ये कौन जावेद अख्तर है?

अपने काम के ताल्लुक से अक्सर अदबी और साहित्यिक सम्मेलनों में शिरकत करने का मौका मिलता रहा है। मुशायरों और कवि सम्मेलनो में शिरकत के बहाने देश के लगभग सभी मशहूर शाइरो और कवियों को करीब से जानने और समझने का मौका मिला है। भारत में अनेक राष्ट्रीय स्तर के साहित्यिक कार्यक्रम होते रहते है यह क्रम देशभर में वर्ष भर चलता रहता है। अनेक प्रसिद्ध कार्यक्रम जो उल्लेखनीय है उनमे जश्ने-ए-बहार मुशायरा, शंकर शाद मुशायरा, साहित्य अकादेमी का मुशायरा, लालकिले का मुशायरा तथा और भी कई मुशायरे होते है जिनमे किसी शाइर का पढ़ लेना वाकई बड़े सम्मान का विषय होता है। चूकीं आज मुझे सिर्फ जावेद अख्तर साहब के ताल्लुक से ही अपनी बात कहनी है। यहाँ में सिर्फ उनसे अपनी मुलाकात जो पिछले दिनों शंकर शाद मुशायरें के दौरान हुई थी का जिक्र करूंगा लेकिन पहले हम जाने जावेद भाई की जिन्दगी के कुछ सुनहरे पन्ने।
जावेद किसी जमाने में एक जिन्दादिल इंसान हुआ करते थे। आपकी पैदाइश ग्वालियर में हुई लेकिन आपने अपने आपको जावेद लखनऊ, अलीगढ। और भोपाल में रहते हुए बनाया। इस जमाने को आप ब्लैक एण्ड वाइट भी कह सकते है जब जावेद अपना निर्माण कर रहे थे। यह उनकी पढ़ाई और तरबियत का दौर था। आपके अब्बा जनाब जाँ निसार अख्तर साहब उस जमाने के मशहूर शाइर थे। आप उनके बड़े बेटे है और छोटे है सलमान अख्तर जो आजकल अमेरिका में है बहैसियत एक डाक्टर के। जावेद साहब को उर्दू और शायराना मिजाज अपने अब्बा से विरासत में मिला जिसे आगे चलकर उन्होने अपने फकीरी स्वभाव के चलते दिनो-दिन उरूस पर पहुँचाया। आज जावेद अख्तर चाहे जितने कामयाब हो लेकिन सच्ची बात यही है कि वो उनका गोल्डन टाइम था। जब जावेद कुछ भी नही थे लेकिन सब कुछ थे। आप उन्हे ही जावेद अख्तर जानिये आज जो शक्स है न जाने कहाँ से आया है शायद बम्बई की पैदाइश और बाजारीकरण की देन हैं। एक बात जो १०० फिसदी सच है कि कोई भी कलाकार सिर्फ एक कलाकार नही होता वह अवाम की अमानत भी होता है उसका फन विरासतो और संस्कृतियों का निर्माण करता है। इसलिये वो लोग अमर होते है यह ईश्वर की देने होते है जो समाज को गति प्रदान कर उन्हे राह दिखाने का भी काम करते है लेकिन जब किसी मान, सम्मान, लालच, शौहरत, पैसे के बदले इसका सौदा होता है तब कला मर जाती है और दिखावा रह जाता है। लेकिन सच्चा फनकार कभी अपनी जमीन और जड़े नही छोड़ता है।
शौहरत, इज्जत, दौलत उसकी राह के रोड़े होते है, सच्चा फनकार मिजाज का फकीर होता है और फकीर ही रहता है। जावेद भाई की जिन्दगी का एक बड़ा हिस्सा इसी फकीरी में गुजरा है आप शेर तो बहुत पहले से ही कहते है इसके अलावा किस्सागोई भी करते थे। हर चीज को देखने समझने का एक अलग ही नजरिया और फाकामस्ती का आलम रोटी मिली तो खा ली नही तो ऐसे ही सो रहे है कभी किसी हॉस्टल मे या यार दोस्त के कुचे में। अदब से गहरा नाता है लेकिन कामयाबी है कि नसीब ना होती है शहर बदलते है कुछ हाथ नही आता है धक्के खाते है कुछ हाथ नही आता है लेकिन एक चीज है जो निखर रही है लगातार मंझती जा रही है वो है आपकी शाइरी और कलमकारी, उर्दू से मौहब्बत और बिगड़ी हुई सोहबत, सब आपकी अपनी चीजे है। लेकिन यह कामयाबी का सितारा है कि बादलो से निकल ही नही रहा है फिर धीरे से बहुत ही मद्धम से किसी की नजर आप पर पड़े तो रोटी पानी का जुगाड़ हो। यहाँ सिर्फ एक ही चीज आपकी मददगार है उर्दू की आपकी काबलियत और जो धक्के आपने खाऐ है। फिर छुटपूट कुछ काम बन जाता है हनी से आपकी मौहब्बत हो जाती है। जावेद भाई ने यूँ तो न जाने कितनी मौहब्बते बेनामी के रास्तो पर छोड़ दी होगी जिनका आज कोई नाम भी नही है। लेकिन हनी ईरानी अपनी जड़े लगभग जमा चुकी थी और हिन्दी सिनेमा से आपका हिसाब-किताब चल पड़ा था। जावेद साहब का यह एक ईमानदार दौर था।
फिर सलीम साहब से आपकी टूयुनिंग हुई। आपको पता है कि सलीम साहब के लेखन में नाटकियता का पुट होता था जो उस दौर के सिनेमा के लिये बेहद जरूरी होता था लेकिन जावेद मियां का साथ उसे असरदार और रोचक बना देता था जिससे आप दोनो का काम बेहद प्रभावशाली व वास्तविक बन पड़ता था। सलीम और जावेद एक दूसरे के पूरक थे। भारतीय फिल्मों को एक नई डगर और संस्कार देने में आप दोनो ने अपना नया रास्ता खोजा था। बाद में जावेद अलग हो गये थे और आज तक अलग ही है और अकेले भी कामयाब रहे लेकिन सलीम साहब ने काम को अलविदा कह दिया फिर भी यदा कदा आप का काम देखने में आ जाता है। अभी पिछले सालो मे आई फिल्म बांगबा में सलीम जावेद एक बार फिर साथ थे। इसमे सलमान खान के लिये एक सीन में डायलॉग सलीम साहब ने लिखे थे जबकि अमिताभ बच्चन के लिये जावेद मियां ने लिखे है। यहां इस सीन मे दोनो को एक दूसरे के लिये बोलना होता है फिल्म में जब अमिताभ बच्चन को बुकर अवार्ड मिलता है। रवि चौपड़ा दोनो को फिर से साथ ले आये इसमे चाहे सलीम भाई अपने बेटे सलमान खान की वजह से आये हो। खैर बाद के दिनो मे जावेद अकेले ही काम करते रहे शबाना आजमी की तरफ आपका खिंचाव हुआ जो बाद में हनी ईरानी से आपके अलगाव के साथ खत्म हुआ। लेकिन आपकी मौहब्बत की निशानी फरहान अख्तर और जोया के रूप में हमारे सामने है। इसी तरह के और भी बहुत सारे उतार चढ़ाव जावेद के साथ चलते रहे है और इन उतार चढ़ावों के साथ दिन ब दिन जावेद भी कदम ताल करते रहे है। लेकिन अगर कुछ छूटा है तो जावेद अख्तर से जावेद अख्तर का साथ। अब जावेद अख्तर नही रहें अब कोई और वहां रहता है। शौहरत की खातिर जावेद को अपनी जड़ो से हाथ धोना पड़ा। अब वह किसी उद्योगपति की तरह से जीवनयापन करते है किसी फनकार की मानिन्द जिन्दगी बसर करना अब उनके हाथ न रहा। और उर्दू का इस्तेमाल वह राजनेताओ की तरह भाषणबाजी के लिये करते है। नये जमाने के सभी चोचले अब जावेद साहब की झोली में मिल जाते है। वह कही किसी अन्याय का विरोध करते नजर आते है जिसका कुछ नतीजा नही निकल पाता है या किसी चैनल मे बहस की धार को तेज करते हुए पाये जाते है।
फनकार के लिबास में न जाने कौन शक्स है जो दिन ब दिन नये नये नाटक खेलता फिर रहा है। आजकल एक टीवी शो में जज हुए जाते है और फैसला सूना देते है। शंकर-शाद मुशायरा चल रहा था। देशभर के कामयाब और मशहूर शायरो को कलाम पेश करने की दावत दी गई थी दावत मे जावेद साहब को भी बुलाया गया था। मुशायरा बेहद कामयाब रहा सभी शाइर मंच पर बैठ हुए थे । मशहूर शाइर मलिकजादा मजूंर कार्यक्रम का संचालन कर रहे थे। सभी शाइर मंच पर बैठे हुए थें। लेकिन जावेद अख्तर साहब मंच पर नही बल्कि मंच के सामने खास तरीके से बनाई हुई व्यवस्था में बैठे हुए थे। मानो सारे शाइरो को जज कर रहे हो। वहां एक से बढ़ कर एक शाइर मौजूद थे जिनमे से बहुत तो बेहद बुर्जूग शाइर थे लेकिन जावेद साहब को उनके साथ बैठना गंवारा न हुआ। क्योकी एक सेलीब्रिटी की हैसीयत जो रखते है इसलिये या फिर वह सभी शाइर उन के मुकाबले बेहद छोटे मालूम नजर आते थे उन्हे। इसलिये उन्होने सबको जज करने की सोची हो। तभी एक भले से सज्जन (भारत के मशहूर प्रकाशन संस्थान डायनेमिक पब्लिकेशसं प्रा लि के मालिक सतेन्द्र रस्तोगी जी) जावेद साहब से आटोग्राफ लेने पहुंचे जावेद साहब ने आटोग्राफ देने से मना कर दिया और कह दिया कि वह सिर्फ अपनी ही किताब पर आटोग्राफ देते है जबकि बराबर में बैठी हुई शबाना आजमी सब लोगो को खूब आटोग्राफ दे रही थी। क्या यह जावेद अख्तर साहब का अहंकार नही है क्या शौहरत ने उनको आम बोलचाल से भी मरहूम कर दिया। क्या उनके इस व्यवहार से लगता है की उन्होने आज भी अपनी जड़ो को पकड़ रखा है। इसी बीच मेरी उन से कुछ मुक्तसर बातचीत हुई थी उन्ही कि किताब तरकश को लेकर लेकिन उन्होने उसे सुनकर भी अनसुना कर दिया था। मेरे साथ ही नही बल्कि वह सबके साथ इसी तरह हिकारत से पेश आ रहे थे मानो सब गरीब-गुरबा लोग हो वह सबके अन्नदाता हो। इसके बाद मैने फिल्मलाइन से जूडे अपने दोस्तो से भी बातचीत की थी सबका यही रियेक्शन था कि वह एक मशहूर चेहरा है और बिकाउ नाम है। अगर ऐसा है तो उर्दू और अदब की खिदमत ऐसे ही की जाती है। हम क्यों नकली चेहरा लगाकर झूठी तस्वीर पेश करे। जावेद भाई एक सच्चे फनकार थे जिन्होने जिन्दगी के तमाम सघर्षो को झेला है वह बखूबी समझते है कामयाबी आसान शर्तो पर नही मिलती है। फिर ऐसा कोई भी व्यवहार उनके चाहने वालो का दिल दुखा सकता है।
इरशाद