के लिए हम इंसानों को बना-बना कर थक जाते थे। तब वह कुछ आराम करने के लिए अपने आपको कलात्मक काम में लगाते थे और ऐसा कुछ क्रिएट करते थे जो नायाब हो। नगमा शायद उसी एक पल का निर्माण है। आप देश की युवा पत्रकारों में शुमार है और NDTV में समाचार उदघोषिका है, मतलब खबरें पढ़ती है, और अपने खुद के शो सलाम जिन्दगी के कारण पहचानी जाती है।
आपने NDTV के लिए कई बेहतरीन और जोखिमभरी कवरेज को अजांम दिया है और लगातार नयी और सरचानात्मक उपलब्धियों को अपने खाते में दर्ज करती जा रही है। आप भीड़ में चुप नजर आती है, और अलग खड़ी होकर कोशिश करती है कि लोगों के ध्यान से बचे। ये भी उन कुछ चुनिंदा लोगों में से है जो चुपचाप अपने काम करने में यकीन रखते है। 18 अगस्त के दिन ही शायद ईश्वर कुछ बेहद अलग लोगों को बनाता है। गुलजार साहब भी इसी दिन नुमाया हुए थे। आपने भूगोल से मास्टर डिग्री ली और JNU से अपनी Ph।d। पूरी की। ’एशियन ऐज’ में शुरूआत करते हुए आपने पत्रकारिता में कदम रखा। शायद बहुत कम लोग जानते है कि नगमा ने आजतक के लिए एक मार्निग शो में बतौर एंकर भी काम किया है। नागापट्टनम में सूनामी की भंयकर त्रासदी, मुम्बई बम ब्लास्ट, इलाहाबाद का कुम्भ मेला, मेरठ का दर्दनाक विक्टोरिया पार्क आग कांड जैसी कुछ प्रसिद्ध टीवी कवरेजो के साथ नगमा के नाम की पहचान है। इसके अलावा और भी कई बेशूमार कार्यक्रमों से आपकी पहचान जोड़ी जाती है, और सलाम जिन्दगी शूरू करने के बाद तो आपने लोगों के ज़हन में एक नयी ही छाप छोड़ी है। सलाम जिन्दगी जैसे कार्यक्रम का अनूठा प्रस्तुतिकरण और आत्मियता तो खुद नगमा की ही सोच और व्यक्तित्व को रूबरू कराता है। जिसकी जगह आज लोगों के दिलों में है।
नगमा हमारे नये समाज का प्रतिनिधित्व करती है और बेहद सन्तूलित तरीके से अपनी जिन्दगी को जीती है। (सन्तुलित इसलिए कह रहा हूं कि वह अपने सर्किल में ही अपनी ख्वाहिशों को अजंाम देती है) नगमा के सामने अपना काम करते हुए जो सबसे बड़ा आर्दश किरदार सामने खड़ा है, वो बरखा दत्त का है। बरखा अपना शानदार सफर पूरा कर चूकी है लेकिन नगमा अभी अपने सूनहरे सफर के दौर में है। लेकिन उनको जाना कहा है ये ना नगमा जानती है ना कोई और। नगमा और बरखा का आपस में कोई लेना देना नही है बरखा बेहद आक्रमक है जबकि नगमा सोचने में समय लेती है। बरखा ने कभी किसी को अपने ऊपर हावी नही होने दिया है जबकि नगमा अक्सर सामने वाले के दबाव में आ जाती है। अभी हालिया दिल्ली 6 के प्रमोशन पर जब वह खुले बाजार में राकेश ओमप्रकाश, अभिषेक और सोनम से बात कर रही थी। तब उनका ये तनाव और दबाव आसानी से देखा जा सकता था। वह शायद किसी हद तक पोजसिव तो नही। खैर कोई बात नही।
नगमा की जिन्दगी तीन अन्य लोगो से बहूत मेच करती है। कंगना रनाउत, सोनिया जाफर, रिजवाना कश्यप। कंगना एक अदाकारा है, सोनिया एक डांसर है जबकि रिजवाना जिनको शमा के नाम से भी जाना जाता है एक काल्मनिस्ट है। ये तीनो बिल्कूल अलग लोग है और अलग-अलग काम करते है। लेकिन ये तीनों एक ही मिटटी के बने है। इनकी सोच और लाइफ स्टाइल बिल्कूल एक है। जिन्दगी को अपनी शर्तो पर जीने वाले लोग। बिदंस! जो चाहे वो करे, जैसे करे आपको क्या। नगमा के पास सलैक्टेड दोस्त है। आप चूप रहकर चीजो को विश्लेषण करती है और जो पसन्द आ जाए उसे किसी भी कीमत पर हासिल करती है। अगले तीन सालों के अन्दर आपको पत्रकारिता का एक बड़ा सम्मान और पदमश्री मिलना तय है। सलाम जिन्दगी के कुछ एपिसोड में बेहद बोल्ड सब्जैक्टस को उठाया गया है जिसको केवल नगमा ही कर सकती थी और कोई नही। ये मेरी बिल्कुल समझ नही आता है कि वह अपने माता-पिता से नफरत क्यों करती है। आप बिना शादी के बहूत खूश है। लिव इन रिलेशनश्ीाप पर आप एक कार्यक्रम भी बना चूकी है। भारत में अगर ऐसे लोग तलाश किए जाए जो बहूत ज्यादा और तेज मेकअप करते है तो नगमा का नम्बर यहां भी पहला ही होगा। आप बहूत डार्क मेकअप करती है जबकि ये उनको हल्का लगता है और अपना बहूत ख्याल रखती है क्योकि आपको दूसरो की परवाह है कि वो आपको देख रहे है। नगमा लापरवाह नही है लेकिन उनके पास कोई योजना भी नही है। NDTV के साथ अभी वे एक लम्बे समय तक रहने वाली है, NDTV में उनको एक आत्मियता नजर आती है। जो अन्य संस्थानों में ना के बराबर है। आने वाले समय में वह जरूर कुछ भाषणबाजी वाली किताबे लिखना चाहती है। लेकिन अभी समय नही है। ब्लाॅग के बारे में अभी तक उन्हे किसी ने नही बताया है जबकि खबरों से उन्हे इसके बारे में आम सी जानकारी है। नगमा की बचपन की दिली ख्वाहिश थी कि वह कुछ स्पेशल बने। फिल्मों में उनकी दिलचस्पी सिर्फ देखने में ही नही बल्कि काम करने और बनाने में भी है। (कुछ फोटो खीचाकर उन्होने अपने इस शौक को पूरा भी किया है) लेकिन अगर किसी ने काम का आॅफर किया तो वह शरमा जाएगी। हालांकि आमिर खान की फना मे एक छोटा सा रोल उन्होन बतौर नगमा ही किया है। बतौर कैरियर टीवी पत्रकारिता मे वह अगले 5 सालों तक जमी रहने वाली है लेकिन यदी वह प्राॅडक्शन हाउस खोलने में दिलचस्पी ले तो ये उनके लिए कही बेहतर विकल्प होगा। वह भारत की बेहद बोल्ड और बिंदास समाचार वाचिकाओं में से एक है जिसे वह बखूबी समझती है लेकिन जाहिर नही होने देती है।
अतः मैं फिर कहूंगा कि ये तनकीद निगारी किसी जाति उद्देश्य या भावना से नही बल्कि उनके काम और लेखन पर एक विचार या राय भर है। अगली समीक्षात्मक पोस्ट मशहूर ब्लॉगर इरफान ''टूटी हुई बिखरी हुई'' पर पढ़ना ना भूले। बहूत सारे मित्र अभी भी पूछ रहे है कि वह ब्लागिंग की पूस्तक कैसे प्राप्त कर सकते है ये बेहद आसान है दोस्तो आप एक मनीआर्डर रवि पाकेट बुक्स, 33 हरिनगर मेरठ शहर 250002 के नाम से भेजे आपको कुछ दिनो मे ही पुस्तक डाक द्वारा प्राप्त हो जाएगी। विशेष बात ये है कि सभी ब्लागर दोस्तो को पुस्तक बिना किसी डाक खर्च के भेजी जाएगी।

पेपर कटिंग

10 फरवरी को मेरठ में हुए ब्लागिंग सेमिनार एवं पुस्तक विमोचन कार्यक्रम अखबारों की ज़ुबानी। उन सभी पत्रकार दोस्तो का आभार जिन्होने पुस्तक की समीक्षा को इतने सून्दर ढंग से प्रस्तुत किया।

उपरोक्त समीक्षा दैनिक हिन्दूस्तान की मशहूर पत्रकार मनविंदर भिबंर जी ने की है। आप खुद भी ’मेरे आस पास’ के नाम से चर्चित ब्लाग चलाती है।
दैनिक हिन्दूस्तान की रिर्पोट
उपरोक्त समीक्षा वरिष्ठ स्तम्भकार सलीम अख्तर सिद्दीकी ने की है जो दैनिक DLA में प्रकाशित हुई। आप खुद भी ’हकबात’ के नाम से अपना ब्लाग चलाते है
दैनिक DLA की रिर्पोट
उपरोक्त समीक्षा दैनिक जागरण के युवा पत्रकार सचिन राठौड़ ने की है। आप खुद भी ’अपना समाज’ के नाम से अपना ब्लाग चलाते है
दैनिक राष्ट्रीय सहारा की रिर्पोट
दैनिक जागरण की रिर्पोट
बहूत सारे मित्र जानना चाह रहे है कि पुस्तक किस प्रकार से प्राप्त की जा सकती है। तो यह बेहद ही सरल है इसके लिए आप अपने शहर के AHW व्हीलर, या किसी भी प्रमुख बुक स्टाल से यह पुस्तक प्राप्त कर सकते है। क्योंकि ये पुस्तक भारत के सभी हिन्दीभाषी क्षेत्रों में सहज ही उपलब्ध है। इसके पश्चात भी यदी आपको पुस्तक ना मिले तब आप सीधे-सीधे 150 रूपये का एक मनीआर्डर प्रकाशक के नाम से भेजे जो इस प्रकार से होगा।
रवि पाकेट बुक्स
33 हरि नगर, मेरठ शहर (उ.प्र.) 250002
आपको कुछ दिन के अन्दर ही 336 पेज की यह पुस्तक डाक द्वारा भेज दी जाएगी। विशेष बात ये है कि सभी ब्लागर साथियों को पुस्तक बिना किसी डाक खर्च के भेजी जाएगी। इतना करने भी पुस्तक यदी आपको नही प्राप्त होती तब आप मुझे टिप्पणी करे और बताए। प्रकाशन की तरफ से एक पुस्तक मुझे भी भेंट की गई थी, उस अवस्था में आपको मैं अपनी ये इकलोती पुस्तक दे दूंगा।

मेरठ का ब्लागिंग सेमिनार कैमरे की नज़र से

चिंतामग्न दो व्यक्तित्व मनेश जैन, ’एटूजेडबुक्स’ सलीम अख्तर सिद्दीकी हकबात
लेखकीय सम्बोधन
लो आ गई ब्लागिंग की पहली किताब हिन्दी में
विमोचन की रस्म
मंचीय गतिविधियां
मेरठ का ब्लागिंग सेमिनार का शुभारम्भ
विचारमग्न हरि जोशी जी ’इर्द-गिर्द’
हिन्दी ब्लागिंग का सशक्त स्वर- यशवंत सिंह
पहचानये कहां है मनविंदर भिंबर जी ’मेरे आस पास’ जी, रिचा जोशी जीइर्द-गिर्द’
यशंवत सिंह जी ’भड़ास’ सम्बोधित करते हुए
मंचासीन मेहमानों की आमद