मेरठ में आज कर्फ्यू लगा दिया गया है (ब्लॉग पर पहली खबर)

आज सुबह जब सोकर उठा तो मेरठ में कर्फ्यू लगा पाया। कल की एक छोटी सी घटना को लेकर यहां के स्थानिय मुस्लिम नेताओं ने शहर में कर्फ्यू लगवाकर ही दम लिया। घटना कुछ इस तरह से है कि कल जमात (तबलीगी जमात) से लौटते हुए कुछ मुस्लिम समुदाय के लोगों की अन्य समुदाय के लोगों से कुछ कहासुनी हो गयी। बात ये है कि कोई भी दो समुदाय के लोगों की आपस में कहासुनी अक्सर ही हो जाती है लेकिन बात कभी भी इतनी नही बढ़ती की शहर में कर्फ्यू लगा दिया जाए। चूकिं यहां मामला जमात के लोगों के होने से जुड़ा था। बस क्या था यहां के एक शातिर गुण्डें ने जो यहां का मुस्लिम कौम का नेता भी बना हुआ है और जो इस वक्त चुनाव में हारने की वजह से खिसयाया हुआ है, उन जमात के लोगों की वकालत में शहर में जगह-जगह उपद्रव मचाने की कोशिश की लेकिन पुलिस ने हर जगह मामले को सम्भाल लिया। अच्छा इस स्थानिय गुण्डें ने जो अपने आप को कौम का रहनुमा भी बताता रहा है हर जगह दंगा भड़काने की कोशिश की लेकिन असफल रहा। उसने दिनभर हर जगह पहुंच कर लोगों को भड़काया जैसे ईदगाह चौपला, घंटाघर, रोहटा फाटक हर जगह उसका प्रयास असफल रहा और मुस्लिम कौम ने उसकी बात को सून कर अनसुना कर दिया। लेकिन रात में उसने अपने गुण्डों को लेकर दूसरे कौम की एक धर्मशाला पर पथराव और जलती हुयी चीजें फेंकी तथा पुलिस की एक गाड़ी को आग लगवा दिया। बस इतना होते ही प्रशासन ने शहर में कर्फ्यू लगा दिया। अब जब हमारी बात हमारे पत्रकार मित्रों से हुयी तो सबने बता ही दिया है कि वो गुण्डा अब इसको और बढ़ाने की कोशिश में लगा हुआ है जिससे
अपनी सियासत को चमका लें। इस नेता का कहना ये भी रहा है कि जब तक वो नेता था तब तक शहर में कोई दंगा नही था लेकिन जैसे ही शहर के लोगों ने उसे नकारा उसने ये कमाल भी दिखा दिया। दोस्तों हम मेरठ के ब्लागर आपस में जुड़े हुए है और पूरी दुनिया को अपनी पोस्टों से लाइव अवगत कराते रहेगें। इस सब पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है जरूर बताये।

परिक्रमा: कमलेश्वर और इन्दिरा जी

16 अगस्त की सुबह, सन् ज़रूरी नहीं, बस इतना याद रखना ज़रूरी है कि भारत के एक प्रधान मन्त्री लाल किले की प्राचीर से, 15 अगस्त का भाषण दे चुके थे। मैं 16 की सुबह दिल्ली पहुँचा। टैक्सी ली। कुछ देर कोई बात नहीं हुई पर टैक्सी वाले को सिर्फ ड्राइवर मान कर बात न करना अच्छा नहीं लगा। आखिर वह भी तो संसार के सबसे बड़े इस लोकतन्त्र का नागरिक है। योरुप या अन्य देशों में टैक्सी वाले बराबरी से बात करते हैं। साथ बैठकर नाश्ता करते या खाते हैं। साम्यवादी देशों में तो यह बात समझ में आती है। योगोस्लाविया में यह अनुभव किया था—सन् 1971 में। और फिर अभी सन् 1989 में चीन में।
तो, बात करने के लिए पूछा—कल आपने प्रधान मन्त्री का भाषण सुना था।
-सुना था।
-कैसा लगा ?
-ठीक था।
-उन्होंने कहा कि वे गरीबी खत्म करके रहेंगे !
-हाँ।
-आपको यह बात कैसी लगी ?
-सब यही कहते हैं।
-पर यह तो नए प्रधान मन्त्री हैं।
-ये भी गरीबी तो खत्म नहीं कर पाएंगे..पर हम गरीबों को खत्म कर देंगे !
-सब मुझसे ही पूछते-से लगते हैं, साफ-साफ कोई कहता तो नहीं...यही कि मैंने अपनी ज़िन्दगी बरबाद कर दी ! पर आज तक किसी ने नदी से पूछा कि कितना पानी बरबाद किया है उसने ? औरत की ज़िंदगी और नदी में फ़र्क ही क्या है ?
सन् 1971, शायद नवम्बर का महीना था। वीयना यूनिवर्सिटी में सभा थी। मुझे बंग्ला देश में हुई क्रांति पर बोलना था। प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी भी उसी दिन वीयना में थीं। हमारी एक मीटिंग वीयना यूनिवर्सिटी में रखी गई तो उनकी सुविधा के लिए हमारी सभा का समय उन्हें दिया गया और हमारा समय आगे बढ़ा दिया गया।
उनकी सभा में मौजूद रहना मुझे अच्छा लगा। वे बंगला देश का निर्माण करने के बाद पहली बार विदेश आई थीं। दो राष्ट्रों के सिद्धान्त को उन्होंने ग़लत साबित कर दिया था। पर विदेशी तो विदेशी। उनके बोल चुकने के बाद प्रश्नोत्तर शुरू हुआ। एक विदेशी ने पहले प्रश्न के दिए गए उत्तर के संबंध में उन से चीख कर पूछा—बट ह्वाट अबाउट योर काऊज़ (Cows) ?
इन्दिरा जी ने कुछ गोलमोल-सा उत्तर देकर धार्मिक अन्धतावाद को कोसा।
दस मिनट बाद वहीं हमारी सभा शुरू हुई। आधे श्रोता वही थे। हमें इन्दिरा जी की सभा के कारण अधिक श्रोता मिल गए थे।
हॉल के एक भाग में ही इन्दिरा जी के लिए त्वरित चाय का इन्तजाम था। वे शायद तब चाय पी रही थीं। मुझे मालूम नहीं था क्योंकि वह खण्ड हॉल का हिस्सा होते हुए भी अलग था।मैं उनसे पूछे गए सवाल पर विक्षुब्ध था...गाय औसत भारतीय की धर्मांधता का हिस्सा नहीं है। विदेशी खुद भारत को लेकर अंधविश्वास ग्रस्त हैं। मैं बोलने खड़ा हुआ तो, काफी वही चेहरे देखकर मैंने घुमा-फिरा कर वही सवाल उठाया और उसे संदर्भ से जोड़ते हुए मैंने श्रोताओं से पूछा—एण्ड ह्वाट अबाउट यार डॉग्स- (dogs) ?
क्या आप उन्हें मार कर खाते हैं ? आप उन्हें अपने साथ विस्तर पर सुलाते हैं, रोज़ अलस्सुबह उन्हें दिशा-मैदान के लिए शहर की पटरियों पर ले जाते हैं—सारा शहर बदबू से भरा होता है, फिर वह धोया जाता है और जब आपके कुत्ते मरते हैं तो आप उन्हें दफनाते हैं....भारत में गाय की अलग स्थिति है। हमारा कृषि-प्रधान देश है। गाय हमारा इकोनॉमिक युनिट है। वह हमें खेत जोतने के लिए बैल देती है। दूध से हम घी, मक्खन और दही बनाते हैं। गाय के गोबर से हमें खाद और ईधन मिलता है, इसलिए हम गाय को नहीं मारते !
चाय पीते हुए इन्दिरा जी यह भाषण सुन रही थीं। वहाँ लम्बे भाषण तो होते नहीं। बंगला देश क्रांति पर बोल कर मैं उतर आया।
तभी इन्दिरा जी के लश्कर से एक सज्जन आए—आपको प्रधान मन्त्री बुली रही हैं !मैं गया उन्हें प्रणाम किया।
-मैं अभी आपकी कुछ बातें सुनीं ! इन्दिरा जी बोलीं—आप जैसे लोगों को तो भारत में होना चाहिए....पता नहीं आप लोग देश छोड़कर क्यों चले जाते हैं ? वे मुझे अप्रवासी भारतीय (N. R. I.) समझी थीं।
-जी, ऐसा तो नहीं है, पर मुश्किल सिर्फ यह है कि जब हम अपने देश के मंचों पर बोलते हैं तो बेकार समझे जाते हैं। पर विदेशी भूमि पर खड़े होकर बोलते हैं तो कारगर और समझदार समझे जाते हैं ! पता नहीं आधारभूत ग़लती कहाँ हुई है ? मैंने कहा—मैं तो भारत में ही रहता हूँ !उन्होंने एक पल सोचा। फिर कहा—जब आप भारत लौटें तो मुझसे मिलिए !यह इन्दिरा जी से मेरी पहली मुलाकात थी।
सन् 1971....पाकिस्तान होते हुए योरुप यात्रा। ईस्ट पाकिस्तान ख़त्म हो चुका था, बंगला देश बन चुका था। मैं क़ायदे-आज़म मोहम्मद अली जिन्ना की शानदार मज़ार देखने गया। उसकी बाहरी दीवार पर किसी ने बड़े-बड़े हरुफों में कुछ लिख दिया था, जिसे शैम्पू करके मिटाया जा रहा था। मैं इतना ही पढ़ सका—...अहसान हमने उतार दिया ! शुरू के हरूफ धुल चुके थे। मैंने वहां खड़े एक आदमी के पास जाकर पूछा—यह क्या मिटाया जा रहा है ?
वह हँसने लगा, फिर हँसते हुए ही बोला—बंगला देश बन गया न इसलिए किसी मनचले ने मज़ार पर लिख दिया था-कायदे-आज़म आपका आधा अहसान हमने उतार दिया।
एक बातचीत।
-जब से पंजाब में आतंकवादियों का दौर चला है, रोज़ 15-20 लोगों की हत्या की ख़बर आती है—जेबकतरी, चोरी, बलात्कार वगैरह की कोई खबर ही नहीं आती। लगता है जैसे इस तरह के क्राइम अब पंजाब में होते ही नहीं !
-जी हाँ, इसलिए कि पंजाब पुलिस आतंकवादियों को लेकर बिज़ी है, उसके पास वक्त ही नहीं है !दिल्ली-30-6-90. घनघोर मानसून का पहला दिन—
जमना पार का इलाका। गर्मी की ज्यादती और बिजली-पानी की कमी। झुग्गी वालों को तो पानी महीनों नसीब नहीं था।
मानसून आया। गलियां और पतली सड़कें पानी से भर गईं। गंदला पानी। बच्चे बतखों की तरह पानी में उतर गए। एक मां ने गोद से बच्चे को पानी में उतारते हुए कहा—ले नहा बेटा...खूब नहा....अब भगवान् का दिया सब पानी हमारा है !
दफ्तर। नया-नया है। बिजली गई। इधर-उधर की बातचीत ने एक कोई भयानक सपना सुनाया।
कमेंट : पता है सपने क्यों आते हैं ?
-क्यों ?
‘कब्ज़ के कारण !
-पर आदमी खुली आँख भी तो सपने देखता है !
-वह आते हैं गरीबी के कारण !
पढ़े-लिखे लोगों की जमात, घूमते-घामते बात राष्ट्रीय मोर्चा सरकार पर आई। बढ़ती कीमतों पर बात भी हुई थी। दिन बढ़ती कीमतों और बारिश के।
–विश्वनाथ प्रताप सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार मूल्य आधारित नीतियों की बात करती है।
-इसीलिए मूल्य बढ़ रहे हैं ! टमाटर आठ रुपये किलो से बीस रुपए किलो हो गया !
वहीं, दूसरा टुकड़ा—
-सरकार राष्ट्रीय मोर्चे की है !
-तभी तो सरकार वाले एक-दूसरे से मोर्चा लगाए बैठे हैं !सन् ’93....केंद्र में कांग्रेस सरकार। चार राज्यों की बी।जे.पी. सरकारें बर्खास्त, जनता दल के अलग-अलग धड़े, मुलायमसिंह यादव, देवीलाल, ओमप्रकाश चौटाला, वी.पी. सिंह, जार्ज फर्नांडिस, मधु दण्डवते, रामकृष्ण हेगड़े, रामविलास पासवान, शरद यादव, अजित सिंह, बीजू पटनायक आदि—सवाल एक नेता से—क्या कभी जनतादल एक हो सकता है ?उत्तर : यह करिश्मा जादूगर तो छोड़ो....भगवान भी नहीं कर सकता !जम्मू-कश्मीर, आंतरिक सुरक्षा का मसला। गृह मंत्री का दौरा, भयानक आतंक का माहौल....पाकिस्तान-पोषित आतंकवादियों का इलाका—बारामूला और कुपवाड़ा, बी.एस.एफ. के जवान, खरतों के बीच।मंत्री—आप लोगों को कोई दिक्कत तो नहीं ?बी.एस.एफ. का एक जवान-दिक्कत कोई नहीं, बस कई बार हमारी डेड बॉडी घर नहीं पहुँच पाती.....सन् ’89-90, अयोध्या राम मंदिर, बाबरी मस्जिद का मामला तूल पर, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, आर.एस.एस., भाजपा की राजनीतिक मिलीभगत, जबरदस्त हिन्दुत्ववादी तूफान। लखनऊ, कपूरथला काम्प्लेक्स के पान की दुकान ! दुकान में प्रस्तावित राम मंदिर का नक्शा।-तो इस बार तुम भारतीय जनता पार्टी को जितवाओगे ?

पानवाला—हम पागल नाहीं हैं साब ! मंदिर भारतीय जनता पार्टी से बनवाएंगे...सरकार कांग्रेस से चलवाएंगे !
फैज़ाबाद : राम जन्म भूमि तो मिल जाएगी, पर मातृभूमि चली जाएगी !
एक फाश फ़िल्मी बातचीत-सन् ’93-खलनायिका की शूटिंग, दिल्ली में—बातें वही....
शुरू : इंशाअल्ला ! कपड़े उठाए, खोला, देखा : सुभान अल्ला ! दाखिला : माशा अल्ला ! और फिर : अल्ला ! अल्ला ! अल्ला !
अनीता और गायत्री की बातचीत—अनीता की जुबानी-8-6-93.
गायत्री : हाँ इन्होंने डेन बना लिया है। सुबह से उसमें घुस जाते हैं—लिखने के लिए। लगता है कल तक उपन्यास खत्म कर देंगे...फिर मन उचटता है तो उठकर कहीं भी चले जाते हैं....
अनीता : तो पूछ तो लिया करो, कहाँ जा रहे हो ?
गायत्री : पूछ कर इन्हें मुश्किल में क्यों डालूँ !
वही दिल्ली। फ़िल्म खलनायिका की शूटिंग। जितेंद्र, जयप्रदा, अनु अग्रवाल, वर्षा उसगाँवकर और महमूद—शूटिंग देखने आए कुछ पाकिस्तानी। बातचीत में कुछ तनाव और अजीब-सा मोड़।
महमूद : सुनो ! हम तुमसे पैदा नहीं हुए हैं...तुम हमारे नुत्फे से पैदा हुए हो, हिन्दुस्तान से पाकिस्तान पैदा हुआ है...समझे !
वही फ़िल्मी शाम।
-पकड़े गए जनाब, एक प्राइवेट शो में माशूका का हाथ पकड़े बैठे थे। पीछे आकर बीवी बैठ गई ! हालत खराब।
-फिर ?
-फिर क्या, दूसरे हाथ से बीवी के पैर पकड़ लिए।वही फ़िल्मी गुफ्तगू। एडीटर प्राण मेहरा। शादी। सर्दियां। कश्मीर में हनीमून।
बीवी-हाय रब्बा, तुसी तो कुल्फी मार दित्ती !वही माहौल : कोई और जोड़ा। बीवी को पूरा अनुभव।
-फिर वही !
-नहीं...बिलीव भी।
-तब इतनी रात कहाँ से आए हो ?
-पार्टी में था।
-पार्टी में थे...ओके...आओ, बैडरूम में आओ !
-बैड रूम ! बैड...
-अब क्या हुआ ?
-सॉरी डार्लिंग ! इस बार माफ कर दो। मैं बहुत शर्मिंदा हूँ !

प्रस्तुति : इरशाद

अक्षरों के साये/अमृता प्रीतम

मौत के साये
जब मैं पैदा हुई, तो घर की दीवारों पर मौत के साये उतरे हुए थे...मैं मुश्किल से तीन बरस की थी, जब घुटनों के बल चलता हुआ मेरा छोटा भाई नहीं रहा। और जब मैं पूरे ग्यारह बरस की भी नहीं थी, तब मां नहीं रही। और फिर मेरे जिस पिता ने मेरे हाथ में कलम दी थी, वे भी नहीं रहे...और मैं इस अजनबी दुनिया में अकेली खड़ी थी-अपना कहने को कोई नहीं था। समझ में नहीं आता था-कि ज़मीन की मिट्टी ने अगर देना नहीं था, तो फिर वह एक भाई क्यों दिया था ? शायद गलती से, कि उसे जल्दी से वापिस ले लिया और कहते हैं-मां ने कई मन्नतें मान कर मुझे पाया था, पर मेरी समझ में नहीं आता था कि उसने कैसी मन्नतें मानीं और कैसी मुराद पाई ? उसे किस लिए पाना था अगर इतनी जल्दी उसे धरती पर अकेले छोड़ देना था...लगता-जब मैं मां की कोख से आग की लपट-सी पैदा हुई-तो ज़रूर एक साया होगा-जिसने मुझे गाढ़े धुएं की घुट्टी दी होगी...बहुत बाद में-उल्का लफ़्ज सुना, तब अहसास हुआ कि सूरज के आस पास रहने वाली उल्का पट्टी से मैं आग के एक शोले की तरह गिरी थी और अब इस शोले के राख होने तक जीना होगा...
आने वाले वक्त का साया
जब छोटी-सी थी, तब सांझ घिरने लगती, तो मैं खिड़की के पास खड़ी-कांपते होठों से कई बार कहती-अमृता ! मेरे पास आओ।शायद इसलिए कि खिड़की में से जो आसमान सामने दिखाई देता, देखती कि कितने ही पंछी उड़ते हुए कहीं जा रहे होते...ज़रूर घरों को-अपने-अपने घोंसलों को लौट रहे होते होंगे...और मेरे होठों से बार-बार निकलता-अमृता, मेरे पास आओ ! लगता, मन का पंछी जो उड़ता-उड़ता जाने कहां खो गया है, अब सांझ पड़े उसे लौटना चाहिए...अपने घर-अपने घोसले में मेरे पास... वहीं खिड़की में खड़े-खड़े तब एक नज़्म कही थी-कागज़ पर भी उतार ली होगी, पर वह कागज़ जाने कहां खो गया, याद नहीं आता...लेकिन उसकी एक पंक्ति जो मेरे ओठों पर जम-सी गई थी-वह आज भी मेरी याद में है। वह थी-‘सांझ घिरने लगी, सब पंछी घरों को लौटने लगे, मन रे ! तू भी लौट कर उड़ जा ! कभी यह सब याद आता है-तो सोचती हूं-इतनी छोटी थी, लेकिन यह कैसे हुआ-कि मुझे अपने अंदर एक अमृता वह लगती-जो एक पंछी की तरह कहीं आसमान में भटक रही होती और एक अमृता वह जो शांत वहीं खड़ी रहती थी और कहती थी-अमृता ! मेरे पास आओ !अब कह सकती हूं-ज़िंदगी के आने वाले कई ऐसे वक़्तों का वह एक संकेत था-कि एक अमृता जब दुनिया वालों के हाथों परेशान होगी, उस समय उसे अपने पास बुलाकर गले से लगाने वाली भी एक अमृता होगी-जो कहती होगी-अमृता, मेरे पास आओ !
हथियारों के साये
तब-जब पिता थे, मैं देखती कि वे प्राचीन काल के ऋषि इतिहास और सिक्ख इतिहास की नई घटनाएं लिखते रहते, सुनाते रहते। घर पर भी सुनाते थे, और बाहर बड़े-बड़े समागमो में भी लोग उन्हें फूलों के हार पहचानाते थे-उनके पांव छूते थे...उनके पास खुला पैसा कभी नहीं रहा, फिर भी एक बार उन्होंने बहुत-सी रकम खर्च की, और सिक्ख इतिहास की कई घटनाओं के स्लाइड्स बनवाए-जो एक प्रोजक्टर के माध्यम से, दीवार पर लगी बड़ी-सी स्क्रीन पर दिखाते, और साथ-साथ उनकी गाथा-अपनी आवाज़ में कहते, लोग मंत्र-मुग्ध से हो जाते थे...एक बार अजीब घटना हुई। उन्होंने एक गुरुद्वारे की बड़ी-सी दीवार पर एक स्क्रीन लगा कर वे तस्वीरें दिखानी शुरू कीं, आगंन में बहुत बड़ी संगत थी, लोग अकीदत से देख रहे थे, कि उस भीड़ में से दो निहंग हाथों में बर्छे लिए उठ कर खड़े हो गए, और ज़ोर से चिल्लाने लगे-यहां सिनेमा नहीं चलेगा...मैं भी वहीं थी, पिता मुझ छोटी-सी बच्ची को भी साथ ले गए थे। और मैंने देखा-वे चुप के चुप खड़े रह गए थे। एक आदमी उनके साथ रहता था, उस सामान को उठा कर संभालने के लिए, जिसमें प्रोजेक्टर और स्लाइड्स रखने निकालने होते थे...पिताजी ने जल्दी से अपने आदमी से कुछ कहा-और मुझे संभाल कर, मेरा हाथ पकड़ कर, मुझे उस भीड़ में से निकाल कर चल दिए...लोग देख रहे थे, पर खामोश थे। कोई कुछ नहीं कह पा रहा था-सामने हवा में-दो बर्छे चमकते हुए दिखाई दे रहे थे...यह घटना हुई कि मेरे पिता ने खामोशी अख्तियार कर ली। सिक्ख इतिहास को लेकर, जो दूर-दूर जाते थे, और भीगी हुई आवाज़ में कई तरह की कुरबानियों का जिक्र कहते थे, वह सब छोड़ दिया...एक बाद बहुत उदास बैठे थे, मैंने पूछा-क्या वह जगह उनकी थी ? उन लोगों की ?कहने लगे-नहीं मेरी थी। स्थान उसका होता है, जो उसे प्यार करता है...मैं खामोश कुछ सोचती रही, फिर पूछा-आप जिस धर्म की बात करते रहे, क्या वह धर्म उनका नहीं है ?पिता मुस्करा दिए कहने लगे-धर्म मेरा है, कहने को उनका भी है, पर उनका होता तो बर्छे नहीं निकालते...उस वक़्त मैंने कहा था-आपने यह बात उनसे क्यों नहीं कहीं ? पिता कहने लगे-किसी मूर्ख से कुछ कहा-सुना नहीं जा सकता...वह बड़ा और काला बक्सा फिर नहीं खोला गया। उनकी कई बरसों की मेहनत, उस एक संदूक में बंद हो गई-हमेशा के लिए...बाद में-जब हिंदुस्तान की तक्सीम होने लगी, तब वे नहीं थे। कुछ पूछने-कहने को मेरे सामने कोई नहीं था...कई तरह के सवाल आग की लपटों जैसे उठते-क्या यह ज़मीन उनकी नहीं है जो यहां पैदा हुए ? फिर ये हाथों में पकड़े हुए बर्छे किनके लिए हैं ? अखबार रोज़ खबर लाते थे कि आज इतने लोग यहां मारे गए, आज इतने वहां मारे गए...पर गांव कस्बे शहर में लोग टूटती हुई सांसों में हथियारों के साये में जी रहे थे...बहुत पहले की एक घटना याद आती, जब मां थी, और जब कभी मां के साथ उनके गांव में जाना होता, स्टेशनों पर आवाज़ें आती थीं-हिंदू पानी, मुसलमान पानी, और मैं मां से पूछती थी-क्या पानी भी हिन्दू मुसलमान होता है ?-तो मां इतना ही कह पाती-यहां होता है, पता नहीं क्या क्या होता है...फिर जब लाहौर में, रात को दूर-पास के घरों में आग की लपटें निकलती हुई दिखाई देने लगीं, और वह चीखें सुनाई देतीं जो दिन के समय लंबे कर्फ्यू में दब जाती थीं...पर अखबारों में से सुनाई देती थीं-तब लाहौर छोड़ना पड़ा था...थोड़े दिन के लिए देहरादून में पनाह ली थी-जहां अखबारों की सुर्खियों से भी जाने कहां-कहां से उठी हुई चीखें सुनाई देतीं...रोज़ी-रोटी की तलाश में दिल्ली जाना हुआ-तो देखा-बेघर लोग वीरान से चेहरे लिए-उस ज़मीन की ओर देख रहे होते, जहां उन्हें पनाहगीर कहा जाने लगा था... अपने वतन में-बेवतन हुए लोग....चलती हुई गाड़ी से भी बाहर के अंधेरे में मिट्टी के टीले इस तरह दिखाई देते-जैसे अंधेरे का विलाप हो ! उस समय वारिस शाह का कलाम मेरे सामने आया, जिसने हीर की लंबी दास्तान लिखी थी-जो लोग घर-घर में गाते थे।
तब अजीब वक्त सामने आया-यह नज़्म जगह-जगह गाई जाने लगी। लोग रोते और गाते। पर साथ ही कुछ लोग थे, जो अखबारों में मेरे लिए गालियां बरसाने लगे, कि मैंने एक मुसलमान वारिस शाह से मुखातिब होकर यह सब क्यों लिखा ? सिक्ख तबके के लोग कहते कि गुरु नानक से मुखातिब होना चाहिए था। और कम्युनिस्ट लोग कहते कि गुरु नानक से नहीं-लेनिन से मुखातिब होना चाहिए था...यह सब होता रहा-पर नज़्में-मुझ पर जैसे बादलों सी घिरतीं और बरस जातीं-उस वक्त पंजाब की कहानी लगी
उन दिनों जनरल शाह नवाज़ अगवा हुई लड़कियों को तलाश रहे थे, उनके लोग, जगह-जगह से टूटी बिलखती लड़कियों को ला रहे थे-और पूरा-पूरा दिन-ये रिपोर्ट उन्हें मिलती रहतीं। मैंने कुछ एक बार उनके पास बैठ कर बहुत सी वारदातें सुनीं। ज़ाहिर है कि कई लड़कियां गर्भवती हालात में होती थीं...उस लड़की का दर्द कौन जान सकता है-जिसके दिल की जवानी को ज़बर से मां बना दिया जाता है....एक नज़्म लिखी थी-मज़दूर ! उस बच्चे की ओर से-जिसके जन्म पर किसी भी आंख में उसके लिए ममता नहीं होती, रोती हुई मां और गुमशुदा बाप उसे विरासत में मिलते हैं...
मेरी मां की कोख मजबूर थी-मैं भी तो एक इन्सान हूंआजादियों की टक्कर मेंउस चोट का निशान हूंउस हादसे का ज़ख्म जो मां के माथे पर लगना थाऔर मां की कोख को मजबूर होना था...मैं एक धिक्कार हूं-जो इन्सान की जात पर पड़ रही..और पैदाइश हूं-उस वक्त कीजब सूरज चांद-आकाश के हाथों छूट रहे थेऔर एक-एक करके सब सितारे टूट रहे थे...मैं मां के ज़ख्म का निशान हूंमैं मां के माथे का दाग हूंमां-एक जुल्म को कोख में उठाती रहीऔर उसे अपनी कोख सेएक सड़ांध आती रहीकौन जान सकता हैएक जुल्म को, पेट में उठाना हाड़-मांस को जलानापेट में जुल्म का फल रोज-रोज़ बढ़ता रहा...और कहते हैं-आज़ादी के पेड़ को-एक बौर पड़ता रहा...मेरी मां की कोख मजबूर थी
क्रमशः
प्रस्तुति : इरशाद

रविश कुमार के 600 दोस्त क्यों हैं?

जब हिन्दी ब्लॉगिंग शुरू की थी, तो बहुत सारे ब्लॉग पढ़ता था, जब इस पर पुस्तक लिखी तब उन सबका विवेचन भी करना पड़ा। ये तब की बात है जब हजार एक्टिव ब्लॉगर मुश्किल से मिल पा रहे थे। ब्लॉगिंग में ऐसे-ऐसे लोग पैदा हुए जिन्होने अपने दम पर, अपने लेखन के दम पर। अपनी पहचान को कायम किया। मैंने सिर्फ इन बेहतरीन लिखने वालों से प्रेरित होकर इन्ही के बारे में लिखना आरम्भ किया। जो अभी तक जारी हैं। आज भी जब देखता हुं अनुप जी, समीरभाई, रवि रतलामी, संजय बैंगाणी, अविनाश, नीलीमा, प्रत्यक्षा, घूघुती-बासुती और बहुत सारे नाम जिनके बिना हिन्दी ब्लॉगिंग की बातें ही अधूरी है। ये सब अपने अलग से लेखन की वजह से पहचाने गए। आज और भी नए लिखने वाले आ गए है जो सिद्ध कर रहे है कि वो भी अलग सा लिख कर हिन्दी ब्लॉगिंग की लोकप्रियता को बढ़ाकर अपनी पहचान को भी कायम करेगें।
मैं हमेशा ही ऐसा अलग सा लिखने वालों पर अलग सी टिप्पणी करने से भी नही चूकता, क्योकि ये बताना बेहद जरूरी है कि आप अलग लिख ही नही रहे बल्कि हिन्दी ब्लॉगिंग की लोकप्रियता में एक बड़ा योगदान दे रहे हैं। ब्लॉगिंग में अगर अच्छा लिखा जा रहा है तो खराब भी लिखा जा रहा है, वैसे इसको खराब कहना उचित ना होगा, क्योंकि ब्लागर अपनी समझ के हिसाब से बढ़िया ही लिखता है, लेकिन जब वह लिखने की हिंसात्मक प्रवृति पर उतारू हो जाता है तब उसका क्या किया जाए। वह घन्टे दो घन्टे में नयी-नयी पोस्टे देने लगता है। ऐसे ब्लॉगर ही 6 से 600 और 600 से 6000 हो जाते हैं। इन सब का पता आपको रविश कुमार के फेसबुक एकाउंट से चल सकता हैं। अब बात करते है रविश भाई साहब की।
रविश मेरे पसन्दीदा ब्लागरों में से है। कस्बा ने हिन्दी ब्लॉगिंग में अपनी एक खास जगह को बना लिया है। इसकी वजह शायद ये है कि वो काले को काला और सफेद को सफेद कहने से कभी नही कतराते, ये शायद अविनाश से उन्होने सीखा हो, इसलिये इन पर अल्पसंख्यों का हिमायती होने का आरोप भी लगता रहा है, लेकिन इन सब से परे रविश अपना बेहतरीन लिखने से पीछे नही हटते हैं। आज हम सबको रविश को मुबारकबाद देनी चाहिये, क्योंकि रविश के फेसबुक एकाउंट में 630 दोस्त बन गए है, ये 630 लोग कौन है, और ये रविश से क्या चाहते है। रविश इन 630 लोगों का मतलब समझते है लेकिन अंजान बने रहते है, क्योकि इसमें एक सुख है, और रविश इस सुख का मजा लेते है। ये मजा ऐसा ही है जैसे कोई घमण्डी जमीदार अपनी गरीब-गुरबा जनता के बीच उनके फैसले सुलझा रहा हो, कोई अन्नदाता, माईबाप लोगों को उनकी जीविका बांट रहा हो। तो रविश के पास ऐसा क्या है कि 630 लोग दौड़े-दौड़े अपना मित्रता निमंत्रण पत्र उठाये हुजूर के दरबार में पेश हुए जाते हो, और कहते हो- माईबाप ज्यादा तो कुछ ना बन पड़ा बस यही एक मित्रता प्रस्ताव है, स्वीकार कर लिजे, और राजा अपनी दयालूता का परिचय देता है, और सबको अपने फेसबुक एकाउंट में जगह देता हैं। मुनादी कर दी जाती है अब 600 लोग हमारे सखा हो गए हैं। दरबार लम्बा-चैड़ा है, ये 600 गरिब-गुरबा लोग आखिर अपने दयालू राजा से क्या चाहते हैं। दो बातें हैं जो राजा इनकी पूरी कर सकता हैं। पहली, वे चिल्ला-चिल्ला कर सबको बता सके- अरे एनडीटीवी वाला रविश अपना दोस्त हैं, अरे वही जो खबरे पढ़ता है- अपना पुराना यार हैं। दूसरी, रविश भाई मैं भी बहुत बढ़िया ब्लाग लिखता हूं, और आपका दोस्त भी हूं, मेरा जिक्र भी अपने कालम में करो ना।
अच्छा एक बात- क्या मुझे इन 600 लोगों ने आकर बताया कि वो रविश से क्या चाहते है या मुझे ऐसे सपने आते है। नहीं ये बात नही है। आज की तारीख में फेसबुक से ज्यादा चलने वाला आर्कुट साइट देखिये। रविश वहां भी है लेकिन वहां भाई के केवल 17 मित्र है, वहां मैत्री प्रस्ताव स्वीकारे नहीं जाते है। ये भेदभाव क्यों है, नही पता चला। वैसे ये ऐसा ही है जैसे कोई नेता उसी इलाके से खड़ा हो जहां से उसे जीतने की प्रबल सम्भावना दिखाये दें। ये तो पुछिये ही नही यहां रविश की चापलूसी करने वाले कितने स्क्रेप आपको दिखाये देगें। बस कुछ भी हो, अन्नदाता हमें पढ़ लो, बस एक बार पढ़ लो तो ये जीवन सफल हो जाए।
मेरी इस पोस्ट को जितने लोग पढ़ रहे है क्या उन्होने कभी रविश की किसी पोस्ट पर टिप्पणी की है?, क्या रविश ने आपकी किसी पोस्ट पर कभी टिप्पणी की है?, क्या आपने किसी और के ब्लॉग पर रविश की टिप्पणी देखी हैं? अरे ये कैसा राजा है जो सिर्फ लेना जानता हैं, किसी को देना नही। क्या इसको एक तरफा ब्लॉगिंग करना कहते है, ब्लॉगिंग में अगर प्रतियोगिताए आयोजित की गयी, तो उनमें एक प्रतियोगिता ये भी होनी चाहिये- तलाश किजिये रविश ने किस ब्लॉग पर और कब टिप्पणी की है, और जीतिये दो लोगों के लिये तीन दिन का फ्री सिंगापुर टूर। लोग कहेगें भले ही इनाम में एक बाॅल पैन दे दो, लेकिन प्रतियोगिता तो आसान करो।
खैर रविश हमेशा की तरह से मेरे प्रिय बने रहेगें। इस बात से रविश के लेखन का कोई मतलब नहीं है, मेरी ही तरह के सैंकड़ो ब्लॉगर उनको अपने पहले पेज पर लगाते हैं। वो हमेशा की तरह शानदार लिखते रहेगें। हिन्दी ब्लॉगिंग में गजब की अदबनवाजी है, आप जरा सी किसी को कोई टिप्पणी दो, वो तुरन्त आपको शुक्रिया का सन्देश भेज देता है, और अगर आप किसी को पंसन्द कर रहे हो, लगातार उसको बताते भी हो, अच्छे-बुरे विचारों में उसको भागीदार बनाते हो और वो इतनी बेरूखी दिखाये, तो ये खालीपन सालता हैं।