अब तुम मुझे पसन्द नहीं
बुढ़ी हो गई है मेरी सोच
जा चुका है बसन्तउत्सव
जो कभी आया ही नही
रोज के लिये भी नही बचा कुछ
सूख गई मिटटी सभी गमलों की
किसी बीज की प्रतिक्षा में
अब तुम मुझे पसन्द नहीं
बुढ़ी हो गई है मेरी सोच
दिल धड़कता नही मेरा अब
तुम्हे देखकर अचानक अपने सामने
बल्कि दिखाई देते है, तुम्हारे चेहरे के निशान
जो पहले नही थे कभी
मेरा मन भी नही होता
तुमसे बात करने का
अपनी ही खोज में डूबकर मर गया है
शब्दों का वाचाल समन्दर
जिसने तुम्हारे लिये
महाकाव्य लिखने का वादा किया था
मैने जो बुने थे
सपनों के इन्द्रधनुष
उनके रंग अब फिके पड़ गये है
अब तुम्हे भी लौट जाना चाहिए
मेरी प्रतिक्षा किए बिना
बुढ़ी हो गई है मेरी सोच
और जा चुका है बसन्तउत्सव
इरशाद
(मेरे ही एक पूराने नाटक ''वापसी'' में काव्य संवाद, जब नायक मनोहर नायिका गीता को जाने के लिये कहता है)
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8 comments:
मेरे भाई ,
जोख़िम उठाने का साहस रखो । सोच , नज़रिया सब जवान रहेगा । दरअसल , नजरिया तो तरुण है ही।मुझे समझने में तो कहीं चूक नहीं हो रही?
अब तुम मुझे पसन्द नहीं
बुढ़ी हो गई है मेरी सोच
जा चुका है बसन्तउत्सव
जो कभी आया ही नही
"uf! these words have penetrated deep into the heart, first line "अब तुम मुझे पसन्द नहीं" these lines can be very painful for anyone... excellent expression'
regards
आपका ई-पता कहीं नहीं मिला, आपने एक टिप्पणी छोड़ कर लिखा है कि
" आगे कुछ और भी तकनीकी दिक्कतें थी आज्ञा हो तो वे भी आपसे पता करे ले क्या? "
तो आप ऐसा जरूर करें.
अब तुम मुझे पसन्द नहीं
अब तुम मुझे पसन्द नहीं
बुढ़ी हो गई है मेरी सोच
जा चुका है बसन्त
जो कभी आया ही नही
रोज के लिये भी नही बचा कुछ
सूख गई मिटटी गमलों की
बीज की प्रतिक्षा में
अब तुम मुझे पसन्द नहीं
दिल धड़कता नही अब
तुम्हे देखकर
बल्कि दिखाई देते है, तुम्हारे चेहरे के निशान
जो पहले नही थे
मन भी नही होता
तुमसे बात करने का
अपनी ही खोज में डूबकर मर गया है
शब्दों का वाचाल समन्दर
जिसने तुम्हारे लिये
महाकाव्य लिखने का वादा किया था
जो बुने थे
सपनों के इन्द्रधनुष
उनके रंग अब फिके पड़ गये है
अब तुम्हे भी लौट जाना चाहिए
मेरी प्रतिक्षा किए बिना
बुढ़ी हो गई है मेरी सोच
और जा चुका है बसन्त
bhai gustaakhi kshama karen.
aap khhiye aur khoobtar likhiye.
kabhi---fursat mile to aa mere din raat dekh le
Wah
सुंदर भावात्मक काव्यबोध
बधाई स्वीकारें
निस्संदेह उत्कृष्ठ लेखन
Irshad tumhare blogpe pehlee baar aayee hun....Ab tum mujhe pasand nahee.." bada bhedak sach bade sapat alfazonme keh daala!
Par tumharee soch boodhee huee nahee hai...ye ek jama odha hua hai...alfaaz bohot achhe hain !
"दिल धड़कता नही अब
तुम्हे देखकर
बल्कि दिखाई देते है, तुम्हारे चेहरे के निशान
जो पहले नही थे !..."
बहुत खूब ! कहीं अन्दर तक छू जाने का सामर्थ्य प्रभावित करता है...! लिखते रहिये!! आपके सृजनात्मक मर्म के लिए शुभकामनायें !
मेरे ब्लॉग "विक्षुब्ध होकर... " पर आने और आपकी उत्साहवर्द्धक टिपण्णी के लिए धन्यवाद ...
कभी फुर्सत मिले तो यहाँ "सागरनामा " पर भी आयें ! मुझे अच्छा लगेगा !
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