धीरे से उम्र गुजरी है
दबें कदमों की आहट से
किसी को पता ना चलें
तुम कहां से आये हो
पुरानी सी कोई बात हो चली
जैसे स्कूल के दिन
पतंग उड़ाने का लुत्फ
बारिश में नहाना
जोर से चिल्लाना
देर से उठना
रात तक जागना
गली में बैठना
और जाने क्या-क्या
अब एक रूटिन है
बस कुछ और नहीं
हम बढ़े हो गये।
इरशाद
11 comments:
बचपन कब धीरे से हमसे अलग सा हो जाता है ...पता ही नहीं चलता है ....और फिर वकत के साथ अपने दूर होने का अहसास भी देता है .....ये अहसास बहुत मधुर होता है .....इन पंक्तियों में यही भाव दिख रहा है.....इरशाद जी बहुत सुंदर
aapne bachpan se bade hone ki dili bhavon ko bahut achchhe se pesh kiya hai ....
सुन्दर अहसास-कब बचपन धीरे से गुजर जाता है देखो तो!!
बढ़िया लगा पढ़कर.
पतंग उड़ाने का लुत्फ
बारिश में नहाना
जोर से चिल्लाना
देर से उठना
रात तक जागना
जोर से चिल्लाना ....बहोत खूब........!!
अगर हम स्वयं को निश्छल और ओज से ओतप्रोत करलें तो अब भी अपने बचपन को अपने भीतर जी सकते हैं।
सुन्दर कविता।
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SBAI TSALIIM
देर से पढ़ पाया। पर क्या खूब लिखा है आपने। मेरे ब्लॉग पर भी आएं।
बहुत सुंदर भाव.
रामराम.
bachpan pe kya boloon...isse juda har ehsaas sanvedna paida karta hai
www.pyasasajal.blogspot.com
बेहतरीन भावाभिव्यक्ति के लिये साधुवाद
namaskar mitr,
main bahut der se aapke post padh raha hoon ..
ye kavita mujhe bahut acchi lagi ..zindagi ki daud me bachpan jaane kahan kho gaya yaar.. aankhen bheeg gayi is post ko padhkar..
badhai sweekar karen
dhanywad,
vijay
pls read my new poem :
http://poemsofvijay.blogspot.com/2009/05/blog-post_18.html
आपका ब्लोग बहुत सुन्दर लगा। यह कवित भी मन को भा गई।
धन्यावाद
मीना
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