अक्षरों के साये/अमृता प्रीतम

मौत के साये
जब मैं पैदा हुई, तो घर की दीवारों पर मौत के साये उतरे हुए थे...मैं मुश्किल से तीन बरस की थी, जब घुटनों के बल चलता हुआ मेरा छोटा भाई नहीं रहा। और जब मैं पूरे ग्यारह बरस की भी नहीं थी, तब मां नहीं रही। और फिर मेरे जिस पिता ने मेरे हाथ में कलम दी थी, वे भी नहीं रहे...और मैं इस अजनबी दुनिया में अकेली खड़ी थी-अपना कहने को कोई नहीं था। समझ में नहीं आता था-कि ज़मीन की मिट्टी ने अगर देना नहीं था, तो फिर वह एक भाई क्यों दिया था ? शायद गलती से, कि उसे जल्दी से वापिस ले लिया और कहते हैं-मां ने कई मन्नतें मान कर मुझे पाया था, पर मेरी समझ में नहीं आता था कि उसने कैसी मन्नतें मानीं और कैसी मुराद पाई ? उसे किस लिए पाना था अगर इतनी जल्दी उसे धरती पर अकेले छोड़ देना था...लगता-जब मैं मां की कोख से आग की लपट-सी पैदा हुई-तो ज़रूर एक साया होगा-जिसने मुझे गाढ़े धुएं की घुट्टी दी होगी...बहुत बाद में-उल्का लफ़्ज सुना, तब अहसास हुआ कि सूरज के आस पास रहने वाली उल्का पट्टी से मैं आग के एक शोले की तरह गिरी थी और अब इस शोले के राख होने तक जीना होगा...
आने वाले वक्त का साया
जब छोटी-सी थी, तब सांझ घिरने लगती, तो मैं खिड़की के पास खड़ी-कांपते होठों से कई बार कहती-अमृता ! मेरे पास आओ।शायद इसलिए कि खिड़की में से जो आसमान सामने दिखाई देता, देखती कि कितने ही पंछी उड़ते हुए कहीं जा रहे होते...ज़रूर घरों को-अपने-अपने घोंसलों को लौट रहे होते होंगे...और मेरे होठों से बार-बार निकलता-अमृता, मेरे पास आओ ! लगता, मन का पंछी जो उड़ता-उड़ता जाने कहां खो गया है, अब सांझ पड़े उसे लौटना चाहिए...अपने घर-अपने घोसले में मेरे पास... वहीं खिड़की में खड़े-खड़े तब एक नज़्म कही थी-कागज़ पर भी उतार ली होगी, पर वह कागज़ जाने कहां खो गया, याद नहीं आता...लेकिन उसकी एक पंक्ति जो मेरे ओठों पर जम-सी गई थी-वह आज भी मेरी याद में है। वह थी-‘सांझ घिरने लगी, सब पंछी घरों को लौटने लगे, मन रे ! तू भी लौट कर उड़ जा ! कभी यह सब याद आता है-तो सोचती हूं-इतनी छोटी थी, लेकिन यह कैसे हुआ-कि मुझे अपने अंदर एक अमृता वह लगती-जो एक पंछी की तरह कहीं आसमान में भटक रही होती और एक अमृता वह जो शांत वहीं खड़ी रहती थी और कहती थी-अमृता ! मेरे पास आओ !अब कह सकती हूं-ज़िंदगी के आने वाले कई ऐसे वक़्तों का वह एक संकेत था-कि एक अमृता जब दुनिया वालों के हाथों परेशान होगी, उस समय उसे अपने पास बुलाकर गले से लगाने वाली भी एक अमृता होगी-जो कहती होगी-अमृता, मेरे पास आओ !
हथियारों के साये
तब-जब पिता थे, मैं देखती कि वे प्राचीन काल के ऋषि इतिहास और सिक्ख इतिहास की नई घटनाएं लिखते रहते, सुनाते रहते। घर पर भी सुनाते थे, और बाहर बड़े-बड़े समागमो में भी लोग उन्हें फूलों के हार पहचानाते थे-उनके पांव छूते थे...उनके पास खुला पैसा कभी नहीं रहा, फिर भी एक बार उन्होंने बहुत-सी रकम खर्च की, और सिक्ख इतिहास की कई घटनाओं के स्लाइड्स बनवाए-जो एक प्रोजक्टर के माध्यम से, दीवार पर लगी बड़ी-सी स्क्रीन पर दिखाते, और साथ-साथ उनकी गाथा-अपनी आवाज़ में कहते, लोग मंत्र-मुग्ध से हो जाते थे...एक बार अजीब घटना हुई। उन्होंने एक गुरुद्वारे की बड़ी-सी दीवार पर एक स्क्रीन लगा कर वे तस्वीरें दिखानी शुरू कीं, आगंन में बहुत बड़ी संगत थी, लोग अकीदत से देख रहे थे, कि उस भीड़ में से दो निहंग हाथों में बर्छे लिए उठ कर खड़े हो गए, और ज़ोर से चिल्लाने लगे-यहां सिनेमा नहीं चलेगा...मैं भी वहीं थी, पिता मुझ छोटी-सी बच्ची को भी साथ ले गए थे। और मैंने देखा-वे चुप के चुप खड़े रह गए थे। एक आदमी उनके साथ रहता था, उस सामान को उठा कर संभालने के लिए, जिसमें प्रोजेक्टर और स्लाइड्स रखने निकालने होते थे...पिताजी ने जल्दी से अपने आदमी से कुछ कहा-और मुझे संभाल कर, मेरा हाथ पकड़ कर, मुझे उस भीड़ में से निकाल कर चल दिए...लोग देख रहे थे, पर खामोश थे। कोई कुछ नहीं कह पा रहा था-सामने हवा में-दो बर्छे चमकते हुए दिखाई दे रहे थे...यह घटना हुई कि मेरे पिता ने खामोशी अख्तियार कर ली। सिक्ख इतिहास को लेकर, जो दूर-दूर जाते थे, और भीगी हुई आवाज़ में कई तरह की कुरबानियों का जिक्र कहते थे, वह सब छोड़ दिया...एक बाद बहुत उदास बैठे थे, मैंने पूछा-क्या वह जगह उनकी थी ? उन लोगों की ?कहने लगे-नहीं मेरी थी। स्थान उसका होता है, जो उसे प्यार करता है...मैं खामोश कुछ सोचती रही, फिर पूछा-आप जिस धर्म की बात करते रहे, क्या वह धर्म उनका नहीं है ?पिता मुस्करा दिए कहने लगे-धर्म मेरा है, कहने को उनका भी है, पर उनका होता तो बर्छे नहीं निकालते...उस वक़्त मैंने कहा था-आपने यह बात उनसे क्यों नहीं कहीं ? पिता कहने लगे-किसी मूर्ख से कुछ कहा-सुना नहीं जा सकता...वह बड़ा और काला बक्सा फिर नहीं खोला गया। उनकी कई बरसों की मेहनत, उस एक संदूक में बंद हो गई-हमेशा के लिए...बाद में-जब हिंदुस्तान की तक्सीम होने लगी, तब वे नहीं थे। कुछ पूछने-कहने को मेरे सामने कोई नहीं था...कई तरह के सवाल आग की लपटों जैसे उठते-क्या यह ज़मीन उनकी नहीं है जो यहां पैदा हुए ? फिर ये हाथों में पकड़े हुए बर्छे किनके लिए हैं ? अखबार रोज़ खबर लाते थे कि आज इतने लोग यहां मारे गए, आज इतने वहां मारे गए...पर गांव कस्बे शहर में लोग टूटती हुई सांसों में हथियारों के साये में जी रहे थे...बहुत पहले की एक घटना याद आती, जब मां थी, और जब कभी मां के साथ उनके गांव में जाना होता, स्टेशनों पर आवाज़ें आती थीं-हिंदू पानी, मुसलमान पानी, और मैं मां से पूछती थी-क्या पानी भी हिन्दू मुसलमान होता है ?-तो मां इतना ही कह पाती-यहां होता है, पता नहीं क्या क्या होता है...फिर जब लाहौर में, रात को दूर-पास के घरों में आग की लपटें निकलती हुई दिखाई देने लगीं, और वह चीखें सुनाई देतीं जो दिन के समय लंबे कर्फ्यू में दब जाती थीं...पर अखबारों में से सुनाई देती थीं-तब लाहौर छोड़ना पड़ा था...थोड़े दिन के लिए देहरादून में पनाह ली थी-जहां अखबारों की सुर्खियों से भी जाने कहां-कहां से उठी हुई चीखें सुनाई देतीं...रोज़ी-रोटी की तलाश में दिल्ली जाना हुआ-तो देखा-बेघर लोग वीरान से चेहरे लिए-उस ज़मीन की ओर देख रहे होते, जहां उन्हें पनाहगीर कहा जाने लगा था... अपने वतन में-बेवतन हुए लोग....चलती हुई गाड़ी से भी बाहर के अंधेरे में मिट्टी के टीले इस तरह दिखाई देते-जैसे अंधेरे का विलाप हो ! उस समय वारिस शाह का कलाम मेरे सामने आया, जिसने हीर की लंबी दास्तान लिखी थी-जो लोग घर-घर में गाते थे।
तब अजीब वक्त सामने आया-यह नज़्म जगह-जगह गाई जाने लगी। लोग रोते और गाते। पर साथ ही कुछ लोग थे, जो अखबारों में मेरे लिए गालियां बरसाने लगे, कि मैंने एक मुसलमान वारिस शाह से मुखातिब होकर यह सब क्यों लिखा ? सिक्ख तबके के लोग कहते कि गुरु नानक से मुखातिब होना चाहिए था। और कम्युनिस्ट लोग कहते कि गुरु नानक से नहीं-लेनिन से मुखातिब होना चाहिए था...यह सब होता रहा-पर नज़्में-मुझ पर जैसे बादलों सी घिरतीं और बरस जातीं-उस वक्त पंजाब की कहानी लगी
उन दिनों जनरल शाह नवाज़ अगवा हुई लड़कियों को तलाश रहे थे, उनके लोग, जगह-जगह से टूटी बिलखती लड़कियों को ला रहे थे-और पूरा-पूरा दिन-ये रिपोर्ट उन्हें मिलती रहतीं। मैंने कुछ एक बार उनके पास बैठ कर बहुत सी वारदातें सुनीं। ज़ाहिर है कि कई लड़कियां गर्भवती हालात में होती थीं...उस लड़की का दर्द कौन जान सकता है-जिसके दिल की जवानी को ज़बर से मां बना दिया जाता है....एक नज़्म लिखी थी-मज़दूर ! उस बच्चे की ओर से-जिसके जन्म पर किसी भी आंख में उसके लिए ममता नहीं होती, रोती हुई मां और गुमशुदा बाप उसे विरासत में मिलते हैं...
मेरी मां की कोख मजबूर थी-मैं भी तो एक इन्सान हूंआजादियों की टक्कर मेंउस चोट का निशान हूंउस हादसे का ज़ख्म जो मां के माथे पर लगना थाऔर मां की कोख को मजबूर होना था...मैं एक धिक्कार हूं-जो इन्सान की जात पर पड़ रही..और पैदाइश हूं-उस वक्त कीजब सूरज चांद-आकाश के हाथों छूट रहे थेऔर एक-एक करके सब सितारे टूट रहे थे...मैं मां के ज़ख्म का निशान हूंमैं मां के माथे का दाग हूंमां-एक जुल्म को कोख में उठाती रहीऔर उसे अपनी कोख सेएक सड़ांध आती रहीकौन जान सकता हैएक जुल्म को, पेट में उठाना हाड़-मांस को जलानापेट में जुल्म का फल रोज-रोज़ बढ़ता रहा...और कहते हैं-आज़ादी के पेड़ को-एक बौर पड़ता रहा...मेरी मां की कोख मजबूर थी
क्रमशः
प्रस्तुति : इरशाद

4 comments:

vandana gupta said...

amrita ji ki har prastuti nayab hai.

Manvinder said...

अरे इरशाद जी आप भी ......अक्षरों के साए पडवाने के लिए शुक्रिया ......मै इस किताब को पहले भी कई बार पड़ चुकी हूँ ......

shama said...

Irshad..ye maalika dekh bada hee achha laga..aksar aapki har post kee ittela milte rehtee thee...iskee nahee milee..naahee aaakharee post kee..khair...shukriya,ki, amrita preetam ke baare me adhik padhne yaa jaan ne ko milega!

kshama said...

Irshadji,
Aapki malikayen padh rahee hun...aap behtareen hastee se wabasta kara rahe hain..shikriya..maine ye kitab to nahee padhee..ab mauqa mil raha hai..