वो कभी दूसरों जैसे थे ही नहीं, लेकिन बचपन में ये बात मेरे नन्हें से दिमाग में समाती ही नहीं थी..... न तो वे आफ़िस जाते थे, न अंग्रेज़ी बोलते थे और दूसरों के डैडी और पापा की तरह पैन्ट पहनते थे- सिर्फ सफ़ेद कुर्ता-पाजामा वो ‘डैडी’ या ‘पापा’ के बजाय ‘अब्बा’ थे-ये नाम भी सबसे अलग ही था-मैं स्कूल में अपने दोस्तों से उनके बारे में बात करते कुछ कतराती ही थी-झूट-मूट कह देती थी कि वो कुछ ‘बिज़नेस’ करते हैं- वर्ना सोचिए, क्या यह कहती कि मेरे अब्बा शायर हैं ? शायर होने का क्या मतलब ? यही न कि कुछ काम नहीं करते !
बचपन में मुझे अपने माँ-बाप की बेटी होने की वजह से कुछ अनोखे तजुर्बें भी हुए, जैसे कि जिस अंग्रेज़ी स्कूल में मेरा दाखिला कराया जा रहा था, वहां शर्त थी कि वही बच्चें दाखिला पा सकते हैं जिनके माँ-बाप को अंग्रेजी आती हो-क्योंकि मेरे माँ-बाप अंग्रेज़ी नहीं जानते थे इसलिए मेरे दाखिले के लिए मशहूर शायर सरदार जाफ़री की बीवी सुल्ताना जाफ़री मेरी माँ बनीं और अब्बा के दोस्त मुनीश नारायण सक्सेना ने मेरे अब्बा का रोल किया। दाखिला तो मिल गया मगर कई बरस बाद मेरी वाइस प्रिन्सिपल ने मुझे बुलाकर कहा कि कल रात उन्होंने एक मुशायरे में मेरे अब्बा को देखा और वो उन अब्बा से बिल्कुल अलग थे जो ‘पेरेन्ट्स डे’ पर स्कूल आते हैं। एक पल तो मेरे पैरों तले ज़मीन निकल गई, फिर मैंने जल्दी से कहानी गढ़ी कि पिछले दिनों टयफ़ॉइड होने की वजह से अब्बा इतने दुबले हो गए हैं कि पहचाने नहीं जाते-बेचारी वाइस प्रेन्सिपल मान गई और मैं बाल-बाल बच गई।
अब्बा को छुपाकर रखना ज्यादा दिन मुमकिन न रहा। उन्होंने फिल्मों में गीत लिखना शुरू कर दिए थे और एक दिन मेरी एक दोस्त ने क्लास में आकर बताया कि उसने मेरे अब्बा का नाम अखबार में पढ़ा है। बस, उस पल के बाद बाज़ी पलट गई-जहाँ शर्मिंदगी थी, वहाँ गौरव आ गया। चालीस बच्चे थे क्लास में मगर किसी और के पापा का नहीं, मेरे अब्बा का नाम छपा था अखबार में। अब मुझे उनका सबसे अलग तरह का होना भी अच्छा लगने लगा। वो सबकी तरह पैन्ट-शर्ट नहीं, सफेद कुर्ता-पाजामा पहनते हैं-जी ! अब मैं उस काले रंग की गुड़िया से भी खेलने लगी थी जो उन्होंने मुझे कभी लाकर दी थी और समझाया था कि सारे रंगों की तरह काला रंग भी बहुत सुन्दर होता है। मगर मुझे तो सात बरस की उम्र में वैसी ही गुड़िया चाहिए थी जैसी मेरी सारी दोस्तों के पास थी-सुनहरे बालों और नीली आँखों वाली। मगर अब जब कि मुझे सबसे अलग अब्बा अच्छे लगने लगे तो फिर उनकी दी हुई सबसे अलग गुड़िया भी अच्छी लगने लगी और जब मैं अपनी काली गुड़िया लेकर आत्मविश्वास के साथ अपनी दोस्तों के पास गई और उन्हें अपनी गुड़िया के गुण बताए तो उनकी सुनहरे बालों और नीली आँखों वाली गुड़िया उनके दिल से उतर गई। ये सबसे पहला सबक था जो अब्बा ने मुझे सिखाया, कि कामयाबी दूसरों की नक़्ल में नहीं, आत्मविश्वास में है।
हमारे घर का माहौल बिल्कुल ‘बोहिमियन’ था। नौं बरस की उम्र तक मैं अपने माँ-बाप के साथ कम्युनिस्ट पार्टी के ‘रेड फ्लैग हॉल’ में रहती थी। हर कामरेड परिवार को एक कमरा दिया गया था। बाथरूम वगैरह तो कॉमन था। पार्टी मैम्बर होने के नाते से पति-पत्नी की जिन्गदी आम ढर्रे से जरा हट के थी। ज्यादातर पत्नियाँ वर्किंग वुमैन थीं- बच्चों को सम्भालना कभी माँ की जिम्मेदारी होती, कभी बाप की। मम्मी पृथ्वी थियेटर्स में काम करती थीं और और अक्सर उन्हें टूर पर जाना होता था-तो उन दिनों मेरे छोटे भाई बाबा और मेरी सारी ज़िम्मेदारी अब्बा पर आ जाती थी।
मम्मी ने काम शुरू तो आर्थिक जरूरतों के लिए किया था क्योंकि अब्बा जो कमाते थे वो पार्टी को दे देते थे। पार्टी उन्हें महीने का चालीस रुपए ‘अलाउन्स’ देती थी। चालीस रुपए और चार लोगों का परिवार ! बाद में हमारे हालात थोड़े बेहतर हो गए। फिर हम लोग जानकी कुटीर में रहने आ गए मगर मम्मी ने थियटर में काम जारी रखा। उनकी थियटर में बहुत प्रशंसा होती थी और उन्हें भी अपने काम से बहुत प्यार था। मुझे याद है, महाराष्ट्र स्टेट प्रतियोगिता के लिए वो एक ड्रामा ‘पगली’ की तैयारी कर रही थीं और अपने रोल में इतना खोई रहती थी कि वो डॉयलॉग ‘पगली’ के अन्दाज़ में बोलने लगती थीं, कभी धोबी से हिसाब लेते हुए कभी सरोई में खाना पकाते हुए। मुझे लगा मेरी माँ सचमुच पागल हो गई हैं मैं रोते हुए अब्बा के पास गई जो अपनी मेज़ पर बैठे कुछ लिख रहे थे। अपना काम छोड़कर वे मुझे समुन्दर के किनारे ले गए। रेत पर चलते-चलते उन्होंने मुझे समझाया कि मम्मी को कितने कम वक़्त में कितने बड़े ड्रामे की तैयारी करनी पड़ रही है और हम सबका, परिवार के हर सदस्य का, ये कर्तव्य है कि वो उनकी मदद करे, वर्ना वो इतनी बड़ी प्रतिय़ोगिता में कैसे जीत पाएँगी ! बस, फिर क्या था-मैंने जैसे सारी जिम्मेदारी जैसे अपने सिर ले ली और जब मम्मी को ‘बेस्ट एकट्रैस’ का अवार्ड मिला महाराष्ट्र सरकार से, तो मैं ऐसे इतरा रही थी जैसे एवार्ड मम्मी ने नहीं, मैने जीता हो। मम्मी को डॉयलॉग्स याद कराने की जिम्मेदारी अब्बा ने अपनी समझी है- आज भी अगर मम्मी किसी ड्रामे या फिल्म में काम करे तो अब्बा पूरी जिम्मेदारी से बैठ के उन्हें याद करने के लिए डॉयलॉग्य के ‘क्यूज़’ देते हैं।
मेरी माँ भी अब्बा की जिन्दगी में पूरी तरह हिस्सा लेती रहीं हैं। शादी से पहले उन्हें अब्बा पसन्द तो इसलिए आए थे कि वो एक शायर थे लेकिन शादी के बाद उन्होंने बहुत जल्दी ये जान लिया कि कैफ़ी साहब जैसे शाय़रों को बीवी के अलावा भी अनगिनत लोग चाहते हैं। ऐसे शायर पर उनके घरवालों के अलावा दूसरों का भी हक होता है (और हक़ ज़ताने वालों में अच्छी ख़ासी तादात ख़वातीन की होती है)। याद आता है, मैं शायद दस या ग्यारह बरस की होऊँगी अब हमें एक बड़े इन्डस्ट्रियलिस्ट के घर दावत दी गई थी। उन साहब की खूबसूरत बीवी, जिसका उस जमाने की सोसाइटी में बडा़ नाम था, इतरा के कहने लगीं-‘कैफ़ी साहब, मेरी फरमाइश है वहीं नज़्म ‘दो निगाहों का,...समथिंग समथिंग।’ फिर दूसरों की तरफ देखकर फरमाने लगीं-‘पता है दोस्तों, ये नज़्में कैफ़ी साहब ने मेरी तारीफ़ में लिखी है’- और अब्बा बगैर पलक झपकाए बड़े आराम से वो नज़्में सुनाने लगे, जो मुझ अच्छी तरह पता था कि उन्होंने मेरी मम्मी के लिए लिखी थी और मैं अपनी माँ कि तरफदारी में आगबबूला होकर चिल्लाने लगी-‘ये झूठ है। ये नज़्में तो अब्बा मम्मी के लिए लिखी है, उस औरत के लिए थोड़ी।’ महफिल में एक पल तो सन्नाटा-सा छा गया। लोग जैसे अपनी बगले झाँकने लगे। फिर मम्मी ने मुझे डाट के चुप कराया। सोचती हूँ ये डाट दिखावे की ही रही होगी, दिल में तो उनके लड्डू फूट रहे होंगे। बाद में मम्मी ने मुझे समझाया भी कि शायरों का अपना चाहने वालों से एक रिश्ता होता है। अगर वो बेचारी समझ रही थी कि वो नज़्म उसके लिए लिखी गई तो समझने दो, कोई आसमान थोड़े टूट पड़ेगा। ख़ैर, अब उस बात को बहुत बरस हो गए लेकिन हाँ, कैफ़ी साहब ये नज़्म उन मेमसाहब को दोबारा नहीं सुना सके और वो मैडम आज तक मुझसे ख़फ़ा हैं।
अब्बा की महिला दोस्तों में जो मुझे सबसे ज्यादा अच्छी लगती थीं, वो थी बेगम अख़्तर। वो कभी-कभी हमारे घर पर ठहरती थीं। वैसे तो जोश मलीहाबादी, रघुपति सहाय ‘फ़िराक़’ और फैज़’ भी हमारे यहाँ मेहमान रहे हैं, जबकि हमारे घर में न तो कोई अलग कमरा था मेहमानों के लिए न ही अटैच्ड बाथरूम मगर ऐसे फनकारों को अपने आराम-वाराम की परवाह कहाँ होती है ! उनके लिए दोस्ती और मोहब्बत पाँच-सितारा होटल से भी बड़ी चीज होती हैं। उन लोगों के आने पर जो महफ़िले सजा करती थीं, उनका अपना एक जादू होता था और उनकी बातें मनमोहनी हालाँकि मेरी समझ में कुछ ज्यादा नहीं आती थीं, मगर वो शब्द कानों को संगीत जैसे लगते थे। मैं हैरान उन्हें देखती थी, सुनती थी, और वो नदियों की तरह बहती हुई बातें, गिलासों की झंकार, वो सिगरेट के धुँए से धुँधलाता कमरा....। कभी अब्बा ने मुझसे नहीं कहा, ‘जाओ, बहुत देर हो गई है, सो जाओ’ या ‘बड़ों की बातों में क्यों बैठी हो ।’ हाँ, मुझे इतना वादा जरूर करना पड़ता था अगले दिन सुबह-सुबह स्कूल जाने की ज़िम्मेदारी मेरी है मुझे हमेशा से यकीन दिलाया जाता जाता रहा है कि मैं समझदार हूँ अपने फैसले खुद कर सकती हूँ।
फिर मैं मुशायरों में भी जाने लगी। साहिर साहब बहुत लोकप्रिय थे, सरदार ज़ाफरी का बड़ा सम्मान था, मगर कैफ़ी आज़मी की एक अलग बात थी। वो मुशायरे के बिल्कुल आखिर में पढ़ने वाले चन्द शायरों में से एक थे। उनकी गूँजती हुए गहरी आवाज़ में एक अजीब शक्ति, एक अजीब जोश, एक अजीब आकर्षण था। मेरा छोटा भाई बाबा और मैं दोनों आम तौर से मुशायरों के स्टेज पर गावतकियों के पीछे सो चुके होते थे और फिर तालियों की गूँज में आँख खुलती जब कैफ़ी साहब का नाम पुकारा जा होता था। अब्बा के चेहरे पर लापरवाही-सी रहती। मैंने उन्हें कभी न उन तालियों में हैरान होते देखा, न ही बहुत खुश होते। मम्मी की तो हमेशा शिकायत रही कि मुशायरे में आकर ये नहीं बताते कि मुशायरा कैसा रहा, बहुत कुरेदिए तो इतना जावाब मिल जाता था-‘ठीक था’, इससे ज्यादा कुछ नहीं।
मैं शायद सत्तरह-अठ्ठारह साल की थी। वो एक मुशायरे से वापस आए और मैं बस पीछे ही पड़ गई ये पूछने के लिए कि उन्होंने कौन सी नज़्म सुनाई और लोगों को कैसी लगी। मम्मी ने धीरे से कहा कि ‘कोई फायदा नहीं पूछने का’-मगर मुझे जिद हो गई थी कि जवाब लेकर रहूँगी। अब्बा ने मुझे अपने पास बिठाया और कहा, ‘छिछोरे लोग अपनी तारीफ़ करते हैं, जिस दिन मुशायरे में बुरा पढूँगा, उस दिन आकर बताऊँगा।’ उन्होंने कभी अपने काम की नुमाइश नहीं की। गाना रिकार्ड होता तो कभी उसका कैसेट घर नहीं लाते थे। आज के गीतकार तो अक्सर अपने गीत ज़बरदस्ती सुनाते भी हैं और ज़बरदास्ती दाद भी वसूल करते हैं। लेकिन अब्बा कभी क़लम कागज़ पर नहीं रखते जब तक कि ‘डेडलाइन’ सर पर न आ जाए, और फिर फ़िजूल कामों में अपने को उलझा लेते जैसे कि अपनी मेज़ की सभी दराज़ें साफ करना, कई ख़त जो यूँ ही पड़े थे उनका जवाब देना-मतलब ये कि जो लिखना है उसके है उसके अलावा और सब कुछ।
मगर शायद ये सब करते हुए कहीं उनकी सोच कि जो लिखना है उसे भी चुपके-चुपके लफ़्जों के साँचे में ढालती रहती है। फिर जब लिखना शुरू किया तो भले घर में रेडियो बज रहा हो, बच्चे शो मचा रहे हों, घर के लोग ताश खेल रहे हों, हंगामा हो रहा हो-कोई फ़र्क नहीं पड़ता। कभी ऐसा नहीं हुआ कि घर पर खामोशी का हुक्म हो गया कि हाँ काम कर रहे हैं। लिखते वक्त उनकी ‘स्टडी’ का दरवाज़ा भी खुला रहता है, यानी उस पल में भी दुनिया से रिश्ता कम नहीं होने देते। एक बार मैंने उनकी मेज़ कमरे के दूसरे कोने में रखनी चाही कि यहाँ उन्हें बाहर के शोर, दूसरों की आवाज़ों से कुछ तो छुटकारा मिलेगा। मम्मी ने कहा, ‘बेकार है, कैफ़ी अपनी मेज़ फिर यहीं दरवाज़े के पास ले आएँगे’-और ऐसा ही हुआ।
वो लिखते सिर्फ ‘माउन्ड ब्लान्क’ क़लम से हैं। उस कम्पनी के न जाने कितने कलम उनके पास हैं। ये उनका कुल ख़ज़ाना है जिसे अक्सर निकालकर निहायत मोहब्बत भरी निगाह से देखते और फिर सारे ‘माउन्ड ब्लान्क’ दिया, वो भी जब्त करके ख़ज़ाने में दाखिल कर लिया गया जबकि ठीक ऐसे तीन पेन पहले से ख़ज़ाने में मौजूद थे। अब्बा ने मेरी दोस्त को एक प्यारा सा खत लिखकर अच्छी तरह समझा दिया कि उसका भेजा हुआ पेन मेरे बजाए अब्बा के पास कहीं ज्यादा सुरक्षित रहेगा। ये न जाने कितने वर्षों से हो रहा है कि अब्बा मुझे पहली अप्रैल को किसी न किसी तरह ‘अप्रैल फ़ूल’ बना देते हैं। हर साल मैं मार्च के महीने से ही अपने आप से कहना शुरू कर देती कि इस बार मुझे किसी झाँसे में नहीं आना है, मगर क्या मेरी क़िस्मत है कि किसी न किसी वजह से ठीक पहली अप्रैल को ये बात मेरे ख़्याल से निकल जाती है और किसी न किसी तरह वो मुझे एक बार फिर ‘अप्रैल फूल’ बना देते हैं। कम लोग ये जानते हैं कि अब्बा में बहुत जबरदस्त’ सेन्स ऑफ ह्यूमर’ भी है। लोगों की नक़लें भी उतार लेते हैं। घर में घरवालों के बारे में जो चुटकुले बनते हैं, उनको बार-बार सुनते हैं और बार-बार हँसते-हँसते उनकी आँखों से आँसू बहने लगते हैं, खास तौर पर जब मम्मी पूरी एक्टिग के साथ ये किस्से दोहरती हैं। तो मानना मुश्किल होगा कि उनका एक रूप ऐसा भी है।
एक दिन मुझे उनकी आँखों में दवा डालनी थी, मगर कैसे डालती, एक तो उनकी आँखें वैसे छोटी हैं, फिर जैसे ही मैं दवा डालना चाहूँ, पलकें इतनी ज़्यादा झपकाते हैं कि कभी नाक में चली जाए, कभी कान के पास। मैं फिर भी कोशिश में थी कि उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर मुझे रोका और एक कहानी सुनाई-‘एक था राजकुमार जिसका बाप यानि की राजा बहुत परेशान था कि बेटा कोई भी काम नहीं कर पाता। राजा के पास एक गुरू आया और उसने कहा कि वो राजकुमार को तीर चलाने का हुनर सिखाएगा। छः महीने बाद जब उसने अपना कमाल दिखाने की कोशिश की तो तीर महल के चारों ओर जा रहे थे, सिवाय उस तख़्त के जहाँ राजकुमार को निशाना लगाना था। राजा और गुरू के लिए उन तीरों से बचना मुश्किल हो रहा था। राजा ने पूछा, गुरू जी राजकुमार के इन उल्टे-सीधे तीरों से कैसे बचा जाए गुरू ने कहा महाराज, आइए, उस निशाने वाले तख्त के सामने खड़े हो जाते हैं- लगता है, वहीं एक जगह है जहाँ अपने राजकुमार के तीर कभी नहीं आएँगे।’ इससे पहले कि मैं कुछ कहती, अब्बा ने कहा-‘ऐसा करो तुम दवा मेरे कान में डालने की कोशिश करो, आँख में ख़ुद-ब-खु़द चली जाएगी।’
अब्बा को अच्छे खाने का बेहद शौक है और उन्हें पूरा यक़ीन है कि अच्छा खाना सिर्फ यू।पी. का होता है। शादी के बावन बरस हो गए मगर मम्मी उन्हें हैदराबादी खाना नहीं खिला सकीं। घर में जब हैदराबाद की खट्टी दाल बनती है तो अब्बा के लिए अलग यू.पी. दाल होती है। टेबल पर खाना अपनी प्लेट में खु़द नहीं निकालेंगे, न आपकों बताएँगे कि उन्हें क्या चाहिए। मम्मी को बस पता नहीं कैसे पता चल जाता है कि उन्हें प्लेट में क्या चाहिए और कितना। जब मैं उनकी इस दादागिरी के खिलाफ़ कुछ कहने की कोशिश करती हूँ तो वो बताती हैं कि उन्हें अब्बा की अम्मी यानी मेरी दादी ने कहा था कि कैफ़ी को हमेशा तुम खुद ही प्लेट में खाना निकालकर देना, नहीं तो भूखे ही टेबल से उठ जाएँगे। सास की नसीहत को बहू ने आज तक याद रखा है। अब्बा सिर्फ़ उस वक़्त खाने की मेज़ पर ये कहते है कि उन्हें और चाहिए जब मैंने कुछ अपने हाथ से पकाया हो। खाना पकाने का फ़न आज तक मुझमें नहीं आया है। घर के बाकी लोग जहाँ तक हो सके मेरे बनाए पकवान से बच निकलने की कोशिश करते हैं, मगर अब्बा ऐसे मज़े से खाते हैं जैसे अवध के किसी शाही दस्तरख़्वान का बेहतरीन खाना हो। सच कहूँ तो उनका ये लाड़ हर बार मेरे दिल को अच्छा ही लगता है।
अब्बा और जावेद में बहुत सी बाते एक जैसी हैं। दोनों को तमीज़-तहज़ीब का बहुत ख़्याल रहता है। दोनों बहुत तकल्लुफ़पसन्द हैं, दोनों को घटिया बात और ख़राब शायरी बर्दाश्त नहीं है। दोनों को राजनीति से गहरी दिलचस्पी है और उसकी समझ है। एक ज़माना था मैं अपने आपको जानबूझ कर राजनीति की बातों से दूर रखती थी, यहाँ तक की अख़बार भी नहीं पढ़ती थी। शायद ये एक रियक्शन था क्योंकि दिन भर घर में यही बातें होती रहती थीं, मगर जब जावेद से मेरी दोस्ती बढ़ी और मैंने अब्बा और जावेद की आपस में राजनीति पर घण्टों बातें सुनीं तो धीरे-धीरे मेरा ध्यान भी उन बातों में लगने लगा ये बात अजीब है मगर सच है कि मैंने जैसे-जैसे जावेद को जान रही थी, वैसे-वैसे अब्बा को जैसे दोबारा पहचान रही थी। उर्दू शायरी से दिलचस्पी, राजनीति के बारे में एक खास तरह की सोच-जो भी मुझे जावेद से मिल रहा था वो एक बार फिर मुझे अपनी उन्हीं जड़ों की तरफ ले जा रहा था जो मेरा और मेरे अब्बा का मज़बूत रिश्ता थीं।
जब जावेद और मैं एक दूसरे के पास आ रहे थे, मेरी माँ इस बात से बिल्कुल खुश नहीं थीं क्योंकि जावेद शादीशुदा थे। मेरे दूसरे दोस्तों और घरवालों का भी यही कहना था कि इसका अंजाम सिवाय दुख के और कुछ नहीं हो सकता। एक दिन मैंने धड़कते दिल के साथ अब्बा से पूछ लिया कि क्या आप भी समझते हैं कि जावेद मेरे लिए सही इनसान नहीं हैं।’’ उन्होंने कहा-‘‘जावेद तो सही हैं लेकिन उनके हालात सही नहीं हैं।’’ मैंने कहा, ‘‘उनके हालात तो बदल जाएँगे। आप विश्वास कीजिए कि जब मेरा जावेद की ज़िन्दगी में गुज़र नहीं था-उनकी शादी तब भी टूटने ही वाली थी।’’ उन्होंने मेरी बात पर यक़ीन कर लिया और खामोशी से मेरे फ़ैसले को मान लिया। कभी-कभी सोचती हूँ, अगर उन्होंने मुझे सख़्ती से मना कर दिया होता तो मैं क्या करती-क्या मुझमें हिम्मत होती कि उनके ख़िलाफ जाऊँ ? बात ये नहीं कि मैं उनसे डरती हूँ, बात ये है कि मुझे यक़ीन है कि वो जो कुछ कहते हैं, बहुत सोच समझ कर कहते हैं। उनकी राय पूरी इमानदारी और समझ की होती है।
मैंने जब इस दुनिया में आँखे खोलीं तो जो पहला रंग मैंने देखा वो था-लाल ! मैं बचपन में अपने माँ-बाप के साथ ‘रेड फ़्लैग हॉल’ में रहती थी, जहाँ बाहर के दरवाज़े पर ही एक बड़ा-सा लाल झण्डा लहराता रहता था। जरा सी बड़ी हुई तो बताया गया कि लाल रंग मज़दूरों का रंग है। मेरा बचपन या तो अपनी माँ के साथ पृथ्वी थियेटर के ग्रुप के साथ अलग-अलग शहरों के सफ़र में गुज़रा या अपने बाप के साथ ऐसे जलसों में-मदनपुरा बम्बई की एक बस्ती है यहाँ मैं अब्बा के साथ ऐसे जलसों में जाती थी। हर तरफ लाल झण्डे, गूँजते हुए नारे और अन्याय के खिलाफ शायरी और फिर गूँजता हुआ-इन्क़लाब ज़िन्दाबाद। बचपन में मुझे अब्बा के साथ मज़दूरों के ऐसे जलसों में जाना इसलिए भी अच्छा लगता था कि मज़दूर कै़फ़ी साहब की बच्ची को खूब लाड़ करते थे। अब सोचती हूँ तो अजीब लगता है। आज मैं जब किसी जुलूस या प्रदर्शन या पदयात्रा या भूख हड़ताल में होती हूँ, यहीं सोचती हूँ, यही सब तो मैंने अपने बचपन में देखा था। पेड़ कितना भी उगे, अपनी जड़ों से अलग थोड़े ही हो सकता है ! कुछ बरस पहले मैं बम्बई के झुग्गी-झोपड़ी वालों के हक़ के लिए एक भूख हड़ताल में बैठी थी-चौथा दिन था, मेरा ब्लड प्रैशर काफ़ी कम हो गया था लेकिन लगता था, न सरकार हमारी बात मानेगी न हम भूख हड़ताल तोड़ेगे। मम्मी बहुत परेशान थीं अगर अब्बा ने जो उस वक्त पटना में थे, मुझे टेलीग्राम भेजा-‘बेस्ट ऑफ लक, कॉमरेड।’
मैं देहली से मेरठ तक एक सांप्रदायिकता-विरोधी पदयात्रा पर जानेवाली थी। जाने से पहले घरवालों से मिलने आई। मुझे लोगों ने डराया था कि यू।पी. की सड़कों पर फिल्म एक्ट्रेस ऐसे निकले तो लोग कपड़े तक फाड़ सकते हैं। पत्थर चल जायें, कुछ भी हो सकता है मेरे दिल में कहीं कोई घबराहट थी और वहीं फ़िक्र और घबराहट मुझे अपने परिवार के चेहरों पर भी दिखाई दे रही थी। मम्मी, मेरा भाई बाबा, उनकी बीवी तन्वी और जावेद सभी मौजूद थे, लेकिन कोई कुछ कह नहीं रहा था। मैं अब्बा के कमरे में गई। मैंने पीछे से उनके गले में बाँहे डाल दीं। उन्होंने मुझे गले से लगा लिया, फिर मेरे चेहरे को अपने हाथों में लेकर गौर से देखा और कहा, ‘‘क्या बहादुर बेटी डर रही है ? जाओ, तुम्हें कुछ नहीं होगा।’’ मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे अन्दर एक नया विश्वास, एक नई शक्ति आ गई हो। ये लिखने की शायद जरूरत नहीं कि वो पदयात्रा बहुत कामयाब रही मगर इसलिए लिख रही हूँ कि ये एक और मिसाल है कि जब उन्होंने जो मुझसे कहा, वही ठीक निकला।
बाप होने के नाते तो अब्बा मुझे ऐसे लगते हैं जैसे एक अच्छा बाप अपनी बेटी को लगेगा, मगर जब उन्हें एक शायर के रूप में सोचती हूँ तो आज भी उनकी महानता का समन्दर अपरम्पार ही लगता है। मैं ये तो नहीं कहती कि मैं उनकी शायरी को पूरी तरह समझती हूँ और उसके बारें में सब कुछ जानती हूँ, मगर फिर भी उनके शब्दों से जो तस्वीरें बनती हैं, उनके शेरों में जो ताक़त छुपी होती है, अपने गम को भी दुनिया के दुख-दर्द से मिलाकर देखते हैं। उनके सपने सिर्फ अपने लिए नहीं, दुनिया के इन्सानों के लिए हैं। चाहे वह झोपड़पट्टी वालों के लिए काम हो या नारी अधिकार की बात या सांप्रदायिकता के विरुद्ध मेरी कोशिश, उन सब रास्तों में अब्बा की कोई न कोई नज़्म मेरी हमसफर है। वो ‘मकान’ वो ‘औरत’ हो या ‘बहरूपनी’- ये वो मशाले है जिन्हें लेकर मैं अपने रास्तों पर चलती हूँ। दुनिया में कम लोग ऐसे होते हैं जिनकी कथनी और करनी एक होती है। अब्बा ऐसे इंसान हैं-उनके कहने और करने में कोई अंतर नहीं है। मैंने उनसे ये ही सीखा है कि सिर्फ सही सोचना और सही करना ही काफ़ी नहीं, सही कर्म भी होने चाहिए।
17 comments:
BAhut Accha Laga, Kaifi Saheb ke bare mai, maine bhi bahut kareeb se dekha unko, wo purani se Ambesdar, wo unka driver, mujhase to jab bhi mile hain, Ambesdar se neeche kabhi nahi utarate the, apne pass hi bula lete the.
इरशाद जी,
स्वनामधन्य कैफी आजमी साहब,और शबाना आजमी जी का मैं फेन हूँ...क्या वजह है जो इतना मुस्कुरा रहे हो,क्या गम है जिसको छुपा रहे हो....मेरा फेवराइट है....आपने जो संस्मरण दिया है उससे मैं अभिभूत हूँ...इसको बार बार पढने की तलब होती है.....और भी ऐसा कुछ देते रहेंगे तो हम जैसों को पढने की खुराक मिल जायेगी....आभार सहित बधाई....
पाखी .
दिलचस्प....इसे एक साथ न देकर कई पोस्टो में देते तो अच्छा रहता .कैफी आज़मी मेरे पस्नादीदा शायरों में से एक है .उनका एक शेर
"जो कुछ था मेरे पास मै सब बेच आया
कही इनाम मिला कही कीमत भी नहीं "
मुझे बेहद अजीज है....फिल्म हकीक़त के गाने .खास तौर पे मै ये सोचकर उसके दर से उठा था ....उनकी एक अलग शक्सियत को बताता है.
बेहद दिलचस्प पोस्ट लिखी है.......एक साँस में पड़ डाली.......मैं शबाना आजमी की बहुत बड़ी फेन हूँ .....तब से .... जब मुझे अर्थ फिल्म के अर्थ नहीं मालूम थे ..... वो मेरी बेहद पसंदीदा इंसान भी है .....अगर वो जावेद के साथ n होती तो पता नहीं उसकी जिंदगी कैसी होती.......वो महिला जज्बात की बेहद कद्र करने वाली है.....इसी लिए वो जावेद के साथ है ....सच बहुत प्यारी इंसान है शबाना ...
यह पढते पढते कैफ़ी साहब की याद आ गयी।
ऐसी ही ग़र्मियों की एक शाम हम मझवां में उनसे मिले थे।
अजीब लोग थे कभी हारे ही नहीं
कहते थे 'मै ग़ुलाम हिन्दुस्तान में पैदा हुआ, आज़ाद हिन्दुस्तान में जिया और सोसलिस्ट हिन्दुस्तान में मरना चाहता हूं'
उनका ख़्वाब तो अधूरा रहा पर…
संस्मरण रोचक ही नहीं प्रेरणा देने वाला भी है...ऐसे किस्से बूँद बूँद पिलाए जाएँ तो असर कुछ और ही होता है.
अच्छी पोस्ट...अगर कुछ और हो तो डालिए ब्लाग पर...
bahut khoob..
magar iske source ka zikra bhi saath me karte to behtar hota..
शबाना जी मेरी प्रिय अभिनेत्री हैं, उनके बारे में जानकर प्रसन्नता हुई।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
bahut achha laga yeh blog pad ke.Yeh post to bahut hi prerna dayi tthe...
अद्भुत। बेहतरीन संस्मरण। प्रेरणा देती इस पोस्ट के लिए साधुवाद।
irshad bai,
aap ke likhne ka dhang nirala hai. jo likhte hain kamal ka likhte hai.
ब्लागिंग में इस तरह के लेखन का अभाव है। आगे और ऐसा ही लिखते रहे।
Filhaal sirf shukriya ataa karne aayee hun...aapka aalek itminaanse padhne ke baadhee comment karungee...
jita padha, usse jigyasa bohot badhee hai...Irshad, ek link de rahee hun,pls wahan samay milnepe tippanee zaroor karna:
http//aajtakyahantak-thelightbyalonelypath.blogspot.com
ye meree ek namr iltijaa hai...anyatha na len!
कैफी साहब की याद ताज़ा हो गयी .
वैसे तो उनका लिखा सभी बहुत पसंद है , बुलंद है . पर ' फिल्मों ' में लिखने की जो बंदिशें होती हैं , उसके ' प्रोफेसनालिज्म ' का अंदाजा कैफी जी के लिखने में मील के पत्थर हैं .
याद है हीर राँझा .....?
( चेतन आनंद की )
अपने मन की शायिरी कागज़ पर उतर ही आती है ....लेकिन फिल्म के पात्रों का मन कविता बनाना , संगीतकार की धुनों की बंदिशों में बंधे , और फिर भी शायिरी बरक़रार रख पाना .......जानना भी मुश्किल है ! कोई बता क्या पायेगा ?
तो वो थे ' कैफी ' !
हीर राँझा तो पूरी फिल्म ही ' गाकर' कही गयी थी.
...और हम पाते हैं कि , ' कैफी ' ने शुरू में जो कहा कितना शाबित कर दिया ......एक चैलेन्ज को ....अपने ही ढंग से .....शुरू में फिल्म की कह के .
और कितनी आसानी से भी !
दोस्तों तुमने सुना होगा कभी 'झंग' का नाम
एक मुद्दत से जहाँ बहता है दरियाए चनाब
जालिमों ने दो दिल वहां कुछ ऐसे तोडे
के जिनके गम में आज भी , रोता है पंजाब ....
....तो दर्द पंजाब के सीने से चुरा लाया हूँ
इक हकीकत को मैं अफसाना बना लाया हूँ
'आग ' मेरी न सही पर ये ' धुआं ' मेरा है
हीर रांझा की कहानी है बयाँ मेरा है
तो दूसरे की आग को वैसे ही ' धुंआ बनाता शायर क्योंकि .......
सारे जहां का दर्द तो उसके जिगर में था !
इरशाद भाई , इस प्रस्तुति का शुकराना कैसे अदा करून ???
बेहतरीन और बेहतरीन प्रस्तुति इरशाद भाई...
Irshadji,
Shabana ki to khair karti hun, lekin, Qaifi aur Shauqat aazmi kee mai behad izzat karti rahee hun..aajbhi unkee wo nazm," Rut badal de gar phalnaa phoolna hai tujhe,
Meree ghamkhaar mere saath hee chalnaa hai tujhe"...mujhe beinteha achhee lagtee hai..
Mujhe nahee pata ki, ye aalekh kisne likha yaa, ya Shabana ne kiseeko dictatae kiya yaa phir urdume likha, kyonki, meree "Neele ,Peele Phool" ye kahanee Shabana aur Javed ke haathme gayee to unhon ne khud mujhse kaha,"Mujhe 'Devnaagri" me padhnaa nahee aataa !
Sahee hoga, lekin mai dang reh gayi!
Shaqat ji to kayi kirdaar aise hain, jinhen 'na bhhoto na bhavishyati' kaha jaa sakta hai..jaiseki 'garam Hawaa' is filmkaa...ya 'baazar'...
snehsahit
shama
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