अजीत राय नहीं रहे...

दिल में जैसे कुछ टूट गया हो। आंखें भीगी हैं, दिल रोने को बेकरार।

वो मेरे सबसे पसंदीदा फ़िल्म समीक्षक थे — फ़न की समझ रखने वाले, अदब के पारखी, और अंतरराष्ट्रीय सिनेमा पर हिंदी पट्टी की सबसे बारीक़ आवाज़।


कुछ रोज़ पहले ही बात हुई थी — इस बार दिल्ली में मुलाक़ात तय थी। अफ़सोस, अब वो सिर्फ़ एक अधूरा वादा बनकर रह गया।



उनकी लिखी हर समीक्षा दिल में उतरती थी, जैसे उन्होंने फिल्म नहीं देखी, उसे महसूस किया हो। उनकी कलम से निकला हर जुमला फिल्म की रूह को छू लेता था।

अब वो नज़रिया, वो महसूस करने वाली आंखें, हमेशा के लिए बंद हो गईं।


अक्षय कुमार ने उनकी आख़िरी किताब का लोकार्पण किया था।

वो दुनिया भर के फिल्म फेस्टिवल्स को अपनी कलम से जोड़ते थे — Cannes हो या Berlin, वो हर जगह मौजूद रहते और हिंदी पाठकों को एक पुल मुहैया कराते।


पत्रकारों की उस भीड़ में वो एक शख़्सियत थे — अलहदा, बेबाक़, और हमेशा सच्चे।


अब वो कलम रुक गई है...

लेकिन उनके अल्फ़ाज़ हमेशा हमारी यादों में ज़िंदा रहेंगे।


— इरशाद दिल्लीवाला

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 अब मर्दानगी चिकने चेहरे नहीं, दाढ़ी में बसती है।

साउथ के नायकों ने जैसे ही परदे पर दाढ़ी में एंट्री मारी, चॉकलेटी हीरोइज़्म की चिता जल गई। चिकने-सपाट चेहरों का दौर बीत चुका है। केजीएफ के रॉकी भाई जब पहली बार स्क्रीन पर दहाड़े, तब से देशभर में दाढ़ी एक स्टेटमेंट बन गई। हर गली-मोहल्ले का नौजवान अब आईने में खुद को माचोमैन समझने लगा है — बस एक परफेक्ट दाढ़ी चाहिए।



बॉलीवुड भी भला पीछे क्यों रहता? यहां के हीरो भी अब मूंछों को ऐंठने और दाढ़ी में गम्भीरता टांगने लगे हैं। रणवीर हो या ऋतिक, सबने अपने फेस पर फजीहत छोड़ स्टबल और बियर्ड को जगह दी। मगर सवाल यही है — ये बदलाव स्टाइल का है या सिर्फ साउथ की कामयाबी को नकल करने की एक और मिसाल?


नया करने का साहस कम है, फॉर्मूलों की लकीर पीटना ज़्यादा आसान। यही बॉलीवुड की सबसे बड़ी विडंबना है। जबकि साउथ का सिनेमा रूट्स से जुड़कर ग्लोबल तक जा रहा है, हमारा मैनस्ट्रीम अभी भी बॉक्स ऑफिस के गणित में उलझा पड़ा है। ओरिजिनैलिटी हाशिए पर है, और लुक्स का ट्रेंड बस ट्रेलर का हिस्सा।

इरशाद दिल्लीवाला

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हमारे पास कल्पनाएं हैं, लेकिन उन्हें बयां करने की आज़ादी नहीं?

मानवीय संवेदनाओं की महीन परतों को जिस बारीकी, ईमानदारी और बेबाकी से फ्रांसीसी सिनेमा ने उकेरा है — शायद ही कोई और कर पाया हो। वहां कहानियों पर कोई पर्दा नहीं डाला जाता, जो सोचा जाता है, और जो भीतर कहीं छुपा बैठा है — वो परदे पर निडरता से उभरता है।



यह खुलापन है या सोचने की आज़ादी — ये तय करना मुश्किल है। लेकिन इतना तय है कि फ्रांस का सिनेमा चौंकाता है, झकझोरता है और हमारी उस कल्पनाशक्ति की सीमाओं को तोड़ देता है — जिसे हम संस्कार, मर्यादा या परंपरा के नाम पर अपने भीतर ही कैद कर बैठे हैं।


2003 में आई The Dreamers की ही बात करें — तो यह एक ऐसी फ़िल्म है जो हमारे सामाजिक ढाँचों, नैतिक पहरों और विचारों की जकड़न को खुलेआम चुनौती देती है। एक तरफ पेरिस की सड़कों पर छात्र आंदोलन सरकार से टकरा रहा है, और दूसरी तरफ तीन युवा — अपने ही एक निजी संसार में, वर्जनाओं से मुक्त, एक फैंटेसी की दुनिया में जी रहे हैं। वे जीते हैं जैसे किसी बंद दरवाज़े के पीछे नहीं, बल्कि खुले आसमान में — जहाँ कोई सामाजिक नियम, नैतिकता या भय उन्हें छू भी नहीं पाता।


वो कोई विद्रोह नहीं करते, वे तो बस खुद को महसूस करते हैं — बगैर किसी परवाह के। जैसे ज़िंदगी को अगर जीने का कोई अंतिम, प्रामाणिक तरीक़ा हो — तो शायद वही हो। जीते जी मोक्ष, अपने ही विचारों की सीमाओं से मुक्त होना — यही तो कला का अंतिम उद्देश्य होता है, और फ्रांसीसी सिनेमा इसे साध लेता है।


भारत में? अभी शायद हज़ार साल लगेंगे वहां तक पहुँचने में।


हमारी कहानियों में संवेदना तो है, लेकिन हिम्मत नहीं। हमारे पास कल्पनाएं हैं, लेकिन उन्हें बयां करने की आज़ादी नहीं। हम जिन विषयों पर आज भी कानाफूसी तक नहीं कर सकते, वहां फ्रांसीसी सिनेमा उन्हें पूरी दुनिया के सामने निर्भीकता से रखता है — बगैर किसी स्पष्टीकरण के।


यह कोई एक फिल्म की बात नहीं — Blue is the Warmest Colour हो, Amour, La Vie d'Adèle, Breathless, या Portrait of a Lady on Fire — हर एक फिल्म अपने आप में एक सवाल है, एक प्रयोग है, और एक प्रतिबिंब है उस आज़ाद सोच का जो शायद किसी पाठ्यक्रम में नहीं सिखाई जा सकती।


भारतीय सिनेमा अभी भी सतह पर तैर रहा है। गहराई में उतरने का साहस अभी कम ही लोगों में है। यहाँ हर सच्चाई को पहले सेंसर, फिर संस्कार, और अंत में डर की चाशनी में डुबोकर पेश किया जाता है।


और यही फर्क है — वहां सिनेमा आत्मा की खोज है, यहाँ अब भी मनोरंजन का साधन मात्र।

इरशाद दिल्लीवाला


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