क्या गे कपल की कहानी है करण जौहर की HOMEBOUND?


HOMEBOUND—करण जौहर की पेशकश, लेकिन निर्देशन की कमान संभाले हैं नीरज घेवान। नाम सुनते ही उम्मीदें आसमान छू जाती हैं, क्योंकि नीरज पहले ही मसान और जूस जैसी फिल्मों से अपनी अलग पहचान दर्ज कर चुके हैं।





ट्रेलर सामने आते ही साफ़ समझ आता है कि यह फिल्म व्यवस्था पर करारा प्रहार है। इसकी भाषा और ट्रीटमेंट में वही सामाजिक बेचैनी और कच्चा यथार्थ झलकता है। कई फ्रेम ऐसे हैं जो आपको 12 फेल की याद दिलाते हैं। बिहार का लोकल इंटीरियर आंखों को खींचता है, लेकिन यहां फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी भी सामने आती है—भाषा। ठेठ खड़ी बोली और बिहार का परिवेश एक-दूसरे से मेल नहीं खाते, जिससे फिल्म की पृष्ठभूमि थोड़ी फीकी पड़ जाती है।


अब बात करें कलाकारों की—तो इशान खट्टर और विशाल जेतवा ने जिस तरह का अभिनय परोस दिया है, उसके आगे किसी भी स्थापित सुपरस्टार की चमक फीकी पड़ सकती है। यहां तक कि सलमान खान जैसे नाम भी इनके सामने छोटे लग सकते हैं। यह दोनों अपनी परफॉर्मेंस से फिल्म की असली रीढ़ साबित होते हैं।


लेकिन सबसे बड़ा सवाल उठता है जान्हवी कपूर को लेकर। ट्रेलर में उनकी मौजूदगी इतनी हल्की है कि समझ ही नहीं आता, वो फिल्म में कर क्या रही हैं। जिस एक्ट्रेस को इंडस्ट्री में बोल्ड और एक्सपेरिमेंटल चॉइस के लिए जाना जाता है, उसके हिस्से ऐसा किरदार क्यों आया जो पर्दे पर गायब-सा लगता है? न तो स्क्रीन टाइम है, न ही कोई यादगार प्रभाव। लगता है मानो सिर्फ नाम जोड़ने के लिए जान्हवी को कास्ट कर लिया गया हो।


HOMEBOUND पहले ही कान्स में अपना झंडा गाड़ चुकी है और अब कई प्रतिष्ठित फेस्टिवलों की ओर बढ़ रही है। लेकिन सवाल यह है कि आम भारतीय दर्शक—जो सिनेमाघर में मनोरंजन और मसाला तलाशता है—क्या वह इस फिल्म से जुड़ पाएगा? इसका जवाब टिकट खिड़की ही देगी। हालांकि यह तय है कि इस तरह की फिल्मों का एक विशेष दर्शक वर्ग होता है, जो सिनेमाई गंभीरता को सराहता है।


ट्रेलर देखकर जरा भी अंदाज़ा नहीं होता कि यह फिल्म गे कपल की कहानी है। लेकिन फिल्म के पोस्टर इस बात को जोर-जोर से चिल्लाते हैं। हिंदी सिनेमा में ऐसे विषय पर बनी फ़िल्में गिनी-चुनी ही हैं। भारत जैसे समाज में जहां इसे अब भी टेबू माना जाता है, वहां करण जौहर जैसे निर्माता का ऐसी कहानियों को प्राथमिकता देना साहसिक कदम है।


करण जौहर की फिल्मों पर अक्सर आरोप लगता है कि वे चमक-धमक से भरी होती हैं लेकिन कहानी और लॉजिक के नाम पर खाली। लेकिन HOMEBOUND अलग है। यहां न लॉजिक की कमी है और न ही संवेदनशीलता का अभाव। सवाल सिर्फ़ इतना है—क्या दर्शक इस नई सिनेमाई भाषा को खुले दिल से स्वीकार करेगा?


— इरशाद दिल्लीवाला


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 रागिनी ने जैसे ही दोनों हाथ हवा में उठाए, सारी कायनात उन दो हाथों पर ठहर गई 


शुक्रवार की शाम मेरे लिये बेहद खास थी मौक़ा था इंडिया हैबिटेट सेंटर के 'स्टाइन ऑडिटोरियम' में आयोजित 'सा मा पा' की तरफ़ से एक सूफ़ी और भक्ति संगीत की महफ़िल का—जहाँ सुरों की माया में अपनी रूह का सफ़र बयाँ कर रही थीं रागिनी रेनू।


मैंने उन्हें पहली बार सुना और यक़ीन से कह सकता हूँ कि पूरे डेढ़ घंटे की इस महफ़िल में उन्होंने अपनी आवाज़ का ऐसा रूहानी जादू बिखेरा कि हर दिल झूम उठा।



सबसे पहले उन्होंने कबीर के 'सबद' से शुरुआत की। वो जाने-पहचाने दोहे जब उनकी आवाज़ में सुरों की रवानी के साथ गूंजे तो जैसे मन की गहरी गिरहें एक-एक कर खुलती चली गईं।


एक के बाद एक नग़्मा... और हर बार एक नया तिलिस्म। पखावज, तबला, बांसुरी, ढोलक और हारमोनियम—सबके सब अपनी मौजूदगी का इज़हार कर रहे थे। हर धुन इस अंदाज़ में सजाई गई थी कि आप पहचान भी लें और साथ ही उसकी मिठास सीधे रूह तक उतर जाए।


पाँचवें गीत के बाद रागिनी ने मुस्कराकर कहा—“क्या आप छाप तिलक सुनना चाहेंगे?” और फिर जैसे ही उन्होंने अलाप लिया, मेरे रोंगटे खड़े हो गए। हॉल में पसरा सन्नाटा इश्क़ में मदहोश हो चुका था। छाप तिलक सब छीनी रे... मोसे नैना मिलाइ के... उनकी आवाज़ अपने उरूज पर थी और श्रोताओं के दिल हवा में तैर रहे थे। लगता था कि ये गीत कभी ख़त्म न हो, बस बहता ही जाए, बहता ही जाए।

लोग अपने आनंद के चरम पर थे और तभी, अचानक रागनी ने लोगों को झटका दिया और बज उठा —लाल मेरी पत रखियो, बला झूले लालण...।


किसी को उम्मीद भी न थी कि वो अब श्रोताओं को इससे आगे किस मुक़ाम पर ले जाएंगी। लेकिन 'दमादम मस्त कलंदर' ने सचमुच सबको बेख़ुद कर दिया। यह उनके बेहतरीन प्रस्तुतियों में से एक थी।


हॉल में मौजूद हर शख़्स अपनी रूह के साथ उनके सफ़र में शामिल हो चुका था—एक ऐसा सफ़र जहाँ पहुंचना आसान नहीं। रागिनी के दोनों हाथ लहराते और वो सबको अपने साथ उस रूहानी दरवाज़े से गुज़ार रही थीं, जहाँ इंसान का सामना ख़ुद से होता है।


वो लम्हा सिर्फ़ संगीत नहीं था—वो ख़ुदा की मौजूदगी का एहसास था, क़ुदरत को छू लेने का जज़्बा था, और भीतर कहीं गहराई में एक नयी रौशनी जगने का साक्षात्कार था।


और कानों में अब भी गूंज रही थी... रागिनी रेनू की रूहानी आवाज़।

— इरशाद दिल्लीवाला


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 गुरुओं को नमन

स्कूल और कॉलेज के दिनों में टीचर्स डे हमेशा एक जश्न की तरह रहा। पुष्प भेंट करना, रंगमंच पर परफ़ॉर्म करना और कॉलेज के आख़िरी दिनों में रंगमंच समिति का अध्यक्ष रहते हुए कार्यक्रमों का संचालन और संयोजन सीखना—ये सब उस दौर की यादें हैं। मगर उस वक़्त यह समझ नहीं आया कि असली गुरु तो जीवन की पाठशाला में बाद में मिलेंगे। वो गुरु जो किताबों से आगे बढ़कर मेरी शख़्सियत और मेरी सोच को आकार देंगे।


ऐसे चार रूहानी किरदार मेरी ज़िंदगी में आए, जिन्होंने मुझे ऊँची उड़ान के लिए पंख दिए।


सबसे पहले—मेरे सेंट जोज़फ कॉलेज के नागरिग शास्त्र के क्लास टीचर बी. बी. कुमार। उनकी क्लास में बैठना किसी सफ़र की तरह था। संतुलन, संयम और गहरी समझ—उनकी पहचान थी। उन्होंने सिखाया कि अभिव्यक्ति महज़ शब्दों का खेल नहीं, बल्कि एक गहराई से मोती निकालने की कला है। आज भी जब मैं कहीं बोलता हूँ, तो भीतर से वही सधे हुए जुमले निकलते हैं, जो मैंने उनसे अनजाने में सीखे।


दूसरे—मेरे पड़ोसी बालक राम प्रजापति। वो ऐसे इंसान थे जिनकी ज़िंदगी में अंधकार नाम का कोई शब्द ही नहीं था। हर हाल में रोशनी ढूँढ लेने का हुनर उनमें था। एक दिन के दरोगा बनकर उन्होंने ऐसा करिश्मा दिखाया कि पूरा इलाका दंग रह गया। उनकी सबसे बड़ी ताक़त यह थी कि वो इंसान की असली क़ाबिलियत को पहचान लेते थे। एक जुमले में किसी को जीत लेना—यह जादू उनसे ही सीखा।


तीसरे—दिल्ली आने के बाद मिले अब्दुल समी। उनकी शख़्सियत का अंदाज़ ही कुछ और था। उनकी नज़र और उनका संपर्क किसी भी मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री तक सीधा पहुँच सकता था। वो हमेशा कहते—"बड़े खेलो, तुम्हारे अंदर दम है।" मुझ पर जो यक़ीन उन्होंने किया, वह मेरे सफ़र का सबसे बड़ा हौसला बना। दिग्गजों को मोहरे की तरह इधर-उधर कर देने वाला यह करोड़ों का मालिक, अफ़सोस कि अपने ही घर के बोझ तले घुट कर चला गया। मगर उनका दिया हुआ विश्वास आज भी ज़िंदा है।


और आख़िर में—मेरे आत्मीय मार्गदर्शक, मेरे रूह के गुरु, हरीश शर्मा जी। पहली मुलाक़ात में ही उन्होंने एक प्रोड्यूसर से कहा—"इस पर पैसा लगाओ, यह बड़ी रेस का घोड़ा है।" उसी दिन से उन्होंने मुझे बॉलीवुड के दिग्गजों के बीच ला खड़ा किया। हर बार जब गहरी खाई के किनारे खड़ा होता, तो वो कहते—"कूद जा, गिरने तो नहीं दूँगा।" उनसे मैंने सीखा कि पहले बेहतर इंसान बनना ज़रूरी है, फिर कलाकार। अनुशासन और कला का रिश्ता क्या है—यह भी उन्हीं की संगत से जाना।

आज टीचर्स डे पर मैं इन चारों गुरुओं को दिल की गहराइयों से सच्चा सलाम पेश करता हूँ। यह वही लोग हैं जिन्होंने मेरी ज़िंदगी के कठिन रास्तों को आसान बनाया, और मुझे वह बनने में मदद की जो मैं आज हूँ। इन्हें मेरा हार्दिक शुक्रिया और सदियों तक रहने वाली दुआएँ।

— इरशाद दिल्लीवाला


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